Rajasthan Election 2023 : क्या उदासीन कार्यकर्ता और उदासीन वोटर दोनों दलों के लिए चुनौती
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Rajasthan Election 2023 : क्या उदासीन कार्यकर्ता और उदासीन वोटर दोनों दलों के लिए चुनौती

Rajasthan Election 2023 : राजस्थान विधानसभा चुनाव को अब एक सप्ताह का समय रह गया है, बीजेपी-कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, लेकिन राजनीति के विश्लेषकों की मानें तो राजस्थान की राजनीति में पिछले तीन दशक से बारी बारी सरकार बना रहें, दोनो ही बड़े राजनीतिक दलों को निराश कार्यकर्ता और निराश वोटर्स की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना होगा.

Rajasthan Election 2023 : क्या उदासीन कार्यकर्ता और उदासीन वोटर दोनों दलों के लिए चुनौती

Rajasthan Election 2023 : राजस्थान विधानसभा चुनाव को अब एक सप्ताह का समय रह गया है, बीजेपी-कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, लेकिन राजनीति के विश्लेषकों की मानें तो राजस्थान की राजनीति में पिछले तीन दशक से बारी बारी सरकार बना रहें, दोनो ही बड़े राजनीतिक दलों को निराश कार्यकर्ता और निराश वोटर्स की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना होगा.

पिछले तीन दशक के विधानसभा चुनावों की कवरेज कर रहे है, कई वरिष्ठ पत्रकार भी मानते है कि इस बार के विधानसभा चुनाव का माहौल पहले चुनावों की तरह नहीं बन पाया है. इन चुनावों को लेकर जमीनी स्तर पहले की तरह उत्साह भी नजर नहीं आता. और ये ज्यादातर प्रदेश के दोनो बड़े दलों के कार्यकर्ताओं के साथ ज्यादा है. यहीं कारण है कि मतदान से कुछ दिनों पहले अशोक गहलोत को भी फिर से सचिन पायलट की याद आ गयी, तो दूसरी ओर बीजेपी में अब अंतिम समय में वसुंधरा को आगे लाने की कवायद हो रही है.

2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा सचिन पायलट थे, तो वही बीजेपी का चेहरा वसुंधरा राजे रही,ये दोनो ही चेहरे इस बार ना चाहते हुए भी चेहरा नहीं है. राजस्थान में चेहरा विहीन भाजपा की इस स्थिति को लेकर शुरू से ही चर्चाएं रही है. भाजपा ने नई संसद के पहले ही सत्र में ''नारी शक्ति वंदन विधेयक'' को दोनों सदनों में पारित करवाया था.

ऐसे समय में राजस्थान में एक ताकतवर महिला नेता अगर अग्रणी भूमिका में नहीं दिख रही है. तो ज़ाहिर पार्टी का कार्यकर्ता पसोपेश में है. बीजेपी में इस वक्त राजे के अलावा भी करीब आधे दर्जन नेता सीएम की दावेदारी में है. लेकिन राजे की तरह कोई भी नेता संपूर्ण प्रदेश में अपना करिशमा नहीं दिखा पा रहा हैं. पहली बार राजस्थान की राजनीति में दो मंजे हुए राजनेताओं की चुप्पी के साथ दोनों ही दल चुनावी मैदान में है.

0.20 प्रतिशत मत बदल देते है सत्ता की तस्वीर
प्रदेश की राजनीति में मतदान का प्रतिशत 60 रहे या 70 से भी ऊपर...लेकिन स्पष्ट बहुमत उसी दल को मिलता है, जिसके पास कम से कम 41 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हो. लेकिन इसके साथ ही एक अजीब बात ये भी है कि 39 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला दल सत्ता की तरफ बढ़ तो जाता है लेकिन बहुमत नहीं ला पाता. लेकिन जब भी किसी दल ने 39 प्रतिशत का आंकड़ा थोड़ा सा भी पार कर आगे निकला है भले ही ये प्रतिशत .20 से लेकर .30 का ही क्यो ना हो वो सरकार बनाने में कामयाब रहा है.

1985 में 39 प्रतिशत के बाद भी भाजपा को सिर्फ 76 सीटें मिली थी, लेकिन 2003 में इसी भाजपा ने 39.20 प्रतिशत मतों से ही 120 सीटें प्राप्त कर बहुमत पा लिया था. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 73 सीटों पर जीत मिली थी और उसका वोटिंग प्रतिशत 38.77% था.

प्रदेश में जिस दल को 39 प्रतिशत वोट मिलते है, वो बहुमत की तरफ बढ़ता है. लेकिन इससे अधिक मिलने पर वो सरकार बना लेती है. लेकिन इसमें भी अलग वर्ष 2003 में हुए विधानसभा चुनाव एक अपवाद रहा है. जब 39.20 प्रतिशत मतों के साथ ही भाजपा ने 120 सीटें जीतकर बहुमत में आई थी.

खास बात ये भी है कि 40 प्रतिशत मत के करीब पहुंचने वाला दल जोड़ तोड़ से सरकार तो बनाने में कामयाब रहता है,लेकिन बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है, 1993 में 38.69 प्रतिशत मत के साथ भाजपा को 95 सीटें मिली थी. यही हाल 2018 के विधानसभा चुनावों के भी रहे जब कांग्रेस कुल 39.30% वोट हासिल कर 100 सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे अन्य निर्दलियों का साथ लेना पड़ा.

यानी हार और जीत के लिए 39 प्रतिशत के बाद .20 से .30 प्रतिशत भी बहुत अहम भूमिका निभाते रहे है. प्रदेश में दोनों ही दलों की दौड़ इसी मत प्रतिशत को अपनी तरफ करने में लगा है. दोनों ही दल फिलहाल चुनावी मूड को कांटे की टक्कर मान कर चल रहे है. ऐसे में उनके लिए अपने उदासीन कार्यकर्ता और मतदाता के बीच उत्साह पैदा करना बेहद जरूरी है.

अंतिम एक सप्ताह
प्रदेश में मतदान में जब कुछ ही दिन शेष हैं, एक बार फिर से चर्चाओं का एक अलग ही दौर बना हुआ है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी जनसभाओं में सरकार के लौटने के दावे करते है तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच सचिन पायलट की चर्चा शुरू हो जाती है. कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पूर्व कई बाहरी नेताओं को खासतौर से निर्दलीय विधायकों को जिन्होंने कांग्रेस प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ा था, उन्हे कांग्रेस का टिकट दिया. इस तरह के टिकट वितरण का कार्यकर्ताओं ने विरोध नहीं किया लेकिन इसका असर जमीनी स्तर पर नहीं हुआ हो, ऐसा संभव नहीं है.

दूसरी तरफ कोई चेहरा घोषित नहीं होने से बीजेपी में भी यह धारणा अब घर कर चुकी है, कि वसुंधरा राजे को किनारे कर दिया गया है. राजस्थान में वसुंधरा राजे के प्रति खासतौर से महिलाओं के आकर्षण में कोई कमी नहीं आई है. लेकिन राजे को पीछे करने से इस वर्ग के मतदाता में पहले जैसा जोश बना रहेगा, इस बात पर राजनीतिक विश्लेषक भी एक राय नहीं है. इस स्थिति का नुकसान होगा या फायदा, यह तो बाद में स्पष्ट होगा लेकिन अभी तो चर्चा नहीं कि दोनों दलों के कार्यकर्ता पहले की तरह जोश में नहीं हैं, इसका असर मतदान पर होगा.

उदासीन कार्यकर्ता का कितना असर
जब कार्यकर्ता में जोश होता है तो वह मतदान के दिन ना केवल खुद का मत अपनी पार्टी को देता है, बल्कि अपने आस पास के खास लोगों, रिश्तेदारों से लेकर दोस्तों से भी अपनी पार्टी या पार्टी के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने का जतन करता है. उसी कार्यकर्ता में चुनाव को लेकर उत्साह कम होता है, तो वह खुद का मत तो अपनी पार्टी को जरूर देता है. लेकिन वह अपने रिश्तेदारों, दोस्तों या आस पास के लोगों से मतदान के लिए ज्यादा अनुरोध नहीं करता और ना ही वह दूसरे मतों को बूथ तक ले जाने का जतन करता है. इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि जब एक कार्यकर्ता में अपने प्रत्याशी के प्रति उत्साह होता है, तो वह अपने परिवार के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति को भी हर हाल में बूथ तक ले जाकर मतदान करने का जतन करता है. लेकिन जब एक कार्यकर्ता को चुनाव या प्रत्याशी के प्रति ज्यादा उत्साह नहीं होता है तो उस बुजुर्ग को ले जाने की बजाए खुद का वोट देकर इतिश्री कर लेता है.

खेमों में बंटे दल
लाख दावों के बावजूद कांग्रेस हो या बीजेपी, दोनों ही दल चुनाव के करीब आने तक भी खेमों में बंटे नजर आते है. इसका एक बड़ा कारण करीबी कई दिग्गज नेताओं के टिकट काटे गए है. बीजेपी में वसुंधरा राजे के कट्टर समर्थकों में शामिल यूनुस खान, राजपाल सिंह, अशोक परनामी और कैलाश मेघवाल जैसे दिग्गज नेताओं के टिकट काटे गए. वही कांग्रेस में पायलट के कई कट्टर समर्थकों को टिकट नहीं दिए गए है. जिनमें विधायक खिलाड़ी लाल बैरवा और 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी रहे सुभाष मील के नाम शामिल है. जिसके बाद सुभाष मील कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए. कुलदीप इंदौरा, अशोक चांडक, सोना देवी बावरी और हेमंत भाटी भी अपने टिकट नहीं बचा पाए.

कार्यकर्ताओं की टीस
बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों ही दलों को उदासीन कार्यकर्ता से लेकर वोटरों को मतदान बूथ तक लाने में आने वाला एक सप्ताह बेहद महत्वपूर्ण होगा. इसमें कांग्रेस को ही नहीं बीजेपी को भी ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. क्योंकि दोनों ही दलों ने नामांकन से कुछ घंटे पहले तक दल बदलकर आए नेताओं को टिकट दिए है. वर्षो से पार्टी के लिए मेहनत कर रहे दावेदारों और उनके समर्थको के लिए ये जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं रहा. बीजेपी ने कुछ घंटों पहले पार्टी जॉइन करने वाले कांग्रेस नेताओं को भी टिकट दिए है, कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल होने वाले गिर्राज सिंह मलिंगा धौलपुर की बाड़ी विधानसभा सीट से टिकट दिया. बेरोजगार युवाओं को एकजुट कर लड़ाई लड़ने वाले युवा उपेन यादव को भी बीजेपी ने मैदान में उतारा, ये अलग बात है कि टिकट मिलने से पहले तक दोनों ही दलों के संपर्क में थे.टिकट मिलने से एक दिन पहले ही बीजेपी जॉइन करने वाले दर्शन सिंह, सुभाष मील और उदयलाल डांगी को भी बीजेपी ने अपनी अंतिम सूची में टिकट दिए.

बीजेपी-कांग्रेस दोनों ही दलों ने दल बदलने वाले नेताओं को हाथो-हाथ टिकट देने में कोई देरी नहीं की. शोभा रानी कुशवाह, मनीषा गुर्जर को कांग्रेस ने तो ज्योति मिर्धा, डॉ. शिवचरण कुशवाह, प्रशांत परमार और मलिंगा को बीजेपी ने ऐसे ही दलबदल कर आए नेताओं को तुरंत टिकट दिए. कांग्रेस ने जहां बीजेपी से आए नेता विकास चौधरी और वसुंधरा राजे सरकार में मंत्री रहे सुरेंद्र गोयल को जैतारण से टिकट दिया है. तो बसपा से आए इमरान खान को तिजारा, दीपचंद खैरिया को किशनगढ़ बास और जोगिंदर सिंह अवाना को नदबई से टिकट दिया है. निर्दलीय विधायक कांति लाल मीणा को थानागाजी तो खुशवीरसिंह को मारवाड़ जंक्शन से टिकट दिया है.

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