इमरजेंसी लगाने का फैसला अनैतिक था. लेकिन अगर ये असंवैधानिक भी साबित हो जाता है तो क्या सज़ा सिर्फ अनैतिकता को सुनाई जाएगी क्योंकि, ये अनैतिक कृत्य करने वाले तो अब बचे ही नहीं हैं.
94 वर्ष की एक महिला जिनका नाम वीरा सरीन है, उनकी याचिका पर ये सुनवाई की गई है. वीरा सरीन ने याचिका में 25 करोड़ रुपए मुआवजे की मांग की है. वीरा सरीन का कहना है कि इमरजेंसी के दौरान उनकी पति की दुकान से सोने की कीमती कलाकृतियों को जब्त कर लिया गया था. साथ ही उनके पति को विदेश जाने के लिए मजबूर कर दिया गया था. उस समय दिल्ली के Connaught Place में वीरा सरीन और उनके पति का सोने की कलाकृतियों का बिजनेस था. कल 14 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में वीरा सरीन के वकील हरीश साल्वे ने सुनवाई के दौरान कहा कि इमरजेंसी लगाकर 'संविधान के साथ धोखा किया गया था, ऐसे इतिहास को दोहराये जाने की इजाजत नहीं दी सकती है. लेकिन सवाल ये है कि अब जब देश में इमरजेंसी लगाने वाले ज्यादातर कर्ता धर्ता जीवित ही नहीं बचे हैं तो इसे असंवैधानिक घोषित करने के बाद आखिर किसे सज़ा दी जाएगी और अगर ऐसा हो भी जाता है तो इससे देश की वर्तमान और भविष्य की राजनीति पर क्या फर्क पड़ेगा?
इमरजेंसी लगाने का फैसला अनैतिक था. लेकिन अगर ये असंवैधानिक भी साबित हो जाता है तो क्या सज़ा सिर्फ अनैतिकता को सुनाई जाएगी क्योंकि, ये अनैतिक कृत्य करने वाले तो अब बचे ही नहीं है. हालांकि अब अगर आपातकाल लगाने के फैसले को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाए तो उसका क्या असर होगा? इस फैसले में सीधे तौर पर शामिल अधिकतर महत्वपूर्ण लोग सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुनने के लिए जीवित नहीं हैं. 19 महीनों तक पूरे देश में जो कुछ भी हुआ उसके बारे में देश की मौजूदा पीढ़ी को ज्यादा जानकारी ही नहीं है.
लेकिन इसे आप भारत के राजनीतिक इतिहास में भूल-सुधार की एक कोशिश मान सकते हैं. ये भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय माना जाता है. जब नागरिकों के अधिकार छीन लिए गए थे. मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी गई थी और देश के सभी विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था. 45 वर्षों के बाद भी अगर इसे असंवैधानिक कहा जाता है तो ये भारत के इतिहास में एक उदाहरण बन जाएगा और फिर भविष्य में कभी कोई सरकार ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं पाएगी.
इमरजेंसी का दाग कांग्रेस के दामन पर है, इसके असंवैधानिक साबित होने से कांग्रेस की छवि थोड़ी और खराब तो जरूर होगी लेकिन इससे ज्यादा इसका क्या असर पड़ेगा क्योंकि कांग्रेस पार्टी तब भी थी और अब भी मौजूद है. वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी मिलकर देश चला रहे थे. यानी तब भी मां-बेटे ही मिलकर सरकार चला रहे थे और आज भी मां-बेटे मिलकर ही देश की सबसे पुरानी पार्टी यानी कांग्रेस चला रहे हैं.
वैसे इमरजेंसी के ख़िलाफ एक लड़ाई पहले भी लड़ी गई थी. वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी के आपातकाल के फैसले के खिलाफ कई लोगों ने कोर्ट में अपील की थी. लेकिन 22 जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका यानी कोर्ट से आपातकाल के फैसले पर सुनवाई का अधिकार ही छीन लिया. इसे संविधान का 38वां संशोधन कहा जाता है. आपातकाल खत्म होने के बाद वर्ष 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में दोबारा संशोधन कर दिया औऱ कोर्ट को फिर से आपातकाल के फैसले पर सुनवाई का अधिकार दे दिया.
प्रधानमंत्री होने के नाते इमरजेंसी की पूरी ज़िम्मेदारी इंदिरा गांधी की थी. लेकिन ऐसा माना जाता है कि इमरजेंसी के वक्त असली सत्ता इंदिरा गांधी के पास नहीं, बल्कि संजय गांधी के पास थी. संजय गांधी उस समय न तो किसी सरकारी पद पर थे और न ही वो जनता के द्वारा चुने हुए नेता थे. लेकिन सिर्फ इंदिरा गांधी का पुत्र होने की वजह से वो सभी फैसले ले रहे थे. तब संजय गांधी के घर पर दरबार लगता था. वो केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं को अपने घर पर बुलाते थे. उन्हें आदेश देते थे और अपने हिसाब से नियुक्तियां करते थे. संजय गांधी और उनके मित्रों ने इमरजेंसी के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से देश को चलाया.
कमलनाथ, जगदीश टाइटलर, आनंद शर्मा और अंबिका सोनी उस समय संजय गांधी की टीम में शामिल थे. अंबिका सोनी तब Youth Congress की अध्यक्ष थीं. गुलाम नबी आज़ाद और तारिक अनवर तब Youth Congress के नेता थे. ये सभी नेता आगे चलकर कांग्रेस की सरकारों में केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री भी बने. कमलनाथ और जगदीश टाइटलर. इनके बारे में इमरजेंसी के दौरान एक नारा बहुत मशहूर था, 'संजय गांधी के दो हाथ...टाइटलर और कमलनाथ'. लेकिन इमरजेंसी हटने के बाद भी इनमें से किसी का कुछ नहीं हुआ और इनमें से किसी को भी इमरजेंसी का Designer होने की सज़ा नहीं मिली.
इमरजेंसी के दौरान प्रेस की आजादी भी छीन ली गई थी लेकिन इसके बावजूद भारत की मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उस समय इंदिरा गांधी के इस फैसले से सहमत था. 25 जून 1975 की आधी रात को इमरजेंसी लगाई गई और अख़बारों के दफ्तरों में उसी रात को पावर सप्लाई जानबूझकर काट दी गई ताकि ज़्यादातर अख़बार अगले दिन आपातकाल का समाचार न छाप सकें.
अख़बारों के दफ्तरों को दो दिन बाद पावर सप्लाई की गई. संजय गांधी ने इमरजेंसी के दो दिन बाद ही सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को हटाकर अपने करीबी विद्याचरण शुक्ल को मंत्री बना दिया और विद्याचरण शुक्ल के ज़रिए सरकार ने मीडिया पर मनमानी की.
दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की. यहां तक कि इन संपादकों ने अखबारों पर लगाई गई सेंसरशिप को भी सही ठहरा दिया था. ऐसे संपादकों के बारे में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का वो कथन बहुत मशहूर है, जो उन्होंने सूचना प्रसारण मंत्री बनने के बाद कहा था. आडवाणी ने इन संपादकों से कहा था कि आपको झुकने को कहा गया था, आप तो रेंगने ही लग गए.
हालांकि कुछ अखबार ऐसे थे जिन्होंने इमरजेंसी का खुलकर विरोध किया. उस समय एक राष्ट्रीय अखबार ने इमरजेंसी के विरोध में संपादकीय पन्ने पर खाली जगह छोड़ दी थी. अब ये विडंबना ही है कि जब देश में लोकतंत्र की अति की जाती है, तब भी कहा जाता है कि ये देश के लोगों के हित में है और जब इमरजेंसी के दौरान देश में लोकतंत्र की क्षति हो गई थी. तब भी ये कहा गया था ये जनता की भलाई के लिए है. वर्ष 1976 में राजस्थान के बीकानेर में संजय गांधी ने एक भाषण दिया था और कहा था कि उनका मकसद ये है कि देश और देश के युवा आगे बढ़ें. आज भी ऐसी ही बातें कही जाती हैं. इमरजेंसी की ये कहानी हमने आपको इसलिए सुनाई ताकि आप समझ पाएं कि लोकतंत्र की न तो अति अच्छी होती है और न ही इसे पहुंचाई गई क्षति अच्छी होती है.
कड़ी सेंसरशिप की वजह से कई अख़बारों का प्रकाशन बंद हो गया. पत्रकारों के लिए सरकार ने Code of Conduct बना दिया. इमरजेंसी के दौरान 3 हज़ार 801 अख़बारों को ज़ब्त किया गया. 327 पत्रकारों को मीसा कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया.
उस वक्त प्रेस की सर्वोच्च संस्था Press Council of India एक तरह से सिस्टम का हिस्सा बनकर रह गई थी. इस संस्था ने इमरजेंसी का विरोध तक नहीं किया. यहां तक कि इमरजेंसी के विरोध में आने वाले प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया. 290 अख़बारों में सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए.
कई विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के टेलीफोन और दूसरी सुविधाएं ख़त्म कर दी गईं. इंदिरा गांधी ने 1975 में इमरजेंसी लगाई तो 1977 में देश के लोगों ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया.
लेकिन 2 वर्षों में ही जनता का Mood बदल गया और जनता ने इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को भारी बहुमत से फिर से सत्ता में पहुंचा दिया. आपातकाल के दौरान 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता छीन ली गई.
कुछ संवाददाताओं को भारत से निकाल दिया गया था. उस दौर में संपादकों के एक समूह ने सरकार के सामने समर्पण कर दिया था. 29 विदेशी पत्रकारों को भारत में एंट्री देने से मना कर दिया गया.
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