Independence Day Special Story: ये कहानी उस शख्सियत की है, जिन्होंने बंटवारे में अपना सबकुछ खो दिया. जिनके पिता को उनके साथ ही काम करने वाले लोगों ने मारना चाहा. भारत आने के बाद वो लेखक, शिक्षक, प्रोफेसर और शायर बने हरियाणा सरकार ने उन्हें फख्र-ए-हरियाणा पुरस्कार से नवाजा.
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Independence Day Special Story: स्वतंत्रता दिवस की तारीख आते ही 76 वर्ष पूर्व का वो काला मंजर याद आ जाता है. बच्चों, बुजुर्गों से लेकर महिलाओं और नौजवान की वो चीख आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है. वक्त तो अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता जा रहा है, मगर उस खूनी रात की वो यादें आज भी डरा जाती हैं. आजादी के दौरान लाखों की संख्या में लोग घर से बेघर हो गए. किसी के बेटे कि हत्या कर दी गई तो किसी की जवान बेटी को दहशतगर्दों ने उठा लिया. उस एक रात ने ऐसी यातनाएं दीं, जिन्हें अगर आज भी याद करता हूं तो रूह कांप उठती है. ये शब्द किसी फिल्म के स्क्रिप्ट नहीं बल्कि उस रात का दंश झेलने वाले राणा गन्नौरी के हैं. उन्होंने बंटवारे के दौरान की उन खूनी रातों के बारे में बताया, जिससे कोई भी कांप जाएगा.
"मेरा नाम राणा प्रताप सिंह है, मैं शायरी करता हूं"
जब पहली दफा हमने उनसे बात की तो फोन लाइन पर सामने से एक मजबूत आवाज सुनाई दी, जिसमें उम्र शब्दों की लड़खड़ाहट से हमेशा अपनी दस्तखत देती रही. ये पूछने पर कि क्या आपका नाम राणा गन्नौरी है उन्होंने कहा " जी मेरा नाम राणा प्रताप सिंह गन्नौरी है. मैं शायरी करता हूं." थोड़ी देर बात करने के बाद अपने गांव और बचपन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि " पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ जिले के अलीपुर तहसील में बसा जहानपुर नाम का एक बेहद ही प्यारा हमारा गांव था. गांव के बाहरी हिस्से में मुस्लमान रहा करते थे और अंदर की ओर हिंदुओं के घर थे. दोनों धर्म के लोग बेहद ही प्यार और लगाव के साथ अपनी जिंदगियों को जी रहे थे." राणा गन्नौरी के पिता सरकारी नौकरी में कार्यरत थे. वे उनके साथ ही रहा करते थे. विभाजन से पहले उन्होंने पाकिस्तान के चार अलग-अलग जगहों से अपनी चौथी कक्षा तक की शिक्षा हासिल की थी. तब उनके परिवार में उनके माता-पिता, वो, उनके तीन भाई और उनकी दादी रहा करती थीं. अपने बचपन के बारे में उन्होंने कहा कि वे बड़े ही बन-ठनकर रहते थे और सुंदर सा दिखते थे.
परिवार से रहना पड़ा था दूर
राणा प्रताप सिंह विभाजन के प्रत्यक्षदर्शी और उसके दंष के भुक्तभोगी रहे हैं. बंटवारे के दौरान हो रहे दंगों के बारे में बात करते हुए सिहरन भरी आवाज में उन्होंने कहा कि वो मंजर भूलाए नहीं भूलता. वो एक ऐसा मंजर था, जब खून की नदियां बह रही थीं. रेलगाड़ियों के डिब्बे लाश से भरे हुए आते थे और चारों ओर खौफ और पीड़ा की एक लू चल रही थी, जिसमें हर कोई झुलस रहा था. उन्होंने कहा कि " हम छुट्टियों में पिताजी से अलग अपने गांव आए हुए थे. तभी ये घटनाएं होने लगीं. वो दशहरा का दिन था, जब परिवार ने मुझे खुद से दूर कर दिया. मैं पिताजी के एक जानकार व्यक्ति के साथ नाना के घर करनाल पहुंचा. इसके कई दिन बीत जाने के बाद दीपावली के दिन मेरा परिवार जालंधर के कैंप में पहुंचा." इसके बाद उनके परिवार को करनाल और पानीपत के बीच स्थित एक कस्बे 'घरौंदा' में घर और घर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर खेती के लिए जमीन मिली. यहां रहने के बाद रोहतक में उन्हें पर्मानेंट घर और जमीनें मिलीं.
अंधेरे ने अंधेरे को किया दूर
राणा गन्नौरी एक किस्सा बताते हैं कि "हम बड़े ही खुशकिस्मत थे कि हमारे घर एक अनहोनी होते-होते बच गई. उन्होंने कहा कि " मेरे पिताजी सूरजाबाद में काम करते थे, वहां के अफ्सरों ने उन्हें इस बात पर राजी करा लिया था कि वे हिंदुस्तान न जाएं. वे उन्हें मारना चाहते थे, लेकिन उनके चपरासी, जिसका नाम गुलाम रसूल था उसने उनसे कहा कि चौधरी आप चिंता न करो मैं इस टोह में हूं कि जैसे ही कोई गाड़ी यहां से जाएगी मैं आपको उसमें बैठा दूंगा." उन्होंने कहा कि गुलाम ने मेरे पिता की जान बचाई. उन्होंने कहा कि "मेरे पिता जिस ट्रेन से हिंदुस्तान आ रहे थे, उस ट्रेन के सारे डिब्बों में लाइट जल रही थी. सिर्फ उनके डिब्बे में बत्ती नहीं थी. जब ट्रेन हिंदुस्तान पहुंची तो उस ट्रेन के सभी डिब्बों में सिर्फ लाशें थीं. बस उस डिब्बे के लोग सुरक्षित थे, जिसकी बत्ती नहीं जल रही थी. उन्होंने बताया कि पिताजी को एक बंद बत्ती ने बचा लिया. अंधेरे ने हमारी जिंदगी में रोशनी भर दी.
चीन के युद्ध के दौरान बंदूक चलाना सिखा
हिंदुस्तान-चीन के युद्ध को याद करते हुए राणा गन्नौरी कहते हैं कि "उस वक्त मैं रोहतास नगर में अपनी सर्विस दे रहा था. मैं एक स्कूल में शिक्षक था. हमें मालूम चला कि चीन ने देश पर हमला कर दिया है, जिससे सबको एक गहरा धक्का लगा. इसके बाद हमें जानकारी दी गई कि जरूरत पड़ने पर हमें भी युद्ध में शामिल किया जा सकता है इसलिए हफ्ते-दस दिन तक बंदूक चलाना भी सिखा."
"पाकिस्तान से गया हूं हिंदुस्तान"
राणा प्रताप सिंह यानी राणा गिन्नौरी अबतक कई किताबें लिख चुके हैं. इसके साथ ही उन्होंने अपनी मातृभाषा मुलतानी से हिंदी का 40 वर्षों की मेहनत के बाद शब्दकोश बनाया है. शायरी, मुशायरों के प्रति उनका प्रेम साफ तौर पर देखा जा सकता है. एक किस्सा याद करते हुए उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से आने के 40 साल बाद साल 1987 में वो अपने दोस्तों के साथ 7 दिनों के लिए वापस पाकिस्तान गए थे. वहां एक दिन एक मुशायरे में वे शामिल हुए. मंच संचालक ने लोगों से उनका हिंदुस्तान से आए कवि के तौर पर पहचान कराया, जिसपर उन्होंने कहा " मैं हिंदुस्तान से आया नहीं, बल्कि पाकिस्तान से हिंदुस्तान गया हूं."
हां मैंने तरक्की की है
राणा गन्नौरी ने अभी तक कई पुस्तकों की रचना की है. हरियाणा सरकार ने वर्ष 2013-14 में राणा गन्नौरी को फख्र-ए-हरियाणा पुरस्कार से सम्मानित किया. राणा गन्नौरी ने इस अवार्ड के बारे में गर्व के उच्चे स्वर में कहा कि ये मेरी 40 वर्षों की साहित्यिक साधना का परिणाम है. राणा गन्नौरी जी ने हिंदी, संस्कृत और उर्दू में MA किया है और एक साथ ही ये एक कॉलेज में बतौर हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर रहे हैं. साल 1949 में उन्होंने बतौर प्राइमरी शिक्षक पढ़ाना प्रारंभ किया और साल 1998 में इनकी रिटायर्मेंट हुई. राणा गन्नौरी ने बताया कि उन्होंने पहली कक्षा के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था और MA के बच्चों को पढ़ाते हुए सेवानिवृत हुए. उन्होंने कहा कि "अगर आप इसे मेरी तरक्की मानना चाहते हैं तो हां, मैंने तरक्की की है."
एक ऐसा जख्म जो वक्त के साथ बढ़ते गया
राणा गन्नौरी आज लगभग 85 वर्ष के हो चुके हैं. आज उनका एक खुशहाल परिवार है. उन्होंने बताया कि विभाजन के दौरान उन्होंने तो किसी को नहीं खोया, लेकिन आज भी उनको वो मंजर दिल को दहला जाती है. राणा गन्नौरी ने तो किसी अपने को नहीं खोया लेकिन आज भी दोनों देशों में ऐसे कई परिवार हैं, जिन्होंने इस विभाजन के दौरान अपने परिवार के कई सदस्यों को हमेशा के लिए खो दिया. इस बंटवारे ने कई लोगों को एक ऐसा दर्द और जख्म दिया, जो वक्त के साथ और गहरा होते चला गया.