मैरी कॉम ने कोई भी मुकाबला हारकर कभी ये नहीं कहा कि उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं था, इसलिए वो हार गईं. उन्होंने हमेशा खुद को बेहतर बनाने की बात कही और जहां उन्हें लगा कि उनके साथ अन्याय हुआ है, वहां उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई.
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नई दिल्ली: दुनिया के महानतम मुक्केबाज मोहम्मद अली ने एक बार कहा था कि बॉक्सिंग करते हुए किसी तितली की तरह उड़ो, लेकिन जब दुश्मन को पंच मारो, तो ऐसे ही मारो, जैसे मधुमक्खी डंक मारती है. अंग्रेजी में इसे कहते हैं- Float Like a Butterfly, Sting Like a Bee. मोहम्मद अली को अपनी प्रेरणा मानने वाली भारत की स्टार मुक्केबाज मैरी कॉम की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
38 वर्ष की मैरी कॉम ओलंपिक्स के Round of Sixteen मुकाबले में अपनी प्रतिद्वंद्वी को तितली की तरह छकाया और मौका मिलते ही ऐसे पंच मारे कि कोलंबिया की 32 साल की Ingrit Valencia कुछ समझ नहीं पाईं.
नतीजा ये हुआ कि मैरी कॉम तीन में से दो राउंड जीत गईं, लेकिन आखिरी राउंड के बाद जब जजों ने फैसला सुनाया, तो 38 साल की इस मुक्केबाज की आंखों के सामने उनकी पूरी जिंदगी फ्लैशबैक में घूम गई.
2 जजों ने मैरी कॉम के पक्ष में फैसला सुनाया, जबकि तीन जजों ने Ingrit Valencia के पक्ष में फैसला दिया. इसके बाद मैरीकॉम ही नहीं, पूरे देश के लिए मानो समय कुछ ठहर सा गया. मैरी कॉम की आंखों में आंसू थे और वो इस फैसले पर बहुत देर तक यकीन ही नहीं कर पाईं.
जब नियमित प्रक्रिया के तहत मैच के बाद उन्हें डोप टेस्ट के लिए ले जाया गया, तब तक भी उन्हें यकीन नहीं था कि वो हार गईं हैं, लेकिन एक सच्चा खिलाड़ी वही होता है, जो जीवन और बॉक्सिंग की रिंग में गिरकर भी उठना जानता हो और मैरी कॉम ने भी ऐसा ही किया. हालांकि वो ज्यूरी के फैसले से खुश नहीं हैं.
इस बीच मैरी कॉम के साथ कुछ ऐसा भी हुआ, जिसने उनकी लय बिगाड़ दी. दरअसल, ये मैच शुरू होने से ठीक पहले ओलंपिक खेलों का एक आयोजक मैरी कॉम के पास आया और उसने कहा कि जो जर्सी उन्होंने पहनी है, वो उसमें नहीं खेल सकतीं. जर्सी पर खिलाड़ी का सिर्फ पहला नाम लिखा हुआ होना चाहिए, पूरा नाम नहीं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि इस ओलंपिक्स के पहले मुकाबले में मैरी कॉम ने जो जर्सी पहनी थी, उस पर उनका पूरा नाम लिखा हुआ था और तब उन्हें इसके लिए किसी ने नहीं टोका. अब लोग आयोजकों के इस फैसले पर हैरानी जता रहे हैं.
मैरी कॉम की हार की इस कहानी में जितने Twist And Turns आए हैं, वो आपको हिंदी फिल्मों की याद दिला रहे होंगे क्योंकि, सस्पेंस से भरा ऐसा क्लाइमेक्स आपको सिर्फ फिल्मों ही दिखाई देता है, लेकिन बॉक्सिंग की दुनिया में मैरी कॉम का कद कितना ऊंचा है. इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि मैच के बाद उनकी प्रतिद्वंद्वी ने भी उनका हाथ पकड़कर हवा में उठाया और मैरी कॉम को बता दिया कि असली चैंपियन वही हैं.
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6 बार की वर्ल्ड चैंपियन मैरी कॉम इस साल देश के लिए ओलंपिक्स में गोल्ड मेडल जीतना चाहती थीं. इसके लिए उन्होंने जबरदस्त तैयारी भी की थी, लेकिन खिलाड़ियों की कहानी पर बनने वाली हिंदी फिल्मों की एंडिंग और असल जीवन की एंडिंग में यही फर्क होता है.
फिल्मों में खिलाड़ी हारकर भी जीत जाता है, लेकिन असल जीवन में कई बार जीतकर भी हार स्वीकारनी पड़ती है और इसके लिए आपका मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत जरूरी है.
मैरी कॉम ने हार नहीं मानी है और वो वर्ष 2024 में Paris Olympics में भी हिस्सा ले सकती हैं. हालांकि तब तक वो 40 साल की हो चुकी होंगी. मैरी कॉम के तीन बच्चे भी हैं और इन बच्चों का ध्यान रखते हुए भी उन्होंने 6 बार World Championship जीती है.
2014 में मैरी कॉम के जीवन पर एक हिंदी फिल्म रिलीज हुई थी, जिसका नाम मैरी कॉम ही था. इस फिल्म में एक डायलॉग था कि एक औरत मां बनने के बाद और भी मजबूत हो जाती है और उसकी ताकत दोगुनी हो जाती है. मैरी कॉम के साथ ठीक ऐसा ही हुआ है.
मैरी कॉम ने कोई भी मुकाबला हारकर कभी ये नहीं कहा कि उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं था, इसलिए वो हार गईं. उन्होंने हमेशा खुद को बेहतर बनाने की बात कही और जहां उन्हें लगा कि उनके साथ अन्याय हुआ है, वहां उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई.
जो खिलाड़ी अभावों के बावजूद खुद को निखारते हैं और आगे बढ़ते हैं, वो मानसिक रूप से ज्यादा मजबूत होते हैं. मानसिक स्वाथ्य की बात करना कई बार लग्जरी बन जाता है क्योंकि, इसकी बात अक्सर वही लोग कर पाते हैं, जिनके पास पर्याप्त संसाधन होते हैं, जो संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं, उनके लिए जीत ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि गरीबों के बच्चों में आगे बढ़ने की और जीतने की भूख अमीरों के बच्चों के मुकाबले ज्यादा होती है.
एक स्टडी के मुताबिक ज्यादातर बच्चे 8वीं या 9वीं कक्षा तक पहुंचकर ही ये तय कर पाते है कि उन्हें आगे क्या करना है. इसी स्टडी के मुताबिक तब तक अमीरों के बच्चों के पास करियर के ज्यादा विकल्प खुल जाते हैं और ज्यादतर बच्चे खेलों के अलावा दूसरे विकल्पों को चुन लेते हैं, लेकिन गरीबों के बच्चों के पास इतनी चॉइस यानी विकल्प नहीं होते और अगर उन्होंने एक बार खेलों को चुन लिया, तो फिर वो उसमें महारथ हासिल करने के लिए जी जान लगा देते हैं.
इसलिए अगर ओलंपिक खेलने गए भारतीय खिलाड़ियों पर नजर डालेंगे तो आपको इसमें ज्यादातर वो खिलाड़ी नजर आएंगे, जो बहुत गरीब या निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से आते हैं. मैरी कॉम भी उन खिलाड़ियों में शामिल हैं. जिन्होंने बचपन में बहुत गरीबी और अभाव देखें हैं. इसलिए वो अंकों के आधार पर मुकाबला भले ही हार जाएं, लेकिन उनका मन और उनके इरादे हमेशा चैंपियन वाले ही रहेंगे.
मानसिक स्वास्थ्य तो इस बार ओलंपिक्स के पोडियम तक पहुंच गया है, लेकिन असली चैंपियन आज भी मानसिक मजबूती है क्योंकि, इस बार इन ओलंपिक खेलों में उन देशों से संबंध रखने वाली महिला खिलाड़ी भी हिस्सा ले रही हैं. जिन देशों के हालात बहुत खराब हैं, इनमें सीरिया की सैंडा, ईरान की किमिया और अफगानिस्तान की मासोमा शामिल हैं. ये तीनों खिलाड़ीं International Olympic Committee की रिफ्यूजी टीम का हिस्सा हैं.
सीरिया की महिला खिलाड़ी सैंडा जूडो खेलती हैं और वो ओलंपिक्स की तैयारी करने के लिए वर्ष 2015 में अपने पति और छोटे बच्चे को सीरिया में ही छोड़कर नीदरलैंड्स चली गईं थी, क्योंकि उस समय सीरिया में भयंकर गृह युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी. फिर वो 6 महीने बाद अपने परिवार से मिल पाईं. इस दौरान उन्होंने 2 और बच्चों को जन्म दिया, लेकिन इन सबके बावजूद ओलंपिक्स की तैयारी को नहीं छोड़ा क्योंकि, यही उनके परिवार का सपना था और आखिरकार इस खिलाड़ी ने ये सपना पूरा करके दिखाया.
इसी तरह की कहानी किमिया की है, जिन्होंने 2016 के Rio Olympics में अपने देश के लिए ताइक्वांडो में कांस्य पदक जीता था. वो ओलंपिक्स में कोई पदक जीतने वाली ईरान की पहली महिला खिलाड़ी थीं. जब वो जीतकर लौटीं तो उन्हें शुरुआत में तो अपने देश में मान सम्मान मिला, लेकिन इसके बाद उनका शोषण होने लगा और उनके घर वाले शादी का दबाव डालने लगे, लेकिन कीमिया किसी भी कीमत पर ओलंपिक्स में हिस्सा लेना चाहती थीं और अपना ये सपना पूरा करने के लिए उन्होंने ईरान छोड़ दिया और वो जर्मनी में बस गईं.
अफगानिस्तान की मासोमा की कहानी भी ऐसी है, जो मूल रूप से तो ईरान की हैं, लेकिन उनका परिवार अफगानिस्तान में बस गया था. 16 वर्ष की उम्र में मासोमा अफगानिस्तान की साइकलिंग की नेशनल टीम का हिस्सा बन गईं, लेकिन अफगानिस्तान में कुछ लोगों को ये बात पसंद नहीं आई और साइकलिंग के दौरान उन्हें एक कार ने टक्कर मार दी. उन्हें और उनके कोच को धमकियां दी गईं और आखिरकार 2017 में उन्होंने अफगानिस्तान छोड़ दिया और फ्रांस में जाकर बस गईं.
जो लोग थोड़ी सी परेशानियां आने पर हताश हो जाते हैं, उन्हें इन महिला खलाड़ियों से सीख लेनी चाहिए क्योंकि, जिन देशों और जिन हालातों से निकलकर इन्होंने अपना ओलंपिक खेलने का सपना पूरा किया. वो ये बताता है कि आज भी मानसिक मजबूती से बड़ा चैंपियन कोई और नहीं है.
उत्तर पूर्वी भारत से आने वाली मैरी कॉम ने जहां अपनी हार से दुनिया को जीतना सिखाया, तो देश के इसी हिस्से के असम राज्य से आने वाली बॉक्सर लवलीना ने Tokyo Olympics में भारत का एक और मेडल पक्का कर लिया.
लवलीना ने बॉक्सिंग के क्वार्टर फाइनल में ताइवान की बॉक्सर निएन चिन चेन को 4-1 से हरा कर सेमीफाइनल में प्रवेश किया. नियमों के मुताबिक, अब अगर लवलीना सेमीफाइनल में हार भी गईं तो भी उन्हें ब्रॉन्ज मेडल मिलना पक्का है, लेकिन अगर उन्होंने सेमीफाइनल मुकाबला जीत लिया तो, वो फाइनल में देश के लिए गोल्ड और सिल्वर मेडल भी जीत सकती हैं.
हमारे देश के Eco System में सबसे कम प्रतिनिधित्व उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों को मिलता है और हमने इस क्षेत्र को मुख्यधारा से हमेशा अलग माना है. लेकिन Tokyo Olympics में अब तक के दोनों मेडल वहीं से आए हैं. पहले मणिपुर की मीराबाई चानू ने ओलंपिक खेलों के पहले ही दिन सिल्वर मेडल जीत कर इतिहास रचा और अब लवलीना ने भी देश के लिए अपना मेडल पक्का कर लिया है.
उत्तर पूर्वी भारत में कुल आठ राज्य हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग साढ़े चार करोड़ है. यानी इस हिसाब से देखें तो भारत की कुल आबादी में यहां के राज्यों की हिस्सेदारी सिर्फ़ 3.78 प्रतिशत की है, लेकिन देश की शान बढ़ाने में इन राज्यों की हिस्सेदारी 100 प्रतिशत की है. हालांकि इसके बावजूद इन राज्यों को देश के अलग-अलग क्षेत्रों में उतना प्रतिनिधित्व नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए.
शुरुआत से ही उत्तर पूर्वी भारत आइसोलेशन में रहा है, लेकिन इस आइसोलेशन में रहते हुए भी यहां के खिलाड़ियों ने भारत की शान में चांदी और दूसरे मेडल जड़ने का काम किया है.
यहां एक पॉइंट ये भी है कि उत्तर पूर्वी भारत के लोग, तभी भारतीय कहलाए जाते हैं, जब वो बड़े खेल आयोजनों में देश के लिए मेडल जीत कर लाते हैं. वर्ना तो हमारे देश में इन लोगों को कभी चिंकी कहा जाता है, कभी चीनी कहा जाता है, कुछ लोग नेपाली भी कहते हैं और उत्तर भारत में इन राज्यों के लोगों को कोरोना तक कहा गया है.
ये एक तरह की इन लोगों पर नस्लीय टिप्पणी है, लेकिन इस सबके बावजूद उत्तर पूर्वी भारत के लोगों का राष्ट्रवाद 100 प्रतिशत शुद्ध और सोने जैसा खरा है. Tokyo Olympics में नॉर्थ ईस्ट के 8 खिलाड़ियों ने भाग लिया है, जिनमें से दो ने तो मेडल भी जीत लिया है.
इस विश्लेषण का दूसरा पॉइंट ये है कि इन दोनों खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि जमीन से जुड़ी है. ये दोनों ऐसे परिवार से आती हैं, जो सादगी के सोने में तपा है और जिसने विनम्रता से विजयी होने का रास्ता तैयार किया है. हमने आपको मीराबाई चानू की तस्वीरें दिखाई थीं, जिनमें वो अपने घर में फर्श पर बैठकर अपने दोस्तों के साथ खाना खा रही थीं.
इन दोनों खिलाड़ियों के Humble Background से आज देश ये सीख सकता है कि खेलों में पैसा और सुविधाएं नहीं, बल्कि कड़ी मेहनत, समर्पण और प्रतिभा का ही सिक्का चलता है. हमारे देश में आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों के ज्यादातर बच्चे देश के लिए मेडल लाने का सपना नहीं देखते, जबकि उनके पास सारी सुख सुविधाएं और पैसा होता है. इसकी सबसे बड़ी वजह है, किसी भी खेल में सफल होने की गारंटी बहुत कम होती है.
कोई भी खेल किसी भी खिलाड़ी से पैसे और सुविधाएं नहीं मांगता. ये तो लग्जरी होती हैं. खेल अपने खिलाड़ियों से त्याग, अनुशासन, संकल्प और जज्बा मांगता है. ये वो चार Ingredients हैं, जिन्हें अपने जीवन में उतार कर कोई भी खिलाड़ी सफलता की Recipe तैयार करता है, जैसा कि मीराबाई चानू और लवलीना ने किया.