DNA ANALYSIS: 'Charlie Hebdo' के कार्टून से कुछ लोग असहिष्णु क्यों हो गए?
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DNA ANALYSIS: 'Charlie Hebdo' के कार्टून से कुछ लोग असहिष्णु क्यों हो गए?

आतंकी खतरे के बाद भी फ्रांस की सरकार ने कहा है कि शार्ली एब्दो पत्रिका को कार्टून छापने से मना नहीं किया जाएगा. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन (Emmanuel Macron) ने कहा है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी है.

DNA ANALYSIS: 'Charlie Hebdo' के कार्टून से कुछ लोग असहिष्णु क्यों हो गए?

नई दिल्ली: गीता में कहा गया है अन्याय सहना, अन्याय करने से भी बड़ा पाप है. अन्याय के विरुद्ध लड़ना मानव धर्म है. फ्रांस की चर्चित पत्रिका शार्ली एब्दो ने इसी भावना को सच करके दिखाया है. मैगजीन ने पांच साल बाद एक बार फिर से पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापा है. ये कार्टून छापने पर 7 जनवरी 2015 को उसके दफ्तर पर आतंकवादी हमला हुआ था. जिसमें अखबार के संपादक, कार्टूनिस्ट समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी. इस हमले में 11 लोग घायल हुए थे और फ्रांस में दो दशक में हुआ ये सबसे बड़ा आतंकी हमला था. अब पूरे पांच साल बाद शार्ली एब्दो ने उसी कार्टून को फिर से छापा है. 

कार्टून छापने की टाइमिंग बेहद अहम
पत्रिका ने कहा है कि चाहे जो कीमत चुकानी पड़े वो अभिव्यक्ति की अपनी आजादी पर अडिग रहेंगे. लेकिन कार्टून छापने की ये टाइमिंग बेहद अहम है.

- 2015 में हुए शार्ली एब्दो हमले के आरोपियों पर मुकदमा कल ​2 सितंबर को ही शुरू हुआ है.

- इस केस में कुल 13 पुरुष और एक महिला, यानी कुल 14 आरोपी हैं.

- गोली चलाने वाले तीन हमलावरों को फ्रांस की पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया गया था.

- आतंकी संगठन अल कायदा ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी.

- कार्टून दोबारा छपने के बाद से फ्रांस में तनाव की स्थिति है.

- फ्रांस के गृह मंत्री ने माना है कि देश में एक बार फिर आतंकी हमला हो सकता है.

- 8 हजार से ज्यादा इस्लामी कट्टरपंथियों पर नजर रखी जा रही है.

धर्मनिरपेक्षता के मामले में हमें फ्रांस से सीखना चाहिए
आतंकी खतरे के बाद भी फ्रांस की सरकार ने कहा है कि शार्ली एब्दो पत्रिका को कार्टून छापने से मना नहीं किया जाएगा. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन (Emmanuel Macron) ने कहा है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी है. हम किसी मीडिया संस्थान से यह नहीं कह सकते कि वो क्या छापे और क्या नहीं.

फ्रांस सरकार ने कार्टून के मुद्दे पर जो स्टैंड लिया है वो काफी महत्वपूर्ण है. फ्रांस एक धर्मनिरपेक्ष देश है. वहां की सरकार का कहना है कि अगर हम मुस्लिम समुदाय के दबाव में आकर पत्रिका पर रोक लगाते हैं तो इससे सेकुलरिज्म को नुकसान पहुंचेगा. फ्रांस के संविधान के अनुसार वहां की सरकार किसी धर्म को ध्यान में रखते हुए फैसले नहीं ले सकती. वास्तव में यही असली धर्मनिरपेक्षता है. हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अक्सर किसी खास मजहब के तुष्टीकरण की कोशिश की जाती है. इसलिए धर्मनिरपेक्षता के मामले में हमें फ्रांस से सीखना चाहिए.

फ्रांस दुनिया के कुछ उन देशों में है जहां किसी धर्म को बढ़ावा नहीं दिया जाता. फ्रांस में किसी धर्म के प्रतीक चिन्ह को सार्वजनिक तौर पर अपने साथ रखने पर रोक है. इसी कानून के तहत मुस्लिम महिलाओं के बुर्का या हिजाब पहनने पर भी रोक है. ये पाबंदी सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं है. यहूदी अपने सिर पर छोटी टोपी नहीं पहन सकते. ईसाई भी गले में ज्यादा बड़ा क्रॉस नहीं पहन सकते. बाकी धर्मों के लोगों ने तो बिना विरोध के इस कानून को मान लिया, लेकिन मुस्लिम समुदाय अब तक इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर सका है. शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हुए हमले के पीछे भी यही सोच थी. दोबारा वही कार्टून छापकर पत्रिका ने उसी मजहबी सोच पर हमला किया है.

ज़ी न्यूज़ को चुकानी पड़ी थी कीमत
फ्रांस में पांच साल पहले जब ये हमला हुआ था तब भी ज़ी न्यूज़ ने पूरी मजबूती के साथ शार्ली हेब्दो मैगजीन का साथ दिया था. हमारे लिए ये अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा है, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. ज़ी न्यूज़ को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी थी. तब हैदराबाद और देश कुछ दूसरे इलाकों में ज़ी न्यूज़ के खिलाफ FIR भी दर्ज कराई गई थीं. लेकिन सच की इस लड़ाई में हम न तो तब झुके थे और न अब झुकते हैं. ज़ी न्यूज़ के ये तेवर अभिव्यक्ति की आजादी और असली धर्मनिरपेक्षता के लिए हमारी प्रतिबद्धता की वजह से हैं.

- इसी साल दिल्ली के शाहीन बाग में चक्काजाम की कवरेज करने से ज़ी न्यूज़ को रोकने की कोशिश हुई थी और हम पर हमला भी हुआ था.

- इससे पहले जामिया हिंसा के दौरान भी कट्टरपंथियों ने ज़ी न्यूज़ की टीम को निशाना बनाने की कोशिश की थी.

- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में भी देशविरोधी नारों की कवरेज के दौरान ज़ी न्यूज को निशाना बनाया गया था.

- जब हमने जम्मू में जमीन जिहाद के नाम पर मजहबी एजेंडे को उजागर किया तो केरल में हमारे खिलाफ FIR की गई.

सामाजिक संघर्ष की स्थिति
पिछले सप्ताह ही हमने आपको यूरोप के दो देशों, स्वीडन और नॉर्वे में हिंसा की तस्वीरें दिखाई थीं. वहां भी हिंसा का कारण शार्ली एब्दो जैसा ही था. और ये कारण था- बढ़ती इस्लामी कट्टरता. स्वीडन और नॉर्वे से लेकर फ्रांस और जर्मनी जैसे देश इस समस्या से परेशान हैं. ये वो देश हैं जिन्होंने पिछले कुछ साल में बड़ी संख्या में अरब देशों के शरणार्थियों को मानवता के आधार पर अपने यहां शरण दी है. अब वही शरणार्थी इन देशों के लिए समस्या बन गए हैं. यूरोपीय समाज काफी स्वतंत्र विचारों वाला है. वहां पर जब मुस्लिम आबादी पहुंचने लगी तो एक तरह से सामाजिक संघर्ष की स्थिति पैदा होने लगी. यूरोप में मुस्लिम आबादी के बढ़ने की दर काफी अधिक है. अभी यूरोप के देशों में कुल मुस्लिम जनसंख्या लगभग 6 प्रतिशत है और 10 वर्ष बाद 2030 तक इसके 8 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया जा रहा है.

- बुल्गारिया में इस समय मुस्लिम आबादी 11.1 प्रतिशत हो चुकी है.

- फ्रांस में ये 8.8 प्रतिशत

- स्वीडन में 8.1 प्रतिशत

- बेल्जियम में 7.6 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है.

- जर्मनी की आबादी का लगभग 6.1 फीसदी मुसलमान हैं

ये वो देश हैं जहां पर शरणार्थियों को लेकर टकराव की घटनाएं सबसे ज्यादा देखने को मिल रही हैं. यूरोप के इन देशों में कुछ साल पहले तक अपराध की घटनाएं नहीं होती थीं, लेकिन अब वहां दंगे, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं. पिछले कुछ सालों में आर्थिक संकट और मंदी के कारण यूरोप में भी रोजगार के मौके कम हुए हैं, जिससे वहां के समाज में टकराव और भी बढ़ा है.

कार्टून छापकर पत्रिका ने मजहबी सोच पर किया हमला
अब बात करते हैं फ्रांस के संविधान की उन बातों की, जिनके कारण उसने कार्टून छापने पर रोक नहीं लगाई. फ्रांस के संविधान के अनुसार वहां की सरकार किसी धर्म को ध्यान में रखते हुए फैसले नहीं ले सकती. वास्तव में यही असली धर्मनिरपेक्षता है. हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अक्सर किसी खास मजहब के तुष्टीकरण की कोशिश की जाती है. इसलिए धर्मनिरपेक्षता के मामले में हमें फ्रांस से सीखना चाहिए.

फ्रांस में किसी धर्म को बढ़ावा नहीं दिया जाता. फ्रांस में किसी धर्म के प्रतीक चिन्ह को सार्वजनिक तौर पर अपने साथ रखने पर रोक है. इसी कानून के तहत मुस्लिम महिलाओं के बुर्का या हिजाब पहनने पर भी रोक है. ये पाबंदी सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं है. यहूदी अपने सिर पर छोटी टोपी नहीं पहन सकते. ईसाई भी गले में ज्यादा बड़ा क्रॉस नहीं पहन सकते. बाकी धर्मों के लोगों ने तो बिना विरोध के इस कानून को मान लिया, लेकिन मुस्लिम समुदाय अब तक इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर सका है. शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हुए हमले के पीछे भी यही सोच थी. दोबारा वही कार्टून छापकर पत्रिका ने उसी मजहबी सोच पर हमला किया है.

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