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लखनऊ : बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का दावा था कि उत्तर प्रदेश में 19 प्रतिशत मुस्लिम और 21 फीसदी दलित एकजुट होगा तो बसपा को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने से कोई नहीं रोक सकता. बसपा प्रमुख का यह दावा सौ फीसदी सही था, लेकिन पीएम मोदी की किस्मत और भाजपा के चाणक्य अमित शाह की रणनीति से ऐसा हो नहीं सका.
मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के पहले के समीकरण के तहत 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी 85 सुरक्षित सीटों के अलावा दो अन्य क्षेत्र से भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवार उतारे थे. इसके अलावा मुस्लिमों को 97 और 106 सीटों पर ओबीसी वर्ग को टिकट दिया था. सवर्णों को 113 टिकट दिए जिसमें 66 ब्राह्मण, 36 क्षत्रिय और 11 अन्य (कायस्थ व पंजाबी) शामिल थे. मायावती की रणनीति ठीक थी, लेकिन बदलते दौर की राजनीति को वह समझ नहीं सकीं.
मायावती की मुस्लिम राजनीति की कॉपी करते हुए समाजवादी पार्टी ने भी 90 से अधिक सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार दिए. इसका नुकसान ये हुआ कि प्रदेश में 20 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता आपस में ही बंट गए. ऐसा नहीं था कि ये वोट किसी भाजपा उम्मीदवार को चले गए. असल में ये वोट सीट दर सीट जहां भाजपा के खिलाफ बसपा का उम्मीदवार अगर मुस्लिम था तो उसे मिल गया. जहां भाजपा के खिलाफ सपा का उम्मीदवार मुस्लिम था तो उसे वोट मिला. इस तरह से पूर्व के चुनावों में एकतरफा वोटिंग करने वाले मुस्लिम वोटों में बिखराव सपा का हाजमा तो बिगड़ा ही, बसपा का भी सूपड़ा साफ हो गया. न तो दलित-मुस्लिम समीकरण हिट हो पाया और न ही मुस्लिम-यादव का समीकरण हिट हो पाया.
90 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारने से मायावती को दूसरा बड़ा नुकसान ये हुआ कि बसपा का वोट बैंक दलित और ओबीसी मतदाताओं को महसूस हुआ कि बसपा सिर्फ मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती है. सरकार बनने के बाद दलितों की परेशानियों को भुला देती है. स्वामी प्रसाद मौर्य, आर.के.सिंह जैसे नेताओं के साथ मौर्य, कुशवाहा, कुर्मी, राजभर, पासी जैसी असरदार जातियों के मतदाताओं का मायावती को अपेक्षित साथ नहीं मिला. भाजपा ने प्रदेश में अपनी सियासी छवि को पहले ही बदल दी थी जिसके दम पर ओबीसी और दलित वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाने में सफल रही. ब्राह्मणों और अन्य अगड़ी जातियों का भी भाजपा को पूरा समर्थन मिला जिससे मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला धरा का धरा रह गया.
कहने का मतलब यह कि बिखरे मुस्लिम मतदाताओं और दलित व ओबीसी वोट बैंक में भाजपा की सेंध लगने से बहुमत का सपना देख रही बसपा एकदम से नीचे गिर गई और बामुश्किल 15 से 17 सीटों में सिमटती दिख रही है. अब मायावती को अपना वजूद बचाए रखना है तो दलितों की हितैषी कही जाने वाली बसपा को दलितों की परेशानियों को सही मायने में समझना पड़ेगा. सिर्फ वोट बैंक की राजनीति से अस्तित्व बचाना अब आसान नहीं होगा.