MP Yadav Politics: मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बनने जा रहे मोहन यादव (Mohan Yadav) की काफी चर्चा है. एक यादव को मुख्यमंत्री का पद देकर भाजपा ने सियासी जगत में खलबली मचा दी है. ऐसे समय में शायद कांग्रेस के कुछ नेताओं को एक बात काफी खल रही होगी, जो गाहे-बगाहे भाजपा के लोग सुनाते भी रहते हैं. जी हां, कांग्रेस की अंदरूनी पॉलिटिक्स के चक्कर में एक यादव चेहरा मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गया था. उनका नाम था सुभाष यादव. उनकी गिनती कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में होती थी. वह प्रदेश के डेप्युटी सीएम तो बने लेकिन सर्वोच्च पद नहीं मिला. खरगोन जिले के किसान परिवार से आने वाले सुभाष यादव अब इस दुनिया में नहीं हैं. उनके बेटे अरुण यादव एमपी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं. हालांकि जब भी मौका मिलता है राज्य के भाजपाई सुभाष यादव का जिक्र कर कांग्रेस पर हमला करने से नहीं चूकते. दो साल पहले बीजेपी के एक नेता ने दिग्विजिय सिंह के ट्वीट पर अरुण यादव पर तंज कसते हुए कहा था, 'आप उनके साथ हो जिन्होंने आपके पिताजी का लगातार अपमान किया. काबिल होने के बावजूद दिग्विजय सिंह और इनके गुरु अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. सिर्फ इसलिए क्योंकि सुभाष जी पिछड़े वर्ग (यादव) से आते थे.' खुद शिवराज सिंह चौहान भी यही बात कह चुके हैं. इस तरह से देखें तो एमपी में यादव पॉलिटिक्स नई बात नहीं है. आज भाजपा यादव-आदिवासी नेताओं को CM बना रही है लेकिन 30 साल पहले कांग्रेस चूक गई थी. 


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पहली बार तब चूकी कांग्रेस


1980 में अर्जुन सिंह को कांग्रेस ने एमपी का सीएम बनाया था और शिवभानु सोलंकी डेप्युटी सीएम बने थे. बताते हैं कि सोलंकी के सपोर्ट में ज्यादातर विधायक थे. अगर सोलंकी सीएम बनते तो एमपी को पहला आदिवासी सीएम मिल जाता. 


दूसरी बार यादव पर


साल था 1993, दिग्विजय सिंह के राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह सुभाष यादव को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. हालांकि सीएम दिग्विजय ही बने. अगर सुभाष यादव को कमान मिलती तो वह एमपी में कांग्रेस को पहला ओबीसी सीएम बनाने का क्रेडिट मिल जाता. बाद में 2003 में बीजेपी ने उमा भारत को मुख्यमंत्री बनाकर क्रेडिट अपने नाम कर लिया. अब यादव सीएम बनाकर भाजपा 'बीस' पड़ रही है. 


सिंह vs यादव


1993 में दिग्विजय सीएम और सुभाष यादव डेप्युटी सीएम बने थे. दोनों के रिश्ते सामान्य नहीं थे. दोनों राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे क्योंकि दोनों सीएम बनना चाहते थे. इससे पहले अर्जुन सिंह की सरकार के समय दोनों अच्छे दोस्त माने जाते थे. राजनीतिक जानकार कहते हैं कि सुभाष यादव की महत्वाकांक्षाएं पूरी न हो सकीं. उनका रुख बदलने लगा तो दिग्विजय ने सुभाष यादव को इग्नोर करना शुरू कर दिया. शराबबंदी समेत कई मुद्दों पर सुभाष यादव दिग्विजय सरकार के लिए ही चुनौती बन गए. उन्हें आखिर में मंत्रिमंडल से हटा दिया गया.


सुभाष यादव 1993 में खरगोन जिले की कसरावद विधानसभा से जीतकर एमपी के उपमुख्यमंत्री बने थे। तीसरी बार विधायक बनने पर उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया था. 


बेटे को मलाल तो होगा ही


बाद के वर्षों में सुभाष यादव के बेटे अरुण यादव कांग्रेस की तरफ से शिवराज सिंह चौहान की सीट से लड़े. एमपी में दलित, आदिवासी और ओबीसी की आबादी काफी ज्यादा है फिर भी कांग्रेस ने इस समुदाय से कभी सीएम नहीं बनाया. एक इंटरव्यू में खुद अरुण यादव ने कहा था, 'पुरानी बातों में जाने से क्या मिलेगा... मेरे पिताजी ने भी कोशिश की थी पर सफल नहीं हो पाए.' बताते हैं कि 2008 के चुनाव में सुभाष यादव की हार की मुख्य वजह दिग्विजय सिंह ही थे लेकिन दिग्विजय ने कभी सामने आकर 'बैटिंग' नहीं की. सुभाष यादव सांसद रहे लेकिन कभी सीएम नहीं बन पाए. 


चार दशक तक कांग्रेस एमपी की सत्ता में रही लेकिन 20 साल ब्राह्मण, 18 साल ठाकुर और कुछ साल बनिया सीएम दिया, मतलब शीर्ष पर सवर्ण हावी रहे. ऐसा तब था जब आजादी के बाद से हिंदी भाषी बेल्ट के दलित और आदिवासी कांग्रेस के साथ रहे. हालांकि अब वो समीकरण बिगड़ गया है. 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक एमपी में सवर्ण 22 प्रतिशत, दलित करीब 16 प्रतिशत, आदिवासी करीब 21 प्रतिशत बाकी ओबीसी और अल्पसंख्यक हैं.