आत्मनिर्भर भारत की मिसाल बने वाराणसी के युवा श्वेतांक पाठक, कर रहे हैं मोतियों की खेती
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आत्मनिर्भर भारत की मिसाल बने वाराणसी के युवा श्वेतांक पाठक, कर रहे हैं मोतियों की खेती

इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल तक का समय लगता है और तैयार मोती को पॉलिश कर बाजार तक पहुंचाया जाता है. श्वेतांक का यब बिजनेस 50 हजार रुपये से शुरू हुआ था, लेकिन अब 3 लाख रुपये तक पहुंच गया है.

 आकार देने के लिए इकट्ठा किए गए सीप.

नवीन पांडेय/वाराणसी: दिल में अगर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो सफर खुद-ब-खुद आसान हो जाता है. इस बात की मिसाल बने वाराणसी के श्वेतांक पाठक और उनके साथी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार कर रहे श्वेतांक ने कोरोना काल के बीच पारंपरिक खेती से अलग मोतियों की खेती शुरू की है, जिससे उनकी कमाई में तीन गुना इजाफा हुआ है. कोरोना के दौर में कई लोगों के रोजगार गए, लेकिन काशी के युवा श्वेतांक पाठक को अपने रोजगार की चिंता नहीं है, न ही इनके व्यापार पर कोरोना का कोई असर पड़ने वाला है. श्वेतांक अब गांव के हर युवा की प्रेरणा बन गए हैं. 

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ऐसे होती है मोती की खेती
शवेतांक पाठक वाराणसी के नारायणपुर गांव के रहने वाले हैं. उन्हें मोती की खेती करने की अनोखी प्रेरणा Youtube से मिली है. मोती बनाने के लिए पहले श्वेतांक नदियों से सीपियाँ लाते हैं और अपने घर के तालाब में उसे अलग-अलग और सुंदर आकार देकर रखते हैं. इन्होंने अपने घर में कृत्रिम तालाब बना रखा है. इसके साथ ही एक पुराना तालाब भी है जिसमें सीप जिंदा रखे जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल तक का समय लगता है और तैयार मोती को पॉलिश कर बाजार तक पहुंचाया जाता है. श्वेतांक का यब बिजनेस 50 हजार रुपये से शुरू हुआ था, लेकिन अब 3 लाख रुपये तक पहुंच गया है. श्वेतांक के बिजनेस ने ऐसी तेजी पकड़ी है कि गांव के अन्य युवा भी इनसे जुड़ रहे हैं.

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कम लागत में ज्यादा रिटर्न पाने की सोच से मिला ये आइडिया
श्वेतांक के साथी रोहित आनंद पाठक का कहना है कि वे कम भूमि में ज्यादा उत्पादन करने के तरीके ढूंढ रहे थे, जब उन्हें इंटरनेट पर मोती की खेती का पता लगा. इसमें कम लागत में करीबन तीन गुना रिटर्न मिल जाता है. ये आइडिया पसंद आते ही श्वेतांक, रोहित और अन्य साथियों ने मिलकर एक मुहिम शुरू की जहां उन्होंने इंटरनेट के ही माध्यम से ट्रेनिंग ले कर इस अनोखी खेती की शुरुआत की.

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