कंबल देके धौंस दिखा रहे हो... कौन आपसे कंबल मांगने गया था. ये सब बातें प्रशांत किशोर को तीर की तरह चुभी होंगी, जब वे बीपीएससी अभ्यर्थियों के जख्मों पर मरहम लगाने गए होंगे. क्या सोचकर गए थे... अभ्यर्थी आपकी आरती उतारेंगे. आपको हाथोंहाथ लेंगे. कंबल देकर आंदोलन हाईजैक करने चले थे. दिल्ली के किसान आंदोलन की दुहाई दे रहे थे. ​Give & Take की पॉलिसी पर चल रहे थे. करवा ली न बेइज्जती. सोशल मीडिया से लेकर अखबारों के पन्ने और इंटरनेट पर चल रही खबरों की मानें तो बीपीएससी अभ्यर्थियों की नजरों में खलनायक बन गए. अब प्रशांत किशोर को समझ में आ गया होगा कि राजनीति दो दूनी चार नहीं होती.


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अभी तक प्रशांत किशोर अंकगणित के हिसाब से राजनीतिक दलों के आकाओं को राजनीति का ककहरा सिखा रहे थे. कई जगह उनकी स्ट्रैटजी सफल हुई और उनका स्ट्राइक रेट भी जबर्दस्त रहा है. फिर प्रशांत किशोर के दिमाग में आया, मैं दूसरों को जो स्ट्रैटजी बेच रहा हूं, उसके दम पर तो मैं खुद भी मैदान में उतरकर अलग तरह की राजनीति कर सकता हूं. बस, उतर गए मैदान में. बिना यह सोचे समझे कि कोच कभी खिलाड़ी नहीं हो सकता.


अब ये जो आप पर आरोप लग रहे हैं प्रशांत किशोर जी, ये राजनीति में बहुत गंभीर आरोप होते हैं. समझ लीजिए कि एक तबका आपसे हमेशा के लिए छिटक गया. हो सकता है कि जो लोग आपका विरोध कर रहे हैं, वो किसी अन्य पार्टियों से ताल्लुकात रखते हों पर जो परसेप्शन बन रहा है आपके और जन सुराज के खिलाफ, उसका क्या कीजिएगा? किस किसका मुंह बंद कीजिएगा? कहां कहां सफाई दीजिएगा? अब तो आप पर एक लेबल चस्पा हो गया.


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अच्छा होता कि आप मेरिट पर बात करते. छात्रों को, अभ्यर्थियों को और सरकार के अलावा बीपीएससी को बीच का रास्ता निकालने के लिए कुछ तरीके बताते. आप तो अभ्यर्थियों को भड़का रहे थे गांधी मैदान में. दिल्ली के किसान आंदोलन का उदाहरण दे रहे थे. अभ्यर्थियों को आपलोगों ने टूल किट की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. लांग टर्म आंदोलन करने के लिए उकसा रहे थे. आप चाह क्या रहे थे कि बिहार में छात्र भड़क जाएं और सरकार के खिलाफ तख्तापलट करने लगें. 


चलिए, आपने इतनी गनीमत की कि बांग्लादेश के छात्र आंदोलन का उदाहरण लेकर नहीं आए. वैसे इरादा तो यही था. आपसे स्मार्ट पॉलिटिशियन तो तेजस्वी यादव निकले. आंदोलन का साथ भी दे रहे हैं और छात्रों की नाराजगी भी मोल नहीं ली. आप तो आगे निकलने की होड़ में इतने आगे निकल गए कि बाकी सब पीछे छूट गए और पुलिस के वाटर कैनन और लाठियों के आगे आ गए. राजनीति में एकदम से इतना आगे आना भी प्रशांत किशोर जी ठीक बात नहीं होती. अच्छा होता कि जैसे आप जीतने की रणनीति लोगों को सिखा रहे थे, वैसे ही राजनीति का ककहरा आप किसी और से सीखिए.


ये लेखक के अपने विचार हैं. 


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