Geeta Updesh By Shri Krishna: महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया. इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई. इन उपदेशों को 18 भागों में विभाजित किया गया है. यहां संक्षेप में जानें कि प्रत्येक अध्याय में क्या लिखा है
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Geeta Updesh By Shri Krishna: गीता का उपदेश भगवान कृष्ण ने मात्र अर्जुन के लिए नहीं दिया था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था. अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से हार नहीं सकता और न ही परेशान रह सकता है. गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश है यहाँ संक्षिप्त में जानें..
पहला अध्याय
अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि युद्ध में मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं. बुद्धिमान होकर भी हम पाप करने को तैयार हो गए हैं. अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है.
दूसरा अध्याय
दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं. समय की गति इन सब स्थितियों को लाती है. जीवन में लोग मिलते और छूटते रहे हैं. इस बात को समझ जाओ फिर शोक नहीं होगा.
तीसरा अध्याय
तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कि मैं नारायण का रूप हूं, फिर भी मैं कर्म करता हूं और संसार मेरे रास्ते पर चलता है. हमें कर्म करते रहना चाहिए. जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है.
चौथा अध्याय
चौथे अध्याय में बताया गया है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है. अधर्म हमेशा कायम नहीं रह सकता.
पांचवा अध्याय
पाँचवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म की शुद्धता के बारे में बताया है. हमें अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित कर दने चाहिए और फल की चिंता नहीं करनी चाहिए .
छठा अध्याय
भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है. जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है.
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सातवां अध्याय
इस अध्याय में वताया गया है कि भगवान के अनेक रूप है लेकिन सब नारायण ही हैं. यहां विष्णु भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है. भगवान कहते हैं उसी व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होना है जो नारायण को पहचान लेता है.
आठवां अध्याय
आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव के शरीर के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियां मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं. हर जीव में तीन शक्तियां होती हैं.
नौवां अध्याय
नवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, मृत्यु, संत-असंत और जितने भी देवी-देवता हैं सब ब्रह्म में से निकले हैं उन्ही में लीन हो जाते हैं. ईश्वर एक ही है.
दसवां अध्याय
दसवें अध्याय का सार यह है कि जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियां हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं.
ग्यारहवां अध्याय
अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा. विष्णु का जो चतुर्भुज रूप. जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म' ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले.
बारहवां अध्याय
बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जो भगवान के ध्यान में लग जाते हैं और अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण रूप की पूजा में लगे रहते है वह व्यक्ति मुझे प्राप्त करते हैं. इसलिए अर्जुन तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा.
तेहरवां अध्याय
भगवान कृष्ण ने कहा कि केवल मुझे पाने के लिए मेरी भक्ति करना, बिना परेशान हुए मेरी भक्ति में विश्वाश बनाए रखने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव और परमात्मा से मिलने का भाव, यह सब ज्ञान है. जो मुझे और मेरी भक्ति को नहीं जानते वह अज्ञान हैं.
चौदहवां अध्याय
चौदहवें अध्याय में समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएं हैं और प्राण की शक्ति के बारे में बताया गया है.
पंद्रहवां अध्याय
पंद्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विश्व के अश्वत्थ रूप का वर्णन किया है. यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है. धरती ही बल्कि पूरे ब्रह्माण्ड के कण कण में ईश्वर है.
सोलहवां अध्याय
सोलहवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा कि अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर विषय-भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य नरक में जाते हैं. आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वे बहुत ही घमंडी होते हैं. आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूं और दंड देता हूँ.
सत्रहवां अध्याय
सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह निश्चित रूप से "सत्" ही कहा जाता है. बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी धार्मिक कार्य किया जाता है, वह सभी "असत्" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है. दिखावे की भक्ति का कोई लाभ नहीं होता.
अठारवां अध्याय
अठारवें अध्याय में गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है. मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके. धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है. जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ और श्रवण करते हैं वे सभी पापों से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं.
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