इस विश्लेषण के केंद्र में है असम सरकार का एक नया फैसला. असम के शिक्षा मंत्री हेमन्ता बिस्वा सरमा ने ये घोषणा की है कि अब उनके राज्य में चल रहे सभी मदरसों को और संस्कृत स्कूलों को सामान्य स्कूलों में बदल दिया जाएगा.
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नई दिल्ली: कहते हैं बचपन गीली मिट्टी के समान होता है और इस दौरान आप अपने बच्चों के व्यक्तित्व को जो आकार देते हैं वही उनके भविष्य की बुनियाद बन जाता है. लेकिन सवाल ये है कि आप में से कितने लोग अपने बच्चों को बचपन में ही पादरी, मौलवी या पुजारी बनाना चाहते हैं? अगर आप ऐसा चाहते भी हैं तो क्या आपका बच्चा भी यही चाहता है? आज के हमारे विश्लेषण का आधार यही सवाल हैं और इन्हीं का जवाब ढूंढते हुए आज हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि जब भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो फिर सरकार के खर्चे पर बच्चों को धार्मिक शिक्षा क्यों दी जानी चाहिए? और अगर भारत में सभी को अपना धर्म और पूजा पद्धति चुनने की आजादी है तो फिर बच्चों से ये आजादी क्यों छीन ली जाती है?
इस विश्लेषण के केंद्र में है असम सरकार (Assam Government) का एक नया फैसला. असम के शिक्षा मंत्री हेमन्ता बिस्वा सरमा (Himant Biswa Sarma) ने ये घोषणा की है कि अब उनके राज्य में चल रहे सभी मदरसों (Madarsa Education) को और संस्कृत स्कूलों को सामान्य स्कूलों में बदल दिया जाएगा. इसके अलावा मदरसों पढ़ाने वाले शिक्षकों का भी नए स्कूलों में ट्रांसफर किया जाएगा.
कुरान पढ़ाई जा सकती है तो फिर गीता या बाइबल क्यों नहीं
असम की सरकार का साफ कहना है कि सरकार के पैसों से बच्चों को कुरान नहीं पढ़ाई जा सकती और अगर सरकारी खर्चे पर कुरान पढ़ाई जा सकती है तो फिर गीता या बाइबल क्यों नहीं पढ़ाई जा सकती. लेकिन अब हर फैसले की तरह इस फैसले का भी विरोध शुरू हो गया है और इस पर देश दो हिस्सों में बंट गया है. इस बंटवारे ने खुद को सेक्युलर कहने वालों की भी पोल खोल दी है. ये लोग इस फैसले को अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय बता रहे हैं. इन लोगों से हमारा सवाल ये है कि शिक्षा में धर्म की एंट्री सेक्युलरिज्म के खिलाफ है या फिर शिक्षा को धर्म से मुक्त करना सच्चा सेक्युलरिज्म है. आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि जिस देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की मांग उठ रही है. उस देश में सरकारी खर्चे पर बच्चों को धार्मिक शिक्षा क्यों दी जानी चाहिए? हम इस विरोधाभास का विश्लेषण करेंगे.
मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा दी जाती है?
भारत में असम समेत इस समय कुल 18 राज्य ऐसे हैं जहां मदरसों को केंद्र सरकार से फंडिंग मिलती है. इनमें मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी शामिल हैं. अब असम ने इस प्रथा पर रोक लगा दी है. लेकिन धर्म और शिक्षा को अलग अलग करने के इस फैसले पर राजनीति भी शुरू हो गई है.
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा में इस समय बीजेपी की सरकार है तो जबकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है. यानी सरकारी खर्चे पर धार्मिक शिक्षा देने का काम, लगभग सभी सरकारें करती हैं और इसके पीछे मकसद क्या है, ये हमें बार बार आपको बताने की जरूरत नहीं है. भारत का 70 वर्षों का इतिहास धार्मिक तुष्टिकरण की ऐसी ही मिसालों से भरा पड़ा है. अल्पसंख्यकों को अपने मुताबिक शिक्षा हासिल करने का अधिकार भारत का संविधान भी देता है.
संविधान के आर्टिकल 30 के मुताबिक..भारत के अल्पसंख्यकों को ये अधिकार है कि वो अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और वो बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं और भारत में मदरसे संविधान के इसी आर्टिकल के आधार पर चलते हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा दी जाती है, इनमें गणित और विज्ञान जैसे आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं. लेकिन मूल रूप से इनका मकसद बच्चों को धर्म के रास्ते पर ले जाना ही होता है.
लेकिन सवाल यही है कि जिस देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की मांग होती है, उस देश में धर्म को शिक्षा से अलग किए बिना ऐसा कैसे संभव है और उससे भी बड़ा प्रश्न ये है कि जो छोटे-छोटे बच्चे सही और गलत की पहचान करने में भी सक्षम नहीं होते. उन्हें ये कैसे पता चलेगा कि जो उन्हें पढ़ाया जा रहा है वो उन्हें तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा या फिर कट्टर बना देगा.
छात्रों को पढ़ाया क्या जाता है?
शिक्षा मंत्रालय के वर्ष 2018 के आंकड़ों के मुताबिक इस समय भारत के 18 राज्यों में चलने वाले मदरसों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए केंद्र सरकार से मदद मिलती है. भारत में 4 राज्य ऐसे हैं जहां 10 हजार से ज्यादा मदरसें हैं, जिनमें 20 लाख से ज्यादा छात्र पढ़ते हैं. इनमें से सबसे ज्यादा मदरसे उत्तर प्रदेश में हैं, जहां 8 हजार से ज्यादा मदरसों में 18 लाख से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं. लेकिन इन मदरसों में छात्रों को पढ़ाया क्या जाता है, ये भी आपको समझ लेना चाहिए.
मूल रूप से मदरसों में छात्रों को इस्लामिक शिक्षा दी जाती है, इनमें कुरान में कही गई बातों को पढ़ाया जाता है और इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े दूसरे विषयों की पढ़ाई होती है.
कहा जाता है कि मदरसों की शुरुआत सातवीं शताब्दी में तब हुई थी, जब धार्मिक शिक्षा हासिल करने के इच्छुक लोगों को मस्जिदों में इस्लाम धर्म के विषय में पढ़ाया जाने लगा. इसके बाद के 400 वर्षों के दौरान मदरसे शिक्षा के अलग केंद्रों के रूप में विकसित होने लगे.
शुरुआत में मदरसों का खर्च वो लोग उठाते थे जो आर्थिक रूप से समृद्ध होते थे. इसके बाद 11वीं शताब्दी तक मदरसें धार्मिक शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र के रूप में विकसित होने लगे और जैसे जैसे मदरसों के पास पैसा आता गया. वैसे वैसे इन्हें स्थायी इमारतें, शिक्षक और देखरेख करने वाले कर्मचारी भी मिलते गए.
मकसद था धर्म का प्रचार करना
एक दौर में जब पश्चिमी देशों के सिर्फ 5 प्रतिशत लोग पढ़ और लिख पाते थे उस दौर में मदरसों में लाखों मुसलमान शिक्षा हासिल करने लगे थे और मदरसों की स्थापना रूस, मंगोलिया, चीन, भारत और मलेशिया जैसे देशों में होने लगी थी. लेकिन 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ने लगा और दुनियाभर में ईसाई मिशनरी स्कूलों की स्थापना होने लगी. इन स्कूलों की स्थापना के पीछे का मकसद भी धर्म का प्रचार करना था. लेकिन फर्क सिर्फ इतना था कि अंग्रेजों ने ऐसा करने के लिए विज्ञान, गणित और टेक्नोलॉजी की शिक्षा को आधार बनाया. इससे लोगों को रोजगार मिलने लगा और ज्यादा से ज्यादा लोग ईसाइयों के स्कूलों में आने लगे, जबकि आधुनिक शिक्षा के अभाव में मदरसों से पढ़कर निकलने वाले छात्रों के लिए रोजगार की कमी होने लगी और धीरे-धीरे ये लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ने लगे.
भारत में मदरसों की स्थापना 10वीं शताब्दी से होने लगी थी. यानी जैसे ही मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा किया वैसे ही भारत में मदरसों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार किया जाने लगा.
फैसले का विरोध
असम में जिन मदरसों को स्कूलों में बदलने का फैसला किया गया है उनकी संख्या 1500 से ज्यादा है. इनमें से 614 सरकारी और 900 प्राइवेट मदरसे हैं. सरकार इन पर हर साल 3 से 4 करोड़ रुपये खर्च करती है. लेकिन अब इन मदरसों को सरकार से मिलने वाली ये मदद बंद हो जाएगी, जबकि संस्कृत स्कूलों पर हर साल करीब एक करोड़ रुपये ही खर्च होते हैं. लेकिन ये भेदभाव किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है.
उदहरण के लिए जम्मू कश्मीर में वैष्णो देवी यूनिवर्सिटी को 7 करोड़ रुपए की ग्रांट दी जानी थी. लेकिन उसमें से सिर्फ आधी ग्रांंट ही अब तक जारी हो पाई है, जबकि राजौरी की बाबा गुलाम शाह बादशाह यूनिवर्सिटी और कश्मीर के अवंतीपुरा में स्थित इस्लामिक यूनिवर्सिटी के लिए बीस बीस करोड़ रुपये की ग्रांट जारी की गई है और इन दोनों विश्वविद्यालयों को 25-25 करोड़ रुपये की अतिरिक्त ग्रांट भी मिली है. तीनों विश्वविद्यालयों को राज्य के द्वारा फंड किया जाता है, ऐसे में ये भेदभाव चौंकाने वाला है.
जो लोग असम सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि सरकार मुसलमानों से उनकी धार्मिक आजादी छीन रही है. लेकिन यहां आपको ये समझना चाहिए कि धार्मिक शिक्षा के नाम पर मदरसों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वो यहां पढ़ने वाले छात्रों के कितना काम आता है ?
छात्र नहीं, व्यवस्था दोषी है...
पीएचडी की पढ़ाई करने वाले छात्रों द्वारा की गई थीसिस का डिजिटाइजेशन करने वाली संस्था शोध गंगा के आंकड़ों के मुताबिक मदरसों में पढ़ने वाले सिर्फ 2 प्रतिशत छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, जबकि 42 प्रतिशत छात्रों का उद्देश्य भविष्य में धर्म का प्रचार करना होता है. 16 प्रतिशत छात्र शिक्षक के रूप में धर्म की शिक्षा देना चाहते हैं. 8 प्रतिशत छात्र इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, जबकि 30 प्रतिशत का मकसद मदरसों से शिक्षा हासिल करने के बाद सामाजिक कार्य करना होता है, जबकि 2 प्रतिशत छात्र भविष्य में धर्म गुरू बनना चाहते हैं.
यानी मदरसों से पढ़ने के बाद विज्ञान का या टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सफल होने की इच्छा नाम मात्र के छात्रों की होती है. लेकिन हमें लगता है कि इसके लिए छात्र नहीं, बल्कि वो व्यवस्था दोषी है जो धर्म की आड़ में छात्रों को आधुनिक शिक्षा से वंचित कर देती है.
ये हाल तब है जब भारत में रहने वाले 20 करोड़ मुसलमानों की साक्षरता दर, दलितों यानी SC/ST और OBC से भी कम है.
शिक्षा और धर्म का गठजोड़
National Statistical Office के आंकड़ों के मुताबिक भारत के सिर्फ 48 प्रतिशत मुस्लिम छात्र ही 12वीं कक्षा तक की पढ़ाई कर पाते हैं, जबकि 12वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई सिर्फ 14 प्रतिशत मुस्लिम छात्रों को ही नसीब हो पाती है. यानी 70 वर्षों तक जिन सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टीकरण किया, जिन मुसलमानों के वोटों को सरकारें बनाने के लिए बहुत जरूरी समझा गया उन्हीं मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के मामले में कतार में सबसे पीछे धकेल दिया गया. इसी तुष्टीकरण की आड़ में वर्षों तक अल्पसंख्यक महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति नहीं दिलाई गई, शरिया कानूनों को बढ़ावा दिया गया और मदरसों में शिक्षा और धर्म का गठजोड़ बनाकर अल्पसंख्यकों से आधुनिक शिक्षा के अवसर भी छीन लिए गए.
कोई व्यक्ति क्या पढ़ना चाहता है, क्या पढ़ाना चाहता है ये उस व्यक्ति पर निर्भर करता है. लेकिन एक बात तो तय है और वो ये कि जिस देश में अलग-अलग धर्मों के लोगों के अलग-अलग कानून होंगे, अलग-अलग शिक्षा व्यवस्थाएं होंगी वो देश कभी एकता और अखंडता के साथ आगे नहीं बढ़ पाएगा?
छोटी उम्र के बच्चों को धार्मिक शिक्षा देना सही है या गलत इस पर बहस हो सकती है. लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट है और वो ये कि विचारों के जो बीच बचपन में ही बच्चों के मन में बो दिए जाते हैं वो एक दिन वृक्ष जरूर बनते हैं. अब इस वृक्ष से देश और समाज को सिर्फ कट्टरता के कांटे हासिल होंगे या फिर देश ज्ञान-विज्ञान की छाया के साथ आगे बढ़ेगा, ये हमें और आपको मिलकर तय करना है.
कोई बच्चा मुस्लिम परिवार जन्म लेता है, हिंदू परिवार में, ईसाई परिवार में या फिर सिख परिवार में इसमें उस बच्चे की कोई च्वॉइस नहीं होती. लेकिन जब बात पढ़ाई-लिखाई की आती है तो बच्चों को उनकी पसंद के हिसाब से चुनाव करने का विकल्प जरूर दिया जाना चाहिए.
देश के भविष्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय
धर्म का असली अर्थ पूजा पद्धति या कट्टर विचारों और कानूनों को बढ़ाना देना नहीं है. धर्म एक जीवन शैली है, कर्तव्य बोध है. धार्मिक हो जाने का अर्थ कट्टर हो जाना या हिंदू और मुसलमान हो जाना नहीं है, धार्मिक होने का अर्थ सिर्फ इतना है कि आप सही रास्ते पर चल सकें और अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सके. लेकिन बच्चों को धर्म और पंथ का अंतर समझने का अवसर ही नहीं दिया जाता, जो बच्चा जिस धर्म को मानने वाले परिवार में पैदा होता उसे उसी को स्वीकार करना पड़ता है और सही स्वीकृति धीरे-धीरे सही और गलत की पहचान करने की क्षमता को समाप्त कर देती है. यानी हमारे देश में नेट न्यूट्रेलिटी की तो बात होती है. ये तो कहा जाता है कि इंटरनेट पर सबका अधिकार है और इंटरनेट इस्तेमाल करने की आजादी लोगों ने छीनी नहीं चाहिए. लेकिन धर्म के मामले बच्चों को न्यूट्रेलिटी का विकल्प कोई नहीं देता और ये देश के भविष्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय है.
धर्म की असली शिक्षा वो नहीं है जो आपकी सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति को समाप्त कर दे, बल्कि धर्म की असली शिक्षा वो है जो आपको सवाल उठाने का सामर्थ्य दे ताकि आप गलत को गलत कह सके और अपना मार्ग खुद चुन सकें.
धर्म का बचपन पर प्रभाव
धर्म का बचपन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे समझने के लिए वर्ष 2015 में एक रिसर्च की गई थी. ये शोध 1200 बच्चों पर किया गया था जिनमें से 24 प्रतिशत ईसाई, 43 प्रतिशत मुस्लिम और 27 प्रतिशत धर्म को न मानने वाले थे. इस शोध में पाया गया कि जिन बच्चों के परिवार वाले बहुत धार्मिक थे, वो बच्चे अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते थे. ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों का आंकलन उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर कर रहे थे. धार्मिक परिवारों से आने वाले बच्चे शरारत करने वाले दूसरे बच्चों को सख्त सज़ा देने के पक्ष में थे, जबकि जिन बच्चों के परिवार वाले किसी धर्म में नहीं मानते थे वो ज्यादा मिलनसार, अपनी चीज़ों को बांटने वाले और दूसरे छात्रों को सज़ा न देने के पक्ष में थे.
ये सर्वे सिर्फ 1200 बच्चों पर किया गया था इसलिए कोई चाहे तो इसे आसानी से खारिज भी कर सकता है और ये जरूरी नहीं है कि इसमें किए गए सारे दावे वाकई सच हो. लेकिन इस समय दुनिया की आबादी करीब 750 करोड़ है और इनमें से 84 प्रतिशत यानी 630 करोड़ लोग खुद को धार्मिक कहते हैं फिर भी दुनिया में इस समय लगभग हर कोने में कोई न कोई हिंसा हो रही है, कोई न कोई युद्ध और कोई न कोई लड़ाई झगड़ा चल रहा है और ज्यादातर जगहों पर ये सब धर्म के नाम पर ही हो रहा है. इसलिए ये फैसला आपको करना है कि आपको अपने बच्चों को धार्मिक बनाने के नाम पर उन्हें कट्टर बनाना है या फिर उन्हें धर्म के असली मायने समझाते हुए एक बेहतर इंसान बनाना है.
इस्लाम को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा
भारत में बच्चों को छोटी उम्र से ही धार्मिक रूप से कट्टर बनाए जाने की कहानी आज की नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी. 19वीं शताब्दी के अंत में भारत उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था. अंग्रेज भारत आ चुके थे और वो भारत की पहचान के साथ साथ भारत की शिक्षा व्यवस्था को भी बदलने लगे थे. तब भारत के मुसलमानों को लगा कि अंग्रेज उनकी भी धार्मिक पहचान को मिटा देंगे और इसी का मुकाबला करने के लिए भारत में मदरसों की स्थापना तेजी से होने लगी. लेकिन धीरे धीरे मदरसे मुसलमानों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने का काम करने लगे. मस्जिदों से मदरसों की करीबी बढ़ने लगी और धीरे धीरे शिक्षा के नाम पर इस्लाम को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा.
अमेरिका में बड़ा आतंकवादी हमला
ये सिलसिला वर्ष 2001 तक चलता रहा. लेकिन जब 11 सितंबर 2001 में जब अमेरिका में बड़ा आतंकवादी हमला हुआ, तब पूरी दुनिया में मदरसों के प्रति सोच बदलने लगी. भारत में इसका असर पड़ा और मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा में केंद्र सरकार का दखल बढ़ गया. लेकिन इसे पूरी तरह से रोकने या इस व्यवस्था को समाप्त करने की हिम्मत किसी की नहीं हुई.
इस्लाम की दुनिया में मदरसे शिक्षा के केंद्र के रूप जरूर जाने जाते हैं. लेकिन सदियों से इनका इस्तेमाल राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करने के लिए किया जाता रहा है.
पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मदरसे पाकिस्तान में
पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मदरसे पाकिस्तान में हैं. इनकी संख्या करीब 60 हजार है. इनमें से 20 हजार मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त है जबकि बाकी के मदरसे बिना इजाजत के चल रहे हैं. पाकिस्तान के इन मदरसों को पूरी दुनिया में आतंकवाद के लॉन्च पैड के तौर पर भी देखा जाता है. दुनिया में हुए कई बड़े आतंकवादी हमलों के तार इन मदरसों से जुड़ चुके हैं. पाकिस्तान के मदरसों को लेकर यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज द्वारा एक स्टडी की गई थी, जिसमें इन मदरसों में पढ़ने वाले 60 प्रतिशत बच्चों ने कहा था कि पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे पर भारत से युद्ध लड़ना चाहिए और कश्मीर को भारत से छीन लेना चाहिए, जबकि पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले 53 प्रतिशत बच्चे जेहाद के समर्थक हैं.
मदरसों में छात्रों के साथ हिंसा
पाकिस्तान के मदरसों में बच्चों के मन ये जहर सिर्फ धार्मिक शिक्षा के आधार पर नहीं भरा जाता, बल्कि बच्चों से हिंसा भी की जाती है और उन्हें बुरी तरह से मारा पीटा भी जाता है. पाकिस्तान मूल के लेखक तारेक फतेह ने कुछ समय पहले ट्विटर पर कुछ वीडियो पोस्ट की थी और उन्होंने दावा किया था कि ये वीडियो पाकिस्तान के मदरसों की हैं. ये वीडियो वाकई पाकिस्तान की हैं या कहीं और की, इस संदर्भ में हम कोई दावा नहीं कर सकते. लेकिन ये तस्वीरें पाकिस्तान की हों या कहीं और की, इन तस्वीरों से मदरसों में छात्रों के साथ हिंसा की बात जरूर साबित हो जाती है.
सहूलियत वाला सेक्युलरिज्म
देश में जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा चेहरा मानते हैं वही अब मदरसों को बंद करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं. इनमें कई बड़े लोग शामिल हैं. आज हम इन सब लोगों का नाम नहीं लेना चाहते लेकिन हम आपको एक टास्क देना चाहते हैं और वो ये है कि आप चाहें तो खुद को सेक्युलर और लिबरल मुसलमान कहने वाले लोगों की एक लिस्ट बना लें और इंटरनेट पर जाकर ये देखें कि इनमें से किस किस के बच्चे मदरसों में पढ़े हैं. आपको इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जिसके बच्चों ने मदरसों में पढ़ाई की हो. लेकिन फिर भी ये लोग मदरसों पर पाबंदी लगाए जाने के विरोध में है. इनका यही विरोधाभास और सहूलियत वाला सेक्युलरिज्म इनकी पोल खोलता है.