पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में जीत मिलने के बाद TMC ने गुलाल के बजाय खून से जश्न मनाया. इस दौरान कई BJP कार्यकर्ताओं के घर जला दिए गए, जबकि कुछ इलाकों में BJP दफ्तरों पर तोड़फोड़ के बाद उन्हें आगे के हवाले कर दिया गया.
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नई दिल्ली: आज हम आपको बंगाल के रक्त चरित्र के बारे में बताना चाहते हैं. वैसे तो पश्चिम बंगाल (West Bengal) में हुए विधान सभा चुनाव के नतीजे (Assembly Election Result) कल ही आ गए थे, लेकिन आज वहां भारतीय जनता पार्टी (BJP) को वोट डालने के नतीजे भी आ गए हैं.
नतीजे कुछ इस प्रकार है कि दक्षिण 24 परगना (South 24 Parganas) में जिन लोगों ने बीजेपी को वोट दिया था, और जिन बीजेपी कार्यकर्ताओं ने पार्टी के लिए चुनाव में काम किया था, उनके घरों को तोड़ दिया गया है. ऐसा करने वाले लोग तृणमूल कांग्रेस (TMC) के ही कार्यकर्ता हैं. आरामबाग (Arambag) में भी राजनीतिक हिंसा के नतीजे देखने को मिले, वहां बीजेपी दफ्तर में तोड़फोड़ की गई और बाद में उसे आग लगा दी गई. कुछ इसी तरह के नतीजे नंदीग्राम (Nandigram) से भी सामने आए, जहां ममता बनर्जी की हार के बाद शुवेंदु अधिकारी की गाड़ी पर हमला हुआ और कई इलाकों में बीजेपी कार्यकर्ताओं पर हमले हुए. यहां तक कि उनके घर भी तोड़ दिए गए.
सोनारपुर में तो एक बीजेपी कार्यकर्ता की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, और ये सब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की जीत के बाद हुआ. यानी इस तरह से टीएमसी के कार्यकर्ताओं ने जश्न मनाया और गुलाल की जगह खून ने ले ली. अगर हम अब तक की राजनीतिक हिंसा के बारे में आपको बताएं तो टीएमसी ने बढ़त बनाई हुई है. पिछले 24 घंटों में टीएमसी कार्यकर्ताओं पर बीजेपी के 5 कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप लग चुके हैं. चुनाव के बाद अब बीजेपी को वोट देने वाले मतदाताओं और कार्यकर्ताओं को इसकी सजा दी गई.
इस पर चिंता जताते हुए पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankar) ने कहा 'राज्य के विभिन्न हिस्सों से हिंसा, आगजनी और हत्याओं की कई खबरों से परेशान और चिंतित हूं. पार्टी कार्यालयों, घरों और दुकानों पर हमले किए जा रहे हैं और स्थिति चिंताजनक है.' आज उन्होंने पश्चिम बंगाल के DGP से भी इस पर जानकार ली. हालांकि यहां महत्वपूर्ण बात ये है कि चुनाव के दौरान खुद पर हमले का आरोप लगाने वाली ममता बनर्जी हर बार की तरह इस हिंसा पर भी चुप हैं. क्योंकि ये हिंसा बीजेपी कार्यकर्ताओं और चुनाव में उसे वोट देने वाले वोटरों के खिलाफ हो रही है. आज एक सवाल ये भी है कि क्या अब लोकतंत्र में खतरे में नहीं है?
पश्चिम बंगाल में नतीजों के बाद ही नहीं बल्कि विधान सभा चुनाव के दौरान भी काफी हिंसा हुई और चुनाव से पहले भी कई राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई. ये पश्चिम बंगाल में कई दशकों से हो रहा है. जब राज्य में 34 वर्षों तक लेफ्ट की सरकार थी, तब भी वहां राजनीतिक हिंसा होती थीं. पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने जब विधान सभा में ये बताया था कि 1988 से 1989 के दौरान बंगाल में कम से कम 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारा गया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ये कहना पड़ा था कि 'वामपंथियों के बंगाल में जीना बेहद खतरनाक हो गया है'. लेकिन विडम्बना देखिए कि 32 वर्षों के बाद भी पश्चिम बंगाल में परिस्थितियां बदली नहीं हैं.
हालांति इतिहास के पन्ने पलटें तो बंगाल में आजादी के बाद से ही राजनीतिक हिंसा की शुरुआत हो गई थी. वर्ष 1947 और 1948 में किसानों और जमींदारों में जबरदस्त खूनी टकराव हुआ. तब इस हिंसा में एक ओर कांग्रेस थी और दूसरी ओर लेफ्ट पार्टियां थीं. इस हिंसक आंदोलन को तेभागा आंदोलन कहा जाता है. 1953 में दूसरी राजनीतिक हिंसा शुरू हुई, जिसे नाम दिया गया 'एक पैसा आंदोलन'. उस समय कोलकाता में ट्राम का किराया 1 रुपये बढ़ाया गया था, जिसके बाद इसके विरोध में हिंसा शुरू हो गई. इस आंदोलन में भी एक ओर कांग्रेस थी और दूसरी ओर लेफ्ट पार्टिंया थीं. उस समय दोनों पार्टियों की राजनीति ने कोलकाता को युद्ध का मैदान बना दिया था.
इसके बाद 1967 में नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ. तब लेफ्ट के कई समर्थकों ने चीन के नेता माओत्से तुंग की उस विचारधारा को माना, जिसमें कहा गया है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. इस आंदोलन ने बंगाल की राजनीति में हिंसा की संस्कृति को स्थापित कर दिया, और फिर 1990 में ममता बनर्जी पर जानलेवा हमला हुआ. ममता पर ये हमला राजनीतिक हिंसा की सबसे वीभत्स घटनाओं में है. इसी हमले के बाद ममता लेफ्ट के खिलाफ लड़ाई का चेहरा बन गईं, और आज वो वही कर रही हैं, जो एक समय लेफ्ट पार्टियां करती थीं.
वर्ष 2006 से 2008 तक चले सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन में टीएमसी और लेफ्ट में कई हिंसक टकराव हुए. इस राजनीतिक टकराव की वजह से बंगाल सियासी हिंसा की रणभूमि बन गया और 100 से ज्यादा राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, और ये सिलसिला आज भी जारी है. बस फर्क इतना है कि पहले जब पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का शासन था तो पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता और फिर TMC के कार्यकर्ता मारे जाते थे. और अब जब ममता बनर्जी की सरकार है तो बीजेपी के कार्यकर्ता मारे जाते हैं. ये कार्यकर्ता अब सोशल मीडिया पर मदद मांग रहे हैं.
पश्चिम बंगाल की राजनीति का चरित्र रक्त की तरह लाल है और मौजूदा परिस्थितियां भी काफी बदल गई हैं. अब संघर्ष लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ नहीं है, बल्कि संघर्ष बीजेपी के खिलाफ है, और इसकी वजह है बीजेपी का बंगाल में बढ़ता प्रभाव. भले बीजेपी पश्चिम बंगाल में सरकार नहीं बना पाई, लेकिन वो 3 सीटों से 77 सीटों पर पहुंच गई है. जबकि विधान सभा में कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को एक भी सीट नहीं मिली. ये ऐतिहासिक इसलिए भी है क्योंकि आजादी के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है, जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट को एक भी सीट नहीं मिली.
आज से लगभग 23 वर्ष पहले वर्ष 1998 में पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने Zee News को एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने लेफ्ट पार्टियों के कमजोर होने की वजह बताई थी. लेकिन आज के राजनीतिक हालात में लेफ्ट पार्टियां पश्चिम बंगाल से गायब हो गई हैं. जो लोकतंत्र को खतरे में बताते हैं, असहनशीलता का मुद्दा उठाते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी बात करते हैं, वो पश्चिम बंगाल के मौजूदा हालात पर आज चुप हैं.
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