बाजीराव (Bajirao) की सेना ज्यादा तामझाम लेकर नहीं चलती थी. मुगलों पर हमला करने से पहले बाजीराव ने साहू जी को जवाब भेजा था- ‘पेड़ को काटने से शाखाएं कटती हैं जड़ें नहीं, मुझे जड़ काटनी है.’
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नई दिल्ली: 'बाजीराव मस्तानी' मूवी जब आई थी तो वो एक रोमांटिक मूवी बनकर रह गई. ऐसे में इतिहास के कई जानकार संजय लीला भंसाली से नाराज भी थे और खुश भी. नाराज इसलिए कि दुनियाभर के वॉरफेयर एक्सपर्ट्स ने जिस पेशवा बालाजी बाजीराव (Peshwa Balaji Bajirao) के बारे में पढ़ा था वो इतने आशिक मिजाज नहीं थे. वो तो एक ऐसे योद्धा थे जिनकी युद्ध तकनीक पर ब्रिटेन के फील्ड मार्शल मांटगोमरी ने शोध किया, जिन्हें हिटलर ने अपनाकर दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका की नाक में दम कर दिया. हालांकि वो खुश भी थे क्योंकि देश में गिने चुने लोग ही पेशवा बालाजी बाजीराव को जानते थे. मूवी आने के बाद देश का बच्चा-बच्चा बाजीराव को जानने लगा. 18 अप्रैल को उन्हीं बाजीराव की जयंती है.
ऐसे में आपके मन में भी जिज्ञासा होगी कि महज 19-20 साल की उम्र में पूरी मराठा सेना की कमान संभालने वाला लड़का हर 6 महीने में जंग लड़ता रहा और 39 साल की उम्र तक 40 युद्धों में वो एक भी नहीं हारा तो वजह क्या थी? उनकी खास तकनीक जिसे पश्चिमी वॉरफेयर एक्सपर्ट्स ‘ब्लिट्जक्रिग (Blitzkrieg)’ यानी बिजली की गति से तूफानी हमला करना कहते हैं.
बाजीराव ने कभी भी युद्ध में डिफेंस के सिद्धांत को नहीं माना वो आक्रमण करने को ही जीत का आधार मानते थे. आप एक-दो उदाहरणों से इसे समझ सकते हैं. ये 1727 की बात है उस वक्त कठपुतली मुगल बादशाह की कमान निजाम के हाथों में थी. उसने मराठा ताकत को झुकाने का फैसला लिया और छत्रपति साहू जी महाराज के खानदानी संभाजी से दोस्ती गांठी जो कोल्हापुर पर राज करता था. युद्ध अवश्यंभावी था लेकिन बाजीराव उन दिनों खानदेश में थे. साहू ने बाजीराव को फौरन सतारा लौटने को कहा लेकिन बाजीराव डिफेंस के बजाय अटैक में भरोसा करने वाले थे इसीलिए उन्होंने सतारा के बचाव के लिए आने से मना कर दिया. कई मराठा सरदार साथ छोड़ गए तो साहू सुरक्षा के लिए पुरंदर के किले में परिवार सहित चले गए. दूसरी तरफ निजाम सतारा की तरफ बढ़ रहा था.
बाजीराव की युद्धकला को समझिए
बाजीराव पहले गुजरात पहुंचे और मुगलों के इस इलाके पर कब्जा कर लिया. फिर मुगल गर्वनर भी बाजीराव से मिल गया. इसके बाद बाजीराव के लड़ाके मालवा की तरफ बढ़े और उस पर कब्जा कर लिया. अब निजाम का दिल्ली से कनेक्शन कट गया. अगला निशाना थी निजाम की उस वक्त की राजधानी औरंगाबाद और साथ में समृद्ध बुरहानपुर भी. इससे निजाम घबरा गया और पूना-सतारा का अभियान छोड़ वापस लौटने लगा. निजाम की सेना ने गोदावरी नदी पार करके औरंगाबाद की तरफ कूच किया तो पता चला कि बाजीराव तो दूसरी तरफ पहुंच चुके हैं. इसके बाद उसकी सेना कोनदी को दोबारा पार करना पड़ा जबकि बाजीराव के लिए मूवमेंट ही तो आसान काम था.
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बाजीराव की सेना ज्यादा तामझाम लेकर नहीं चलती थीं. उन्हें कहीं के लिए भी कूच करने में आसानी होती थी. यहां तक कि रसद भी वो रास्ते में ही लेते थे. बाजीराव ने होल्कर और शिंदे को दो तरफ से भेजकर निजाम की सप्लाई लाइन काट दी और खुद भागने के बजाय पलटकर निजाम की सेना पर आक्रमण करने के लिए निकल पड़े. फिर निजाम ने हथियार डाल दिए, इसे पालखेड़ की लड़ाई कहा जाता है. तब साहू ने संदेश भी भिजवाया कि डिफेंसिव रहो लेकिन बाजीराव ने जवाब भेजा, ‘पेड़ को काटने से शाखाएं कटती हैं जड़ें नहीं, मुझे जड़ काटनी है.’
दिल्ली पर भी बाजीराव ने इसी तरह हमला किया था, उन्होंने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली जाने के लिए मार्च शुरू किया. मुगल बादशाह ने आगरा के गर्वनर सआदत खां को निपटने का जिम्मा सौंपा. मल्हार राव होल्कर और पिलाजी जाधव की सेना यमुना पार करके दोआब में आ गई. सआदत खां मराठों से खौफ में था, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली. मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी लेकिन उनकी रणनीति बहुत दिलचस्प थी. इधर मल्हार राव होल्कर ने रणनीति पर अमल किया और मैदान छोड़ दिया. इसके बाद सआदत खां ने डींगें मारते हुआ अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह तक पहुंचा दिया और खुद मथुरा की तरफ चला गया.
बाजीराव को पता था कि इतिहास उनके बारे में क्या लिखेगा इसीलिए उन्होंने सआदत खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची. उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्याल भी दिल में ला सके. उस वक्त मुगलों और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़ कर बोलता था लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब मुगलों की जड़ यानी दिल्ली पर हमला होगा. सारी मुगल सेना आगरा, मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक आ गए. आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया. हमला करने के लिए बाजीराव ने दस दिन की दूरी 48 घंटे में पूरी की वो भी बिना रुके और बिना थके. देश के इतिहास में अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं. एक अकबर का गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर फतेहपुर से वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला करना.
बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया. मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया कि उसने खुद को लाल किले के सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका व आमिर खान की अगुआई में आठ से दस हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेज दिया. बाजीराव के लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी. मराठा ताकत के लिए 28 मार्च 1737 का दिन सबसे बड़ा दिन था. कितना आसान था बाजीराव के लिए लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी.
वो तीन दिन तक वहीं रुके. एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता थे. वो तीन दिन तक वहीं डेरा डाले रहे. पूरी दिल्ली उस वक्त एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी, उसके बाद बाजीराव वापस लौट गए. बुरी तरह बेइज्जत हुए मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी. निजाम मुगल पुराना वफादार था, वो मुगल हुकूमत की इज्जत को बिखरते हुए नहीं देख सका. फिर निजाम दक्कन से निकल पड़ा. इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों एमपी के सिरोंजी में मिले लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उसको केवल इतना बताया कि मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है.
फिर निजाम दिल्ली आया और कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाया. उन सभी ने बाजीराव को बेइज्जती करने का दंड देने का संकल्प लिया और कूच कर दिया. लेकिन बाजीराव से बड़ा कोई दूरदर्शी योद्धा उस काल खंड में कोई दूसरा पैदा नहीं हुआ था. ये बात साबित भी हुई क्योंकि बाजीराव खतरा भांप चुके थे. अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ दस हजार सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर वो अस्सी हजार सैनिकों के साथ फिर दिल्ली के लिए निकल पड़े. इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था ताकि फिर सिर ना उठा सकें.
दिल्ली से निजाम के अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी. दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं. 24 दिसंबर 1737 का दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया. निजाम की समस्या ये थी कि वो अपनी जान बचाने के चक्कर में जल्द संधि करने के लिए तैयार हो जाता था. इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई. मालवा मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने पचास लाख रुपये बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे. चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए. ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत.
ब्लिट्जक्रिग (Blitzkrieg) तकनीक क्या है
ब्लिट्जक्रिग तकनीक के तहत दुश्मन की सेना के केवल एक भाग पर फोकस किया जाता था. पूरी ताकत उसी भाग पर अटैक करने पर लगाई जाती थी. दुश्मन ये अनुमान नहीं लगा पाता था कि हमला कहां से होगा और इसीलिए खौफ में रहता था. बाद में हिटलर ने इस तकनीक से कई युद्ध जीते, इजराइल भी अरब देशों के खिलाफ यही तकनीक आजमाता रहा है लेकिन इस तकनीक को अपनाना हर किसी के बस की बात नहीं है. इसके लिए आप में बचाव से ज्यादा आक्रमण करने की हिम्मत होनी चाहिए. बाजीराव तो भागते-भागते मुड़कर पूरे दम से पीछा करती शत्रु सेना पर हमला करते थे, ऐसा जिगर भी तो किसी में होना चाहिए. इसके लिए सेना को गतिशील बनाने के लिए तोप, भारी ढालें और यहां तक कि रसद भी आपकी गति रोक सकती हैं तो उनसे छुटकारा पाना भी जरूरी होता है जो बाकी योद्धा नहीं कर पाते थे.
द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर’ में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की और लिखा कि बाजीराव कभी हारा नहीं. आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है.
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