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Bihar Politics: नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में जितने लंबे समय से काबिज हैं उसमें सबसे ज्यादा उनका दिल भाजपा के साथ NDA गठबंधन में ही लगा. हालांकि दो मौके ऐसे आए जब नीतीश कुमार का दिल भाजपा से जुदा भी हुआ और उन्होंने राजद के साथ प्यार की शुरुआत भी की लेकिन उनके इस प्यार को हर बार थोड़े ही वक्त में जमाने की नजर लग जा रही है. दोनों ही बार राजद से प्यार टूटने के बाद नीतीश को कंधे का सहारा देने के लिए भाजपा ही आगे बढ़ी. मतलब एक बार तो वह सहारा दे चुकी है और बिहार में इस समय जिस तरह का सियासी तूफान उठ खड़ा हुआ है इस बार भी भाजपा ने ही नीतीश को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाने की शपथ ली है.
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दरअसल बिहार में महागठबंधन सरकार अपनी आखरी सांसें गिन रही है. नजारा पटना की सड़कों पर वैसा ही है जैसा 2022 में था जब नीतीश भाजपा का प्यार ठुकराकर महागठबंधन के साथ इलू-इलू करने निकल पड़े थे. तब भी नीतीश ने इस्तीफा दिया था और सड़क पर डटी मीडिया के सामने यह कहते नजर आए थे कि उनकी पार्टी को भाजपा तोड़ना चाहती थी. ऐसे में उन्हें ये फैसला लेना पड़ा. उसके बाद नीतीश यह ऐलान तक कर गए कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन 2025 के विधानसभा चुनाव को लड़ेगी. फिर क्या हुआ की नीतीश का दिल इतनी जल्दी भर गया. क्योंकि 26 जनवरी 2024 का मौका और गांधी मैदान में नीतीश कुमार तेजस्वी से दूर-दूर नजर आए. हालांकि यह पहला मौका नहीं था जो बिहार में सत्ता परिवर्तन की तरफ इशारा कर रहा था कुछ समय पहले से ही नीतीश के कार्यक्रम के पोस्टर से तेजस्वी गायब नजर आ रहे थे. सियासी अटकलें तो तब से ही शुरू हो गई थी.
दरअसल बिहार में नीतीश और भाजपा की पहली सरकार के गठन के समय से ही जदयू बिहार में बड़े भाई की भूमिका में रही लेकिन समय के साथ जेडीयू पिछड़ती गई और भाजपा बढ़ती गई. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में तो भाजपा 74 और जदयू 43 सीट ही जीत पाई जो बाद में बढ़कर 45 हो गई. मतलब बिहार में राजद के बाद भाजपा दूसरी बड़ी पार्टी के तौर पर तैयार खड़ी थी. नीतीश को तब इस बाद का गुस्सा था जो वह इजहार करते रहे कि भाजपा ने चिराग पासवान के जरिए उम्मीदवार खड़ा कराकर सीटें कम करने की साजिश रची. चिराग पासवान को वह इसीलिए नापसंद भी करते रहे. वहीं भाजपा के साथ इस बार जो सरकार का गठन हुआ उससे नीतीश असहज भी महसूस कर रहे थे. नीतीश को सुशील मोदी डिप्टी सीएम के तौर पर भाते थे. लेकिन, रेनू देवी और तारकिशोर प्रसाद को लेकर वह ज्यादा सहज नहीं हो पा रहे थे. नीतीश ने इसके बाद 2022 में महागठबंधन का रास्ता चुन लिया और फिर एक बार सीएम बन गए.
लेकिन समय के साथ उनका महागठबंधन खासकर राजद से मोहभंग हो गया. कांग्रेस के साथ मिलकर विपक्षी दलों को इकट्ठा कर इंडिया गठबंधन बनाने वाले नीतीश को इसके काम करने के तरीके से भी सहजता महसूस नहीं हो रही थी. नीतीश को यह भी पता था कि जेडीयू के सांसद भी पार्टी के काम करने के तरीके से खुश नहीं है और बड़ी संख्या में भाजपा के संपर्क में हैं. इन सांसदों को एहसास है कि अगर राजद, कांग्रेस और वाम दलों के समर्थन में 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ा गया तो वैसा पब्लिक का प्यार नहीं मिलेगा जो भाजपा के साथ की वजह से 2019 के लोकसभा चुनाव में मिला. ऐसे में ललन सिंह को अलग रख दें तो जदयू के ज्यादातर नेता गाहे-बगाहे भाजपा के साथ पार्टी को आ जाने की बात करते रहे. ऐसे में नीतीश समझ गए थे कि इस मसले का हल नहीं निकाला गया तो पार्टी टूट जाएगी. ऐसे में वह खुद ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. ललन सिंह से नाराज होने की एक वजह नीतीश की उनकी लालू के साथ बढ़ती नजदीकी भी थी.
नीतीश को पता है कि 2019 में भाजपा के साथ लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जो करिश्मा किया था. वह परिणाम इस बार नहीं आएगा. पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आ गई थी. वहीं नीतीश को समझ में आ गया कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही जीत की संभावना है तो फिर इसमें पार्टी के लिए हर्ज किस बात की है. वहीं दूसरी तरफ राम मंदिर के उद्घाटन के बाद नरेंद्र मोदी का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा है वह भी नीतीश को खींचने लगा. इस सब के बीच पीएम मोदी ने कर्पूरी ठाकुर के लिए भारत रत्न का ऐलान कर एक और मास्टर स्ट्रोक दे मारा.
वहीं नीतीश को उम्मीद थी कि इंडिया गठबंधन को जिसे उन्होंने तैयार किया है उसमें उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलेगी जो हो नहीं पाया. गठबंधन के कई सहयोगी दल अपनी ही राग अलापने लगे. ऐसे में 2017 में राजद का दामन छोड़ने के लिए नीतीश ने जहां उसे जिम्मेदार ठहराया था वहीं इस बार उनके निशाने पर इस फूट के लिए कांग्रेस है. ऐसे में नीतीश कुमार को अपने और अपनी पार्टी के लिए यह व्यवहारिक निर्णय लेना पड़ा.