DNA ANALYSIS: कांवड़ यात्रा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, क्या यही नियम किसान आंदोलन पर लागू होगा?
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DNA ANALYSIS: कांवड़ यात्रा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, क्या यही नियम किसान आंदोलन पर लागू होगा?

कोरोना वायरस को लेकर दुनिया के हर देश और हर सरकार के पास अलग-अलग नियम हैं और अलग-अलग सोच है और इस सोच में भी कई बार विरोधाभास देखने को मिलता है. जैसे कुम्भ की भीड़ सबको चुभती है, लेकिन फुटबॉल के फैंस की भीड़ किसी को नहीं चुभती.

DNA ANALYSIS: कांवड़ यात्रा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, क्या यही नियम किसान आंदोलन पर लागू होगा?

नई दिल्ली: आज हम एक नए विचार के साथ आपके सामने आए हैं और वो ये है कि कोरोना वायरस को लेकर हर देश, हर धर्म और हर राज्य के अलग-अलग नियम होने चाहिए या पूरी दुनिया में एक ही नियम, एक ही प्रोटोकॉल होना चाहिए? क्या हम पूरी दुनिया में एक कोरोना, एक नियम के सिद्धांत पर काम नहीं कर सकते? 

  1. सुप्रीम कोर्ट कांवड़ यात्रा को दी गई मंज़ूरी के पक्ष में नहीं है.
  2. कोर्ट ने कहा कि भावनाएं स्वास्थ्य और जीवन के अधिकार से ऊपर नहीं हो सकती हैं.
  3. यूपी सरकार ने कहा था कि वो 25 जुलाई से सांकेतिक रूप से कांवड़ यात्रा कराने के पक्ष में है.
  4.  

कल 16 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार से कोरोना को देखते हुए कांवड़ यात्रा को रोक देने के लिए कहा है.

SC का यही नियम आंदोलन कर रहे किसानों पर भी लागू होगा?

हमारा मानना है कि ये बिल्कुल सही कदम है, लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट का यही नियम आंदोलन कर रहे किसानों पर भी लागू होगा? और अगर पूरी दुनिया की बात करें तो जो नियम कुम्भ पर लागू होते हैं, वही नियम यूरोप में फुटबॉल देखने वाले दर्शकों पर भी लागू होंगे?

सच्चाई ये है कि कोरोना वायरस को लेकर दुनिया के हर देश और हर सरकार के पास अलग-अलग नियम हैं और अलग-अलग सोच है और इस सोच में भी कई बार विरोधाभास देखने को मिलता है. जैसे कुम्भ की भीड़ सबको चुभती है, लेकिन फुटबॉल के फैंस की भीड़ किसी को नहीं चुभती यानी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भीड़ को लेकर भी अलग-अलग नियम और अलग-अलग सोच है. इसलिए आज हम इन्हीं डबल स्टैंडर्ड्स को चुनौती देंगे. सबसे पहले आपको ये बताते हैं कि कल सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?

सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर बहस हुई कि उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा को दी गई मंज़ूरी पर रोक लगाई जाएगी या नहीं. अदालत ने इस पर केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार का भी पक्ष जाना और इस पर दो अहम टिप्पणियां कीं.

-पहली बात कोर्ट ने ये कही कि किसी भी तरह की भावनाएं चाहें वो धार्मिक ही क्यों न हों, वो स्वास्थ्य और जीवन के अधिकार से ऊपर नहीं हो सकती हैं.

-कोर्ट ने आगे कहा कि ये सभी भावनाएं इन मौलिक अधिकारों के अधीन आती हैं, लेकिन इनका महत्व स्वास्थ्य और जीवन के मौलिक अधिकार से बड़ा नहीं हो सकता. कोर्ट की इन टिप्पणियों का सरल अर्थ ये है कि सुप्रीम कोर्ट कांवड़ यात्रा को दी गई मंज़ूरी के पक्ष में नहीं है.

-दूसरी बात सुप्रीम कोर्ट ने ये कही कि उत्तर प्रदेश सरकार को अपने निर्णय पर फिर से पुनर्विचार करना चाहिए और अगर सरकार कांवड़ यात्रा को लेकर ठोस कदम उठाने में नाकाम रहती है तो फिर अदालत इस पर फैसला लेने के लिए मजबूर होगी. अदालत ने ये बात, उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से दिए गए जवाब पर कही है.

इसमें यूपी सरकार ने कहा था कि वो 25 जुलाई से सांकेतिक रूप से कांवड़ यात्रा कराने के पक्ष में है और उसने तय किया है कि वैक्सीन लगवा चुके लोगों को ही इस यात्रा में भाग लेने दिया जाएगा, लेकिन अदालत उत्तर प्रदेश सरकार के इस जवाब से भी संतुष्ट नहीं हुई और सरकार को एक और मौका देते हुए, सोमवार तक इस पर अपना अंतिम जवाब देने का समय दे दिया.

केन्द्र सरकार ने दिए ये सुझाव​

अब इसमें खबर ये है कि उत्तर प्रदेश सरकार चाहती है, सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन कांवड़ यात्रा का आयोजन होना चाहिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसके बिल्कुल भी पक्ष में नहीं है. केन्द्र सरकार ने भी इस मामले में अपना पक्ष अदालत में रखा और इसमें दो प्रमुख बातें कहीं गईं.

-पहली बात ये कि केन्द्र सरकार ये जरूर मानती है कि यूपी सरकार को कांवड़ यात्रा की मंजूरी नहीं देनी चाहिए, लेकिन साथ ही उसका ये भी कहना है कि कांवड़ यात्रा करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ी है, इसलिए कड़ी गाइडलाइंस बनाकर इस धार्मिक यात्रा को संचालित किया जा सकता है. केन्द्र सरकार ने इसके लिए सुझाव भी दिया.

-सुझाव ये है कि उत्तर प्रदेश सरकार पवित्र गंगाजल को टैंकरों के जरिए अलग-अलग जगहों पर उपलब्ध करा सकती है ताकि आस-पास के श्रद्धालु वहां से गंगाजल ले सकें और अपने पास के शिव मंदिरों में जल अभिषेक कर सकें.

किसान आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कुछ क्यों नहीं कहा?

अब यहां सवाल ये नहीं है कि कांवड़ यात्रा होनी चाहिए या नहीं, सवाल ये है कि क्या किसान आंदोलन को लेकर आपने कभी सुप्रीम कोर्ट को इतना सक्रिय देखा है. कोरोना पूरी दुनिया के लिए एक है और ये बीमारी किसी धर्म, जाति और देश के साथ भेदभाव नहीं करती.

ये कांवड़ यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं से भी फैल सकती है और ये दिल्ली की सीमाओं पर पिछले लगभग 8 महीने से आंदोलन कर रहे किसानों से भी फैल सकती है, लेकिन इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट कांवड़ यात्रा के आयोजन को लेकर तो स्वत: संज्ञान लेता है, लेकिन वो किसान आंदोलन पर कभी कुछ नहीं कहता.

केरल की सरकार ने कोरोना गाइडलाइंस में दी 3 दिन की ढील 

केरल की सरकार ने ईद को देखते हुए कोरोना की गाइडलाइंस में तीन दिन की ढील दी है. 18, 19 और 20 जुलाई को केरल में वो तमाम दुकानें रात 8 बजे तक खुली रहेंगी, जहां से ईद मनाने वाले लोग नए कपड़े, खाने पीने का सामान और सोना चांदी खरीदते हैं.

कोरोना का सारा बोझ उठाने की जिम्मेदारी सिर्फ कांवड़ियों की?

सोचिए इस दौरान इन दुकानों पर लोगों की कितनी भीड़ होगी और क्या यहां खरीदारी करने वाले लोगों से कोरोना की निगेटिव रिपोर्ट यानी वैक्सीन लगाए जाने का सबूत मांगा जाएगा? जबकि केरल देश के उन राज्यों में से एक है, जहां संक्रमण के नए मामले अब भी बढ़ रहे हैं. पिछले 24 घंटे में केरल में 14 हजार नए मरीज मिले हैं.

सवाल ये है कि क्या सुप्रीम कोर्ट केरल सरकार के इस फैसले पर स्वत: संज्ञान लेगा? क्या कोरोना का सारा बोझ उठाने की जिम्मेदारी सिर्फ कांवड़ियों की है, ईद मनाने वालों की, आंदोलन करने वाले किसानों की नहीं है?

कैसे तय होगा कि कौन सुपर स्प्रेडर है और कौन नहीं?

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जब भारत में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रतिदिन औसतन 4 लाख मामले आ रहे थे और हर दिन हजारों लोगों की जानें जा रही थी. बाजार और दफ्तर भी बंद थे, तब भी किसान आंदोलन चलता रहा और सुप्रीम कोर्ट ने कभी इस पर संज्ञान नहीं लिया.

सुप्रीम कोर्ट ने कभी केन्द्र सरकार से ये नहीं कहा कि अगर सरकार ने कोरोना को रोकने के लिए इन आंदोलनकारियों को नहीं हटाया, तो वो कड़ा फैसला लेने के लिए मजबूर हो जाएगा और कोर्ट ने​ हिल स्टेशंस पर भीड़ लगाने वाले लोगों के लिए भी सरकार से ऐसा कुछ नहीं कहा.

मुद्दा यही है कि ये कैसे तय होगा कि कौन सुपर स्प्रेडर है और कौन नहीं? और क्या पूरी दुनिया एक कोरोना, एक नियम के सिद्धांत को लागू नहीं कर सकती है.

उत्तराखंड सरकार को भी नोटिस 

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार को भी नोटिस जारी किया था, जो ये पहले ही ऐलान कर चुकी है कि राज्य में कांवड़ यात्रा नहीं निकाली जाएगी. इसी दिशा में आज उत्तराखंड पुलिस ने भी एक अहम फैसला किया है.

उत्तराखंड की पुलिस ने कहा है कि 22 जुलाई से हरिद्वार बॉर्डर को सील कर दिया जाएगा और नियम तोड़ने वाले लोगों को 14 दिन क्वारंटीन में रखा जाएगा. इसके अलावा उनकी गाड़ियां भी जब्त कर ली जाएंगी.

कोरोना वायरस को लेकर अलग-अलग नियम 

सच्चाई ये है कि कोरोना वायरस को लेकर दुनिया के हर देश और हर सरकार के पास अलग-अलग नियम हैं और इसे आप कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं.

स्पेन की सुप्रीम कोर्ट ने वहां पिछले साल लगाए गए, लॉकडाउन को असंवैधानिक बताया है. वहां की अदालत ने कहा है कि स्पेन के कानूनों के तहत वहां चेतावनी के तीन स्तर हैं.

एक है इमरजेंसी यानी आपातकाल, दूसरा है एक्सेपशन यानी अपवाद और तीसरा है, सीज यानी घेराबंदी होने पर जारी होने वाली चेतावनी.

पिछले साल जब स्पेन में लॉकडाउन लगा था, तब सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी, लेकिन अदालत का कहना है कि लॉकडाउन लगाने के लिए एक्सेप्शन, यानी अपवाद को अपनाना चाहिए था, और इसी वजह से वहां लॉकडाउन को असंवैधानिक करार दिया गया है.

स्पेन की सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उसके फैसले के तहत, जिन लोगों पर लॉकडाउन में नियमों के उल्लंघन पर जुर्माना लगा था, वो लोग अब स्पेन की सरकार के खिलाफ मुकदमा कर सकेंगे. सोचिए, सरकार ने लॉकडाउन लगा कर जिन लोगों की जान बचाई थी, वही लोग अब उस पर मुकदमा करेंगे.

लंदन के इम्पीरियल कॉलेज ने पिछले दिनों एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें ये अनुमान लगाया था कि लॉकडाउन की वजह से यूरोप के 11 बड़े देश, जिनमें स्पेन भी है, वहां इससे 30 लाख लोगों की जान बची थी, लेकिन अब इसकी कोई बात नहीं कर रहा है और इससे पता चलता है कि कोरोना तो एक है, लेकिन इसके खिलाफ पूरी दुनिया की एक नीति और एक नियम नहीं है.

कोर्ट फुटबॉल के यूरो कप की बात नहीं करता

बड़ी बात ये है कि स्पेन में लॉकडाउन को तो वहां का सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक बताता है, लेकिन कोर्ट फुटबॉल के यूरो कप की बात नहीं करता. पिछले दिनों यूरोप और ब्रिटेन में यूरो कप का आयोजन हुआ और इस दौरान फुटबॉल स्टेडियम्स में 50-50 हजार लोग मैच देखने पहुंचे थे. इसकी वजह से वहां कोरोना के मामले भी कई गुना बढ़ गए हैं, लेकिन न तो स्पेन के सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की और न ही ब्रिटेन ने इस पर कुछ कहा.

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री तो खुद इन लाखों लोगों की भीड़ में यूरो कप का फाइनल देखने के लिए पहुंचे थे, जिसमें हिंसा भी हुई थी. यानी इन लोगों को कुम्भ में भीड़ की तस्वीरें तो चुभती हैं, लेकिन फुटबॉल के फैंस की भीड़ से इन्हें कोई आपत्ति नहीं है.

दक्षिण कोरिया का उदाहरण

एक कोरोना के खिलाफ अनेक नियमों के इस सिद्धांत को आप दक्षिण कोरिया के उदाहरण से भी समझ सकते हैं. दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में ये फैसला लिया गया है कि, वहां जिम तो खोले जाएंगे, लेकिन इन जिम्स में जो गाने बजेंगे, वो 120 बीट्स प्रति मिनट से कम होने चाहिए.

ये फैसला सुनने में आपको जितना अजीबो गरीब लग रहा है, उसके पीछे की दलील भी वैसी ही है. दक्षिण कोरिया सरकार को लगता है कि जिम में लोग तेज गाने सुनेंगे, तो तेज वर्कआउट करेंगे, तेज वर्कआउट करेंगे तो इससे वो सांस जल्दी जल्दी लेंगे और जल्दी जल्दी सांस लेने से वो कोरोना फैला सकते हैं. सोचिए कोरोना को लेकर दुनिया के एक देश में ये नियम भी है.

अमेरिका में भी ऐसे ही हालात 

अमेरिका में भी हालात ऐसे ही हैं. अमेरिका के​ थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) के मुताबिक, अमेरिका में मास्क पहनने वाले लोग भी पार्टियों के हिसाब से बंटे हुए हैं. 
ट्रंप की पार्टी रिप​बल्किन्स का समर्थन करने वाले लोग, बाइडेन की डेमोक्रेट्स पार्टी के समर्थकों के मुकाबले कम मास्क पहनते हैं. सोचिए, अब क्या वहां कोरोना राजनीतिक पार्टियों के हिसाब से किसी को संक्रमित करता है?

पॉइंट ये है कि जब दुनिया कोरोना रूपी एक ही दुश्मन का सामना कर रही है तो फिर इससे निपटने वाले कानून और नियम एक क्यों नहीं हैं और क्या पूरी दुनिया इस बीमारी के एक नियम नहीं बना सकती, जिसमें फुटबॉल के फैंस की भीड़ को भी उसी चश्मे से देखा जाए, जिस चश्मे से कुम्भ को देखा जाता है.

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