यूपी चुनाव में छोटे दलों की भूमिका होगी महत्वपूर्ण?
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यूपी चुनाव में छोटे दलों की भूमिका होगी महत्वपूर्ण?

यूपी चुनाव में छोटे दलों की भूमिका होगी महत्वपूर्ण?

जनसंख्या की दृष्टि से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है। हो भी क्यों न यह प्रदेश, राष्ट्रीय राजनीति में अहम योगदान निभाता है इसलिए यहां सभी राष्ट्रीय पार्टियां अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जीतोड़ कोशिश करती हैं लेकिन कई दशकों से यहां समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी का दबदबा चला आ रहा है। इस विधानसभा चुनाव में उसे तोड़ने के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कमर कर मैदान में डटी हुई है। उधर कांग्रेस भी इस बार यूपी की सत्ता में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहती है इसलिए सपा के गठबंधन कर लिया है। इस सियासी दाव पेंच में कभी-कभी छोटे दलों की अहम भूमिका हो जाती है।    

सत्ता में हिस्सेदारी और विधानसभा में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए छोटे दलों ने फिर कमर कस ली है। बड़े दलों से समझौता, आपसी गठबंधन और मोर्चा बनाकर विधानसभा के महासमर में कूद चुकी है। अपने लक्ष्य ओर उड़ान के लिए सबकी तैयारी दिख रही है लेकिन यह कितनी परवान चढ़ेगी कह पाना मुश्किल है। पिछली बार कौमी एकता दल (कोएद) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) एक साथ, जबकि अपना दल और पीस पार्टी एक गठबंधन से चुनाव में उतरे थे। इस बार मुख्तार अंसारी ने अपनी पार्टी कोएद को बहुजन समाज पार्टी में विलय कर दिया, इससे पहले समाजवादी पार्टी में विलय का प्रयास किया था। पिछले चुनाव में पीस पार्टी को चार, अपना दल को एक और कौमी एकता दल को दो सीटें मिली थीं। वहीं, सुभासपा का खाता तक नहीं खुल पाया था। इत्तेहाद-ए-मिल्लत कौंसिल (आइइएमसी) को एक सीट मिली थी। महान दल ने कांग्रेस के साथ साझेदारी की थी, जबकि प्रगतिशील मानव समाज पार्टी (पीएमएसपी) ने भी चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।

पिछली बार 37 सीटों पर लड़ी प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के प्रेमचंद बिंद ने बाहुबली एमएलसी बृजेश सिंह और पूर्व मंत्री राकेश धर त्रिपाठी को चुनाव मैदान में उतारा था और दोनों दूसरे स्थान पर रहे थे। इस बार ये शूरमा बिंद के साथ नहीं हैं लेकिन, बिंद का मोर्चा सक्रिय हो गया है। अब बिंद ने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के कुंवर देवेन्द्र सिंह लोधी, जनवादी सोशलिस्ट के डॉ. संजय सिंह चौहान, जय हिंद समाज पार्टी के नंदलाल निषाद और राष्ट्रीय समानता दल के मोतीलाल शास्त्री आदि का गठबंधन कर 403 सीटों पर लड़ रही है।

चुनावी लिहाज से देखें तो इस बार समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। सुभासपा भाजपा के पाले में चली गई है। अपना दल का अनुप्रिया पटेल वाला धड़ा भाजपा के साथ है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) भी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ रही है। 
ओवैसी ने यूपी के खूब दौरे किए और अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। एआईएमआईएम के लखनऊ प्रभारी साजिद हसमत ने कहा कि इस बार पार्टी का जनाधार बढ़ा है। पार्टी के मुखिया आवैसी ने बहुत सारे जलसे किए हैं और आगे भी कई जलसे आयोजित किए जाएंगे। पार्टी ने चुनाव के लिए रणनीति तैयार कर ली है और उसे उम्मीद से बेहतर सफलता मिलेगी। इस पार्टी ने मुसलमानों और दलितों को साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरने की रणनीति बनाई है। पीस पार्टी ने निषादों की पार्टी और महान दल से नाता जोड़कर चुनावी बिगुल बजा दिया है। पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब अहमद ने जातीय समीकरण दुरुस्त करने में हमेशा अपने हित पर ध्यान केंद्रित किया है। अयूब ने निषादों के नेता डॉ. संजय निषाद तथा मौर्य, कोइरी और कुशवाहा को जोड़कर बनाये गये महान दल के केशव देव मौर्य को लेकर किला फतह करने की तैयारी है। इनके अलावा पंजीकृत दलों की लंबी सूची है जो चुनाव घोषित होते ही सक्रिय हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश में 1996 में बसपा की राजनीति में उभरे ज्यादातर नेताओं ने बाद में अलग होकर अपनी पार्टी का गठन किया। उसके पहले भी राजनीतिक दल गठित होते रहे लेकिन उसका पैमाना व्यापक था। सियासत में बसपा के उभार के बाद ही छोटे दलों की बाढ़ आयी। दरअसल, बहुजन समाज के नारे को चरितार्थ करने के लिए कांशीराम ने जातीय क्षत्रपों को आगे बढ़ाया। बाद में इन्हीं क्षत्रपों ने बसपा से बगावत कर अपने-अपने दलों की नींव डाली। इसके दो बड़े उदाहरण हैं। बसपा से अलग होने के बाद डॉ. सोनेलाल पटेल ने अपना दल और ओमप्रकाश राजभर ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी बनाई और 2002 के चुनाव में इनकी भागीदारी ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था। इन्हें वोटकटवा के रूप में जरूर देखा गया लेकिन राजनीति के लिए फिर ये उदारहण बन गये। फिर तो जातीय क्षत्रपों के दलों का सिलसिला शुरू हो गया।

चुनाव में इन छोटे दलों का भले ही कोई खास महत्व न हो लेकिन कभी-कभी इनकी उपस्थिति बड़ी पार्टियों का खेल बिगाड़ देती है और सरकार गठन में अहम भूमिका निभाने लगती है हालांकि बड़े राजनीतिक दल भी इन पार्टियों पर नजर बनाए हुए हैं।

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