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नई दिल्ली : 27 साल यूपी बेहाल से यू-टर्न लेते हुए 'यूपी को ये साथ पसंद है' के साथ आगे बढ़ना सपा के साथ कांग्रेस के लिए अब तक का सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जिस तरह की 'मोदी लहर' चली उसमें कांग्रेस पार्टी 10 सीटों के अंदर सिमटती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में जब राहुल गांधी खाट पंचायत के साथ उतरे थे तो उस समय कांग्रेस ने नारा दिया था- 27 साल यूपी बेहाल। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में 27 साल से सत्ता से बाहर है। इस दरम्यान बसपा, सपा, भाजपा की सरकार बनती रही और उत्तर प्रदेश विकास के मानचित्र पर लगातार पिछड़ता गया। करीब 25 दिनों के अभियान को कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने काफी आक्रामक अंदाज में लीड किया था। उसके बाद काफी समय तक पार्टी की तरफ से प्रदेश में कोई सक्रियता नहीं दिखी।
इसी बीच समाजवादी पार्टी में सत्ता के लिए पारिवारिक अंतरकलह तेज हो गई। एक बार लगा कि अखिलेश को सपा से बाहर होना पड़ेगा, लेकिन येन-केन-प्रकारेण अखिलेश सपा और उसके सिंबल साइकिल को बचाने व कब्जाने में सफल रहे। पर नुकसान ये हुआ कि पिता मुलायम और चाचा शिवपाल का हाथ पार्टी के ऊपर से हट गया क्योंकि अखिलेश ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बुद्धिमानी दिखा दी।
अखिलेश यादव ने जब कांग्रेस को एक साथ आने का ऑफर दिया तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल को लगा कि अखिलेश के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में पार्टी की वापसी का रास्ता निकल सकता है। कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने 'यूपी को ये साथ पसंद है' का स्लोगन तैयार किया और पूरे धूम-धड़ाके से अखिलेश-राहुल की युवा जोड़ी को लांच कर दिया। इससे कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि जनता के सवाल '27 साल यूपी बेहाल का' क्या हुआ तो राहुल गांधी इसका कोई सटीक जवाब नहीं दे पाते थे।
जो राहुल गांधी कुछ महीने पहले तक हर लोकसभा क्षेत्र में दलित नेतृत्व उभारने के लिए दिल्ली की कार्यशाला में गंभीर चिंतन करते नजर आते थे, 'यूपी को ये साथ पसंद है' में शामिल होकर ऐसी पार्टी का दामन थाम लिया जिसने पदोन्नति पा चुके दलितों को बाकायदा पदावनत कर दिया था। ये अलग बात है कि इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर किया गया, लेकिन कांग्रेस आलाकमान के दलित हितैषी की बात पर किसी का भरोसा बन नहीं पाया।
गठबंधन इतना बेमेल रहा कि अखिलेश यादव ने बड़ा दिल दिखाते हुए बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का सम्मान करते हुए 105 सीटें कांग्रेस को दे दीं। हालत ऐसी हो गई कि दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर उसे सपा से ही कैंडिडेट लेकर अपने सिंबल पर चुनाव लड़ाने पड़े। राहुल जिस अमेठी लोकसभा सीट से सांसद हैं वहां भी दोनों पार्टी के उम्मीदवार मैदान में ताल ठोकते नजर आए। सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र राय बरेली में भी गठबंधन में एक राय नहीं बन पाई।
इस तरह की स्थितियों से कांग्रेस कार्यकर्ता बेहद आहत थे और जमानी स्तर पर माहौल बनाने का जो काम कार्यकर्ता करते हैं उसपर ग्रहण लग गया। कार्यकर्ता इस बात को लेकर भी नाराज थे कि उन्हें दरकिनार कर पार्टी के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की टीम के लोग कैंपेन को हैंडल करते थे। पूरे कैंपेन में कार्यकर्ता उपेक्षित रहे। बुनियादी सुविधाओं के नाम पर उन्हें कुछ भी नहीं मिलता था।
कहने का मतलब यह कि राहुल गांधी के नेतृत्व में अगर कांग्रेस '27 साल यूपी बेहाल' नारे के साथ अकेले 403 सीटों पर चुनाव लड़ती और प्रियंका-सोनिया चुनाव प्रचार अभियान में हिस्सा लेतीं तो परिणाम शायद कुछ अलग होता। कांग्रेस को कम से कम इतनी बुरी हार का मुंह तो नहीं देखना पड़ता। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साह भी बढ़ता क्योंकि उनमें से अधिकांश को चुनाव लड़ने का मौका मिलता। कोई भी कार्यकर्ता पार्टी से इसी आस में जुड़ा रहता है कि एक दिन उसे पार्टी के लिए कुछ बेहतर करने का मौका मिलेगा। लेकिन कार्यकर्ताओं की इन उम्मीदों पर गठबंधन की अवसरवादी राजनीति पानी फेर देता है।
खाट पंचायत से उत्साहित कार्यकर्ता भी इस बात को लेकर काफी नाराज हुए कि जनता को कैसे समझाएं कि कल तक सपा का विरोध करने वाली पार्टी आज एक मंच पर आकर रोड शो और रैलियां कर रहे हैं। कहने का मतलब ये कि कांग्रेस पार्टी की छवि एक अवसरवादी पार्टी के रूप में उभरी। यूपी की जनता को ये लगा कि सपा-कांग्रेस गठबंधन प्रदेश के विकास के लिए नहीं बल्कि सत्ता में आने के लिए अवसरवादी गठबंधन है।