19 नवंबर को रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) की जयंती मनाई जाती है. इस मौके पर हम आपको बता रहे हैं लक्ष्मीबाई के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें.
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नई दिल्ली: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmibai) 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं और उन्होंने कभी भी अंग्रेजों की दासता स्वीकार नहीं की. लक्ष्मीबाई ने अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति प्राप्त की. 19 नवंबर को रानी लक्ष्मीबाई की जयंती मनाई जाती है. इस मौके पर हम आपको बता रहे हैं लक्ष्मीबाई के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें.
बनारस में हुआ था जन्म
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तर प्रदेश के बनारस (अब वाराणसी) के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका नाम मणिकर्णिका (Manikarnika) रखा गया. घर में प्यार से सभी उन्हें मनु बुलाते थे. मनु जब चार साल की थीं, तब उनकी मां गुजर गईं और उन्हें पालने की जिम्मेदारी पिता मोरोपंत तांबे पर आ गई, जो बिठूर जिले के पेशवा के यहां काम करते थे. मां के निधन के बाद मनु अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं और पेशवा ने उन्हें अपनी बेटी की तरह पाला. पेशवा मनु को प्यार से छबीली बुलाते थे.
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झांसी के राजा से हुई शादी
मणिकर्णिका जब बड़ी हुईं तब उनकी शादी झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवलकर से हुई. झांसी जाने के बाद माता लक्ष्मी के नाम पर उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) रखा गया. शादी के बाद लक्ष्मीबाई ने बेटे को जन्म दिया, लेकिन 4 महीने के बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई. इसके बाद उनके पति का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और सबने उत्तराधिकारी के रूप में एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी. राजा गंगाधर ने अपने चचेरे भाई का बच्चा गोद लिया और उसे दामोदार राव नाम दिया. लंबी बीमारी के बाद महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई और राज्य की जिम्मेदारी लक्ष्मीबाई पर आ गई.
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अंग्रेजों ने रची साजिश
राजा गंगाधर राव के निध के बाद अंग्रेजों ने साजिश रची और लॉर्ड डलहौजी झांसी पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश करने लगा. अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद लक्ष्मीबाई ने झांसी को बचाने के लिए बागियों की फौज तैयार की. 1854 में ब्रिटिश सरकार ने लक्ष्मीबाई को महल छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन उन्होंने झांसी नहीं छोड़ने का फैसला किया. 1858 में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया, लेकिन लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी और अपने पुत्र को पीठ पर बांधकर निकल पड़ीं. अंग्रजों का सामना करते हुए वह अपने दत्तक पुत्र व कुछ सहयोगियों के साथ झांसी से निकल गईं.
अंग्रजों से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की
झांसी छोड़ने के बाद लक्ष्मीबाई तात्या टोपे से जा मिलीं, लेकिन अंग्रेज उनकी खोज में पीछे लगे हुए थे. तात्या से मिलने के बाद उन्होंने ग्वालियर के लिए कूच किया और रास्ते में ही उन्हें अंग्रेजों का सामना करना पड़ा. वीरता और साहस के साथ युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति को प्राप्त की, लेकिन उन्होंने समर्पन नहीं किया. लक्ष्मीबाई की इस साहस का अंग्रेजों ने भी लोहा माना.
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