उत्तराखंड में प्राकृतिक बागेश्वर आपदा के चलते कई मकान खड़िया खनन के कारण खतरे में हैं. डैमेज कण्ट्रोल के लिए सरकार ने नीतियां तो कई बनाई हैं लेकिन खनन क्षेत्रों के दृश्य कुछ और ही मंजर बयां कर रहें हैं.
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हेमकांत नौटियाल/बागेश्वर: प्रकृति ज्ञान का समंदर है. हमारा सबसे बड़ा मित्र है, क्योंकि हम इस ग्रह पृथ्वी पर रहते हैं और इसके सभी क्षेत्रों में प्रकृति का सौंदर्य देखने को मिलता है. कुदरत के योगदान को हम कभी खारिज नहीं कर सकते. कुदरत ने अकूत खड़िया के भंडार दिये हैं. मगर अब यहीं भंडार पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा रहें हैं. प्राकृतिक आपदा के लिहाज से बागेश्वर बेहद संवेदनशील जिला है. बीते सालों में यहां भूस्खलन और जमीन खिसकने की घटनाएं बढ़ी हैं. खड़िया खनन से जहां पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है तो वहीं पर्यावरण के नियमों को ताक पर रखकर खनन कार्य किया जा है.
खड़िया खनन को कम करने की योजनायें
खड़िया खनन से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए कई योजनायें बनाई हैं. इसमें मानसून सीजन के दौरान खनन के आस पास पेड़ लगाने की भी एक योजना है. बागेश्वर में कई गांव और कई मकान खड़िया खनन के कारण खतरे में हैं. जिसमें माइन ऑनर को खनन क्षेत्रों के आस पास पेड़ लगाने के बाद ही खनन पोर्टल में एंट्री दी जाती है. लेकिन स्थानीय पर्यावरण प्रेमियों की माने तो अब तक मात्र 10 प्रतिशत भी पेड़ यहां नहीं लगे हैं.
धरातलीय हकीकत कुछ और ही बयां करती हैं
स्थानीय पर्यावरण प्रेमी प्रशासन द्वारा हर वर्ष खनन क्षेत्रों के आस पास हरियाली लाने की बात की जाती है. हर वर्ष पेड़ फ़ाइलों में तो लगते हैं लेकिन धरातलीय हकीकत कुछ और ही बयां करती हैं. गरीबी और मजबूरी की मार झेल रहे मजदूरों के साथ कोई हादसा होने पर पूरा मामला रफा-दफा कर दिया जाता है. प्रशासन अब भी पहाड़ और पर्यावरण को बचाने के बढ़े बढ़े खोखले दावे कर रहा है. बता दें, डैमेज कण्ट्रोल के लिए सरकार ने नीतियां तो कई बनाई हैं लेकिन खनन क्षेत्रों के दृश्य कुछ और ही मंजर बयां कर रहें हैं
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