सांडर्स को गोली मारने के बाद भगत सिंह (Bhagar Singh) और सुखदेव दो दिन बाद दुर्गा भाभी के घर पहुंचे थे. भगत सिंह को ढूंढने के लिए चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी. इसलिए उन्हें भगवती चरण बोहरा की पत्नी यानी कि दुर्गा 'पति' बनकर वहां से निकलना पड़ा.
तीनों अगले दिन पुलिस से घिरे लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे. सूट-बूट और हैट पहने हुए भगत सिंह, उनके साथ उनका सामान उठाए नौकर के रूप में राजगुरु और थोड़ा पीछे अपने बच्चे के साथ आतीं दुर्गा. दो फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की टिकटें लेकर भगत सिंह और दुर्गा पति-पत्नी की तरह बैठ गए और सर्वेन्ट्स के कम्पार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए. वो लोग लखनऊ उतर गए. राजगुरु बनारस निकल गए. वहां से भगत सिंह और दुर्गा भाभी ने हावड़ा स्टेशन की ट्रेन ली, भगवती चरण बोहरा को पहले ही टेलीग्राम से स्टेशन आने को कह दिया था. सीआईडी हावड़ा स्टेशन पर भी तैनात थी. लेकिन वो सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेन्स पर नजर रख रही थी, ऐसे में भगत सिंह शादीशुदा और 1 बच्चे के बाप बनकर सुरक्षित निकल पाए.
लाला लाजपत राय पर लाठियां लाहौर के ब्रिटिश एसपी जेम्स ए स्कॉट ने बरसाई थीं, सो आजाद और भगत सिंह ने उसी को उसके दफ्तर के बाहर मारने की योजना बनाई. लेकिन गलती से एएसपी जॉन पी सांडर्स दिखा, जिसे स्कॉट समझकर भगत सिंह और राजगुरु ने गोलियां बरसा दीं. उसके बाद आजाद की मदद से वहां से सुरक्षित निकल गए. सो इसको उनकी ‘पहली चूक’ माना जाता है. लेकिन आजाद को पता था कि अंग्रेजी सरकार अब उन्हें छोड़ने वाली नहीं है. ऐसे में जब असेंबली बम कांड की योजना बनी तो आजाद ने भगत सिंह को सलाह दी कि बमों के अलावा कोई हथियार अंदर लेकर नहीं जाना है, केवल बम ले जाने हैं, उनसे भी केवल धमाका करना है, किसी को नुकसान नहीं हो और परचे फेंककर गिरफ्तारी दे देनी है. उनकी हिदायत के बावजूद भगत सिंह सांडर्स को मारने में इस्तेमाल की गई वही पिस्तौल ना केवल ले गए बल्कि तीन फायर भी सेंट्रल असेंबली में कर दी. ये थी उनकी दूसरी चूक. सो जब भगत सिंह की पहचान खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह ने की और पिस्तौल से सांडर्स के शरीर की गोलियों का मिलान हुआ तो उनको तो फांसी की सजा हुई, लेकिन उनके साथी बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद हुई. हालांकि लोग ये भी कहते हैं कि ये चूक उन्होंने जानबूझकर की थी.
.32 एमएम कोल्ट ऑटोमेटिक, ये थी भगत सिंह की वो पिस्तौल जिससे उन्होंने सांडर्स को मौत की नींद सुला दी. लेकिन हमारे देश में किस तरह बाकी धरोहरों की संरक्षण में लापरवाही की गई है, उसे केवल आप भगत सिंह की पिस्तौल की सुरक्षा के मामले से समझ सकते हैं. ये पिस्तौल पूरे 90 साल तक गायब रही, न किसी को पता था कि ये कहां गई और न किसी को ये जानने में दिलचस्पी थी. वैसे भी अंग्रेजों के समय में गायब हुई थी, सो किसी को ये भी पता नहीं था कि वो भारत में है भी या अंग्रेज अपने साथ ले गए. सालों से मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय के स्टोर रूम में लोग उसे एक ग्लास केस में रखा देखते थे. एक दिन म्यूजियम के लोगों ने उस पिस्तौल पर लगा काला पेंट हटाकर उसका सीरियल नंबर देखा तो हैरान रह गए, वो सीरियल नंबर था- 168896. तब जाकर पता चला कि ये पिस्तौल तो भगत सिंह की है.
17 दिसंबर 1928 का दिन था, शाम साढ़े चार बजे की बात है. सांडर्स की हत्या की एक एफआईआर उर्दू में लिखी जाती है. इस एफआईआर में न भगत सिंह का नाम था, न आजाद या राजगुरु और न ही सुखदेव का. हालांकि ये केस बाद में सुखदेव और साथी बनाम सरकार चलाया गया था. लेकिन एफआईआर लिखे जाने तक किसी की पहचान नहीं हो पाई थी. लेकिन केस का अनारकली से क्या लेना देना है? दरअसल, जिस पुलिस स्टेशन में ये एफआईआर लिखी गई थी, उस स्टेशन का नाम था ‘अनारकली पुलिस स्टेशन’. लाहौर का एक इलाका है, जहां कई सौ साल पुराना अनारकली बाजार काफी मशहूर है. ये सलीम वाली अनारकली के नाम पर ही बसाया गया था. भगत सिंह की कहानी से अनारकली का एक और कनेक्शन है. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के जो पोस्टर क्रांतकारियों ने फोटो के साथ अखबारों के दफ्तरों में भेजे थे, वो भी अनारकली की ही एक प्रिंटिंग प्रेस नेशनल आर्ट प्रेस में छपे थे.
यूं क्रांतिकारियों को पता चल गया था कि गलती से स्कॉट की जगह सांडर्स के सीने में गोलियां उतार आए हैं. लेकिन उनको तो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत के जरिए संदेश देना था कि अगर किसी भी भारतीय का खून गिरा तो अंग्रेज अधिकारी भी नहीं बचेंगे, ये तो लाला लाजपत राय जैसे बड़े नेता थे. सो सांडर्स को मारने के बाद जैसे कि योजना थी, एक पैम्फलेट अंग्रेजों को चेताने और इस हत्या की जिम्मेदारी लेने कि लिए हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपबल्किन आर्मी (एचएसआरए) ने बांटे, चिपकाए. भारतीय इन पैम्फलेट्स को पढ़कर काफी खुश थे, वहीं अंग्रेज खौफ और गुस्से में. किसी को नहीं पता था ये किसने किया है. लेकिन उस पैम्फलेट में चीफ के तौर पर ‘बलराज’ का नाम था. तब तक किसी को पता नहीं था कि ‘बलराज’ कौन है. लेकिन अब वो राज खुल चुका था, दरअसल चंद्रशेखर आजाद एचएसआरए के चीफ थे. वो इस तरह के पैम्फलेट्स, पोस्टर्स या पत्रों में खुद को बलराज लिखा करते थे. ये अलग बात है कि उनकी तरफ से ज्यादातर लिखने का काम भगवती चरण बोहरा या अन्य साथी किया करते थे.
सांडर्स कांड को लेकर अक्सर वामपंथी सफाई देते हैं कि लाला लाजपत राय को लाठियों से मारने की वजह से भगत सिंह का खून जरूर खौला था, उन्होंने बदला भी लिया, लेकिन वो लाला की राजनीति को पसंद नहीं करते थे. आखिर इसकी वजह क्या है? दरअसल कम लोगों को पता होगा कि गांधीजी ने हिंदू महासभा की स्थापना में अपने मित्र स्वामी श्रद्धानंद की मदद की थी. पहले अधिवेशन में वो हरिद्वार भी गए थे. ऐसे में कांग्रेस नेता अगर हिंदू महासभा से जुड़ते भी थे, तो उन्हें रोकते नहीं थे. ऐसे में मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय, दो ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष रहे, जो हिंदू महासभा के भी अध्यक्ष बने थे. भगत सिंह ने उन्हीं लाला लाजपत राय के लिए सांडर्स को गोली मारी और फांसी पर चढ़ गए और भगत सिंह को बचाने के लिए सबसे बड़ी कोशिश हिंदू महासभा के ही मदन मोहन मालवीय ने की थी. जब अंग्रेजों की सबसे बड़ी अदालत यानी लंदन की प्रिवी काउंसिल में भी भगत सिंह को माफी देने की अपील खारिज कर दी गई तो वह मदन मोहन मालवीय थे, जिन्होंने गर्वनर जनरल लॉर्ड इरविन के यहां दया याचिका 14 फरवरी 1931 को डाली. लेकिन वो भी नामंजूर कर दी गई. ये भगत की जान बचाने का आखिरी उपाय था. तो ये था हिंदू महासभा के 2 बड़े चेहरों के साथ भगत सिंह का अनोखा रिश्ता.
गांधीजी यूं भगत सिंह को पसंद करते थे, लेकिन उन्हें हिंसा का रास्ता पसंद नहीं था. आम जनता को लगता था कि भगत सिंह को अब केवल एक ही आदमी बचा सकता है, वो थे गांधीजी. दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाने के लिए कांग्रेस और इरविन की बात चल ही रही थी, बाद में गांधी इरविन समझौता भी हुआ. लेकिन इरविन ने गांधीजी की बात नहीं मानी. लोगों को लगता था कि गांधीजी भगत सिंह को बचाने के लिए ठान लें तो अंग्रेज भी उनके सामने झुक जाएंगे. 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी हुई और 3 दिन बाद ही यानी 26 मार्च को कांग्रेस का अधिवेशन था, सरदार पटेल इस कराची अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए थे. जब गांधीजी उसमें भाग लेने के लिए कराची पहुंचे तो उनका काफी विरोध किया गया. उनका स्वागत काले कपड़े के फूलों से किया गया, नारे लगे- गांधी मुर्दाबाद, गांधी गो बैक. हद तो तब हो गई, जब लोग 25 मार्च को उस जगह पहुंच गए, जहां गांधीजी रुके हुए थे. ये लोग वहां जाकर चिल्लाने लगे कि ‘कहां है खूनी’. नेहरूजी विरोध करने वाले लोगों को अपने साथ एक तम्बू में ले गए, 3 घंटे तक उन्हें समझाया, तब जाकर वो गए.
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