एक अकेले जॉर्ज ना जाने क्या-क्या थे. यही वजह है कि आजादी के बाद भारत की समाजवादी सियासत का मंजरनामा बगैर जॉर्ज फर्नांडिस का जिक्र किए कभी मुकम्मल नहीं होगा.
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Patna: 3 जून को समाजवादी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की जयंती है. एक मजदूर नेता, सत्ता विरोधी पत्रकार, विद्रोही तेवर के व्यक्तित्व, आपातकाल के बागी, कुशल संगठनकर्ता, समता पार्टी के निर्माता, एनडीए के संयोजक, केंद्र के अलग-अलग विभागों के मंत्री और इन सबसे अलग एक सादगी भरा जीवन जीने वाले समाजवादी आंदोलन के सच्चे सिपाही, एक अकेले जॉर्ज ना जाने क्या-क्या थे. यही वजह है कि आजादी के बाद भारत की समाजवादी सियासत का मंजरनामा बगैर जॉर्ज फर्नांडिस का जिक्र किए कभी मुकम्मल नहीं होगा.
जॉर्ज फर्नांडीस का जन्म 3 जून 1930 को मैंगलोर के कैथोलिक परिवार में हुआ था. इनकी पढ़ाई लिखाई मैंगलौर के स्कूल और सेंट अल्योसिस कॉलेज से हुई. 1949 में जॉर्ज काम की तलाश में मुंबई आ गए. मुंबई में इनका जीवन कठिनाइयों भरा रहा. मामूली नौकरी करते थे, चौपाटी स्टैंड की बेंच पर सोते थे, फुटपाथ पर रहते थे. ये उनके संघर्ष के दिन थे लेकिन इन्हीं संघर्षों ने जॉर्ज फर्नांडिस के व्यक्तित्व का निर्माण किया था. इसके बाद वो सोशलिस्ट लीडर डॉ राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए और सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आंदोलन में शामिल हो गए. इस आंदोलन में उन्होंने मजदूरों के हक की आवाज उठाई.
1961 में मुंबई सिविक का चुनाव जीतकर मुम्बई महानगरपालिका के सदस्य बने, 1967 के लोकसभा चुनाव में उन्हें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से मुंबई दक्षिण का टिकट मिला. इस चुनाव में जॉर्ज ने कांग्रेस के दिग्गज नेता एसके पाटिल को बड़े अंतर से हराया. इसी चुनाव से जॉर्ज की देशव्यापी पहचान बनने लगी. 1960 के बाद जॉर्ज मुंबई में हड़ताल करने वाले लोकप्रिय नेता और देश के जाने माने नेता के तौर पर स्थापित हो गए.
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1969 में वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव चुने गए, 1973 में पार्टी के चेयरमैन बने. 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस ने ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन का अध्यक्ष बनने के बाद भारत की बहुत बड़ी रेलवे के खिलाफ हड़ताल शुरू की. वे तीसरे वेतन आयोग को लागू करने की मांग कर रहे थे.
इसके बाद आपातकाल के आंदोलन में जॉर्ज फर्नांडिस के योगदान को कोई भूला नहीं सका. उन्हें बड़ौदा डायनामाइट कांड में आरोपी बनाया गया और गिरफ्तारी के बाद जेल में डाला गया. जेल से ही उन्होंने 1977 में बिहार के मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से नामांकन का पर्चा दाखिल किया. जॉर्ज के लिए मुजफ्फरपुर में नारा दिया गया, 'जेल का ताला टूटेगा जॉर्ज फर्नांडिस छूटेगा'.
जॉर्ज फर्नांडिस की कर्मभूमि बिहार ही रही. बिहार से वे कई बार लोकसभा सदस्य चुने गए. राज्यसभा के सदस्य भी रहे, केंद्र में रेल और रक्षा मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग संभाला. लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस का रहन-सहन और जीवन हमेशा सादगी भरा बना रहा.
जॉर्ज फर्नांडिस के राजनीतिक जीवन के उत्तरार्द्ध में उनका सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को हुआ. बिना जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश ना तो समता पार्टी का गठन कर सकते थे और ना ही बिहार में जड़ें जमा चुके लालू प्रसाद और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को सत्ता से बेदखल कर सकते थे.
जाहिर है इस करिश्मे में जॉर्ज बराबर के भागीदार थे. लेकिन फिर भी अंतिम समय में नीतीश कुमार के साथ जॉर्ज फर्नांडिस के रिश्ते ठीक नहीं रहे. 2009 के लोकसभा चुनाव में मांगने पर भी जॉर्ज फर्नांडिस को टिकट नहीं दिया गया. जॉर्ज खुद को सेहतमंद दिखाने के लिए एयरपोर्ट से पैदल मुख्यमंत्री आवास तक चलने के लिए पटना पहुंचे. लेकिन नीतश कुमार पटना छोड़ के दिल्ली चले गए.
हालांकि, जॉर्ज फर्नांडिस ने चुनाव लड़ने का एलान कर दिया. हार मिली और बाद में नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया. इस वक्त जॉर्ज साहब की सेहत उनका साथ नहीं दे रही थी. अल्जाइमर जॉर्ज साहब पर असर दिखाने लगा था. धीरे-धीरे वे सक्रिय सियासत से दूर हो रहे थे. ऐसे वक्त में सियासी दिग्गज अमूमन अकेले पड़ जाते हैं. उनका हाल जानने की जहमत ना तो उनके तथाकथित सियासी शिष्य दिखाते हैं और ना ही उनकी मेहनत की फसल काटने वाले बड़े नेता.
यूं तो जॉर्ज की सियासी जिंदगी में उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन हाल के दिनों की बात करें तो जब पोकरण में परमाणु विस्फोट हुआ तो देश के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ही थे और जब देश के बहादुर जवानों ने कारगिल में पाकिस्तान को धूल चटाई तब भी देश के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ही थे. आज जॉर्ज फर्नांडिस को याद करने का दिन है, उनके सियासी शिष्य उन्हें नमन कर रहे हैं, उनके चित्र पर माल्यार्पण कर रहे हैं लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस को सच्ची श्रद्धांजलि उनके विचारों को आगे बढ़ाकर और जॉर्ज के रास्ते पर चलकर ही दी जा सकती है.