नई दिल्ली: जलियांवाला बाग हत्याकांड के 102 वर्ष पूरे हो गए हैं. 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार हुआ था. ये नरसंहार हमारे इतिहास की ऐसी घटना है जिसके बारे में देश की नई पीढ़ी को जानना चाहिए. 


पीएम मोदी का टास्क


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पीएम मोदी ने हाल ही में परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम में छात्रों को एक टास्क दिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के छात्रों को स्वाधीनता सेनानियों के बारे में पढ़ने को कहा था. इसके जरिए वो छात्रों को ये बताना चाहते थे कि देश को आजादी कितने बलिदानों के बाद मिली है, तो जो छात्र इस होम वर्क को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं. उनके लिए हम जलियांवाला बाग से एक ग्राउंड रिपोर्ट लेकर आए हैं. इस रिपोर्ट में हमने उन लोगों से भी बात की है जिन्होंने अपने परिवारवालों को इस नरसंहार में खोया था.


जब शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर चलाई गईं गोलियां


13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोग बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी और रॉलेट एक्ट के विरोध में इकट्ठा हुए थे. उनके हाथ में हथियार नहीं था. वो सभी निहत्थे थे और शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे.



रॉलेट एक्ट भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी भी राष्ट्रीय आंदोलन को खत्म करने के लिए बनाया गया कानून था. रॉलेट एक्ट से ब्रिटिश सरकार को ये अधिकार प्राप्त हो गया था कि वो भारत के किसी भी नागरिक पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए, उसे जेल में बंद कर सकती थी.


102 साल बाद भी नहीं मिले इन सवालों के जवाब


वो कौन थे जिन्होंने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में जनरल डायर की गोलियां अपने सीने पर खाईं. वो कितने लोग थे, जो जलियांवाला बाग में शहीद हो गए? जलियांवाला बाग हत्याकांड के 102 वर्ष बाद भी इन सवालों के सही जवाब आने बाकी हैं और यही सवाल शहीदों के परिवारों को पीढ़ियों से शूल की तरह चुभ रहे हैं.


शहादत को भूल गईं सरकारें


जलियांवाला बाग में शहीदी कुआं है. अंग्रेजों की फायरिंग के बीच कई लोग इस कुएं में कूद गए और उनकी मौत हो गई, लेकिन यहां के लोगों के मुताबिक, जलियांवाला बाग के शहीदों की सूची में उनके नाम दर्ज ही नहीं हुए.


सरकार के रजिस्टर में जलियांवाला बाग के बलिदानियों की संख्या जितनी है, उससे कहीं ज्यादा लोगों ने 13 अप्रैल को उस जगह पर अपनी जान गंवाई थी. वो शहीद जिस परिवार के थे. उसे तो पता है, लेकिन सरकार भूल गई. अब लड़ाई शहादत की पहचान की है, बात सम्मान की है.


कमल पोद्दार ऐसे ही एक व्यक्ति हैे जिनके दादा लक्ष्मी चंद पोद्दार भी जलियांवाला बाग में शहीद हुए थे.


वह बताते हैं, 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी वाले दिन यहां पर काफी लोग इकट्ठा हुए थे रोलर एक्ट के खिलाफ उस वक्त मेरे दादा जी यहां पर आए हुए थे तो उनको गोलियां मारकर इन लोगों ने शहीद कर दिया जनरल डायर की गोलियों से शहीद हुए तो यही गुजारिश है कि जो स्वतंत्रता सेनानी को मिलना चाहिए बेनिफिट वह कुछ बेनिफिट दिए जाएं ताम्रपत्र दिया जाए या कोई पहचान पत्र दिया जाए हमें ताकि हम उठाकर यह तो कह सके कि हमारे परिवार के सदस्य ने यहां पर शहीदी दी है.


किसी ने ताम्रपत्र भी नहीं दिया


वहीं ऐसे ही एक शहीद के परिवार से आने वाले करनजीत सिंह कहते हैं कि बेशक आजादी हमारे शहीदों के बदौलत मिली है, पर कई सरकारें आई हैं कई गईं. 102 साल हो गए, हमें कभी किसी ने कुछ नहीं दिया. अभी तक किसी ने ताम्रपत्र भी नहीं दिया. अभी तक पिछले साल हमारे जो शहीद परिवार हैं बड़ी मेहरबानी करके सरकार ने एक फंक्शन किया है, जिसमें गले में सिर्फ एक माला डाल दी.


शहीदों के परिवार का संघर्ष


सुनील कपूर​ जिनके परदादा उस घटना में शहीद हुए थे, वह कहते हैं कि जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद अंग्रेज मुआवजा लेकर उनके घर आए थे, लेकिन तब उनकी बहादुर परदादी का जवाब आज़ादी के परवानों की हिम्मत बढ़ाने वाला था.


यहां हम कहना चाहते हैं कि ऐसे वीर और वीरांगनाओं का परिवार, जलियांवाला बाग के शहीदों का परिवार अगर अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है, तो ये हमारी व्यवस्था, हमारे समाज और हमारी सरकार की नाकामी है.