WHO के मुताबिक विज्ञापनों की आकर्षित करने वाली कैच लाइंस, स्लोगन और इंसान को सुपर हीरो की सुपर पावर देने वाले प्रॉडक्ट उसे असल में बीमार बना रहे हैं. ऐसे विज्ञापनों और ऐसे फूड प्रोडक्ट का सबसे बड़ा शिकार बच्चे बन रहे हैं.
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misleading advertising: इस वैश्विक दौर में कंपनियां अपने प्रॉडक्ट के जरिये मार्केट को कैप्चर करने और मुनाफे को कई गुना बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर विज्ञापन का सहारा लेती हैं. इसके लिए कंपनियां कैच लाइंस, स्लोगन और बड़े-बड़े मॉडल और नामी अभिनेताओं से विज्ञापन कराने को तरजीह देते हैं, लेकिन चॉकलेट में इम्युनिटी, डिब्बाबंद जूस में सेहत का खजाना और बिस्किट में तंदुरुस्ती जैसे किए गए तमाम दावे क्या वाकई सच होते हैं तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की यह चेतावनी पढ़ लीजिए.
WHO के मुताबिक विज्ञापनों की आकर्षित करने वाली कैच लाइंस, स्लोगन और इंसान को सुपर हीरो की सुपर पावर देने वाले प्रॉडक्ट उसे असल में बीमार बना रहे हैं. ऐसे विज्ञापनों और ऐसे फूड प्रोडक्ट का सबसे बड़ा शिकार बच्चे बन रहे हैं.
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आए दिन मॉडल, डॉक्टर के भेष में आपको प्रोडक्ट से होने वाले फायदे गिनाते नजर आ जाएंगे या कोई फिल्म एक्टर अपनी खूबसूरती का राज किसी ड्रिंक को बताता दिख जाता है. चॉकलेट खाने से दिमाग तेज होता है. दूध में पाउडर मिलाने से इम्युनिटी बढ़ जाती है या फिर एक ग्लास जूस से चार फलों की ताकत मिलती है. ऐसी लाइनें सुनकर बच्चे तो क्या, उनके माता पिता भी चक्कर में पड़ जाते हैं.
पैकेटबंद खाने के नाम पर गटक रहे केमिकल
आजकल विज्ञापन में किए बड़े-बड़े दावों के बाद बाजार में बहुत सी चीजें इसलिए खरीद ली जाती हैं कि ये सेहत बनाने में मददगार होती हैं. बिना ये समझे कि पैकेटबंद खाने के नाम पर हमने न जाने कितना सिंथेटिक, आर्टिफिशियल कलर, जरूरत से ज्यादा चीनी और नमक गटक लिया है. इसी को भ्रामक विज्ञापन यानी misleading advertising कहा जाता है.
उत्पाद खरीदते वक्त इंग्रिडिएंट्स को करते हैं नजरअंदाज
अब ऐसे भ्रामक विज्ञापनों के प्रति WHO ने सावधान किया है कि ऐसे विज्ञापन बच्चों के लिए घातक साबित हो रहे हैं. 2009 से अब तक किए गए 200 अलग-अलग रिसर्च के आकलन में ये बात सामने आई है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक ऐसे विज्ञापनों से पैदा होने वाली गलतफहमियां खतरनाक हो सकती हैं. इसीलिए ऐसे विज्ञापनों को कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। सबसे ज्यादा मार्केटिंग फास्ट फूड, चीनी वाली ड्रिंक्स, चॉकलेट, नमकीन और मिठाइयों की होती है. अधिकांश लोग खाने की एक्सपायरी डेट की जांच तो कर लेते हैं, लेकिन उसके इंग्रिडिएंट्स नहीं देखते.
चीनी की मात्रा कम करना ही बेहतर
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक मुताबिक बड़ों और बच्चों को खाने में चीनी की मात्रा कम करनी चाहिए और दिनभर की कैलोरी की जरूरत का 10 प्रतिशत ही added Sugar से आना चाहिए। WHO ने अब इस मात्रा को भी कम करके 5 ग्राम करने की सिफारिश की है. Added Sugar से मिलने वाली कैलोरी को सेहतमंद नहीं माना जाता.
चीनी मिले ड्रिंक्स कर सकते हैं मेमोरी पावर
Cloud-Nine Hospitals में बाल रोग विशेषज्ञ डॉ शिशिर भटनागर के मुताबिक यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया ने चूहों पर की गई एक रिसर्च में पाया कि रोजाना अगर चीनी मिले ड्रिंक्स लिए जाते हैं तो इससे याद्दाश्त खराब हो सकती है. इस रिसर्च के मुताबिक चीनी की वजह से गट में मौजूद बैक्टीरिया पर बुरा असर पड़ता है, जिससे मेमोरी खराब हो सकती है.
एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ कंज्यूमर वॉइस के सीओओ आशिम सान्याल के मुताबिक मल्टीनेशनल कंपनियों के ऐसे प्रॉडक्ट्स की बाजार में कोई कमी नहीं है, जिसमें जरूरत से ज्यादा नमक, चीनी या अनाप शनाप केमिकल्स होते हैं. अगर इन्हें रोज खाए जाए तो इंसान को बीमार कर सकते है. इसे पर रोक FSSAI लगा सकती है.
FSSAI का नियम लागू होने का इंतजार
भारत में खाद्य पदार्थों को लेकर नियम बनाने वाली सरकारी संस्था Food Safety Standards Authority of India (FSSAI) ने 2018 में एक ड्राफ्ट तैयार किया था कि किसी पैकेट में अगर नमक, चीनी या फैट की मात्रा ज्यादा है तो पैकेट के फ्रंट पर इसकी जानकारी दें और ग्राहक को तय करने दें कि वो क्या चाहता है, लेकिन ये नियम अभी तक लागू नहीं हो सका है. उम्मीद की जा रही है कि इस साल पैकेट के फ्रंट पर ज्यादा नमक या चीनी या फैट की जानकारी वाला लेबल आ जाएगा. अभी परेशानी यह है कि कंपनियां सेहत वाले फायदे तो गिना देती हैं लेकिन अगर प्रॉडक्ट में चीनी या नमक या फैट ज्यादा है तो उसे छोटे से फॉन्ट में छिपाकर काम खत्म कर देती हैं.
95 हजार बच्चों को टाइप वन डायबिटीज
न्यूट्रीशनिस्ट डॉ शिखा शर्मा ने बताया कि भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले autonomous रिसर्च इंस्टीट्यूट "Institute of Economic Growth" के 2020 में जारी किए आंकड़ों के मुताबिक भारत में साल 2020 में मोटापे का शिकार 5 से 19 साल के बच्चों की संख्या 1.70 करोड़ से ज्यादा थी, जो 2030 तक बढ़कर 2.70 करोड़ से ज्यादा के होने का अनुमान है. भारत में 95 हजार बच्चों को टाइप वन डायबिटीज है. हर साल 16 हजार बच्चे औसतन इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं. सेहत बांटने का दावा करने वाले ऐसे प्रॉडक्ट्स की बाजार में कोई कमी नहीं है, जो असल में आपकी सेहत को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसीलिए जब तक भारत में कड़े कानून नहीं बनते और बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों की मनमानी जारी रहती है, तब तक सजग रहकर फैसला लेने की जिम्मेदारी आपकी है.