मध्य प्रदेश की अमूल्य धरोहर: कजलियां पर्व का ऐतिहासिक महत्व और क्यों है यह लोक आस्था का प्रतीक? जानें
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मध्य प्रदेश की अमूल्य धरोहर: कजलियां पर्व का ऐतिहासिक महत्व और क्यों है यह लोक आस्था का प्रतीक? जानें

History of Bhujriya festival: बुंदेलखंड का लोकपर्व कजलियां, कृषि और संस्कृति का संगम है. यह त्योहार आल्हा-ऊदल की वीरगाथा से जुड़ा है और बुंदेलखंड की महिलाओं की श्रद्धा का प्रतीक है.

History of Kajliyan Festival

History of Kajliyan Festival: मध्य प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र अपनी समृद्ध संस्कृति, गौरवशाली इतिहास और रंग-बिरंगे त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है. इस क्षेत्र की लोक परंपराएं और त्योहार अद्वितीय प्रथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हुए हैं, जिनमें वीरता और शौर्य की झलक मिलती है. ऐसा ही एक महत्वपूर्ण लोक उत्सव है "कजलियां," (History of Kajliyan Festival) जिसे बुंदेलखंड में परंपरा और आस्था का प्रतीक माना जाता है. बता दें कि इसे "भुजरिया" के नाम से भी जाना जाता है.

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हालांकि, आधुनिकता के प्रभाव से इस पर्व की चमक कुछ हद तक कम हो गई है, फिर भी ये कुछ ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जीवित है. इस त्योहार का ऐतिहासिक महत्व इसे विशेष बनाता है तो आइये जानते हैं इस खास त्योहार के ऐतिहासिक महत्व और परंपरा के बारे में सबकुछ...

कजलियां बुन्देलखण्ड का लोकपर्व है
बता दें कि कजलियां मूल रूप से बुंदेलखंड की एक प्राचीन परंपरा है, जिसे लोक आस्था और परंपरा का पर्व माना जाता है. सदियों से हरे-भरे पौधों को आदरपूर्वक अर्पित करने की यह परंपरा चली आ रही है. यह त्योहार कृषि और किसान जीवन से जुड़ा हुआ है. पुराने समय में कजलियां देखकर किसान यह अंदाजा लगाते थे कि फसल कैसी होगी. इस उत्सव में विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी होती है. सावन महीने की नवमी तिथि से इसका आरंभ होता है. नाग पंचमी के अगले दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बांस की टोकरी में भरकर उसमें गेहूं के बीज बोए जाते हैं. एक सप्ताह बाद एकादशी के दिन इन बीजों से उगी कजलियों की पूजा की जाती है और फिर द्वादशी के दिन इन्हें जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है.

सावन महीने की पूर्णिमा को रक्षाबंधन मनाने के बाद, अगले दिन भाद्रपद मास की प्रतिपदा को कजलियां पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष, 20 अगस्त 2024 को यह पर्व है. इस दिन लोग एक-दूसरे से मिलकर गेहूं की कजलियां देते हैं और कजलियां पर्व की शुभकामनाएं देते हैं. यह पर्व अच्छी वर्षा, समृद्ध फसल, और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना के साथ मनाया जाता है. इसलिए, लोग इस दिन एक-दूसरे को खुशहाल जीवन और भरपूर धन-धान्य की शुभकामनाएं देते हैं. बुंदेलखंड में इस पर्व का विशेष महत्व है और इसे बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है.

गेहूं और जौ से बनती हैं कजलियां
कजलियां गेहूं और जौ के दानों से उगाई जाती हैं. इसके लिए सावन महीने की अष्टमी और नवमी तिथि को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी डालकर गेहूं या जौ के दाने बोए जाते हैं. रोजाना पानी देने से एक सप्ताह में इनमें अंकुर निकल आते हैं और कजलियां तैयार हो जाती हैं. कजलियां पर्व के दिन यही कजलियां एक-दूसरे को दी जाती हैं और बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता है. इन भुजरियों की पूजा भी की जाती है ताकि सालभर अच्छी बारिश हो और फसल अच्छी हो.

कजलियों की पूजा का महत्व
कजलियों की पूजा कर यह प्रार्थना की जाती है कि वर्षा अच्छी हो और फसलें लहलहा उठें. चार से छह इंच की ये कजलियां नई फसल का प्रतीक मानी जाती हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार, यह पर्व आल्हा-ऊदल की बहन चंदा से जुड़ा है. जब चंदा सावन के महीने में नगर आई, तो लोगों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था. तभी से यह परंपरा चलती आ रही है.

कजलियां का ऐतिहासिक महत्व
ऐतिहासिक दृष्टिकोण की बात करें तो माना जाता है कि महोबा के राजा परमाल की बेटी, राजकुमारी चंद्रावली, जब अपनी सहेलियों के साथ तालाब में कजलियां सिराने गई थी, उसी समय दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर आक्रमण कर दिया था. पृथ्वीराज का उद्देश्य राजकुमारी का अपहरण करना था, लेकिन महोबा के वीर योद्धाओं आल्हा, ऊदल, मलखान और अभई ने बहादुरी से लड़ते हुए राजकुमारी की रक्षा की. इस युद्ध में अभई वीरगति को प्राप्त हुए और राजा परमाल के पुत्र रंजीत भी शहीद हो गए.

आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद, और राजा परमाल के पुत्र ब्रह्मा जैसे वीरों ने पृथ्वीराज की सेना को हराकर महोबा की रक्षा की. इस विजय के बाद राजकुमारी चंद्रावली और अन्य लोगों ने अपनी-अपनी कजलियां विसर्जित कीं. तब से यह पर्व बुंदेलखंड में विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है. "कजलियां" बुंदेलखंड की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का प्रतीक है, जिसे आने वाली पीढ़ियों को सहेज कर रखना चाहिए.

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