नोटों पर क्यों छपती है महात्मा गांधी की तस्वीर? बहुत कम लोग जानते हैं ये असली वजह
Advertisement
trendingNow11251009

नोटों पर क्यों छपती है महात्मा गांधी की तस्वीर? बहुत कम लोग जानते हैं ये असली वजह

Zee News Time Machine: क्या आप जानते हैं कि रामविलास पासवान कभी DSP हुआ करते थे. बिहार के खगड़िया जिले के शहरबन्नी में जन्मे रामविलास पासवान 1969 में राजनीति में आए.

नोटों पर क्यों छपती है महात्मा गांधी की तस्वीर? बहुत कम लोग जानते हैं ये असली वजह

Time Machine on Zee News: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में हम आपको बताएंगे साल 1969 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये वही साल था जब भारत 22 साल का हो चुका था. इसी साल डीएसपी की नौकरी छोड़कर राम विलास पासवान ने राजनीति के अखाड़े में कदम रखा था. इसी साल इसरो की स्थापना की गई थी. ये वही साल है जब देश को अपनी पहली राजधानी ट्रेन मिली. इसी साल से भारतीय नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर छपना शुरू हुई थी. आइये आपको बताते हैं साल 1969 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.

DSP की नौकरी छोड़ नेता बने पासवान!

लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान ने राजनीति के करियर में बुलंदियों को छुआ. आज वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वो जबतक रहे. देश के उन नेताओं में शामिल रहे, जिन्हें राजीनित के शतरंज का बेहतरीन खिलाड़ी कहा गया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि रामविलास पासवान कभी DSP हुआ करते थे. बिहार के खगड़िया जिले के शहरबन्नी में जन्मे रामविलास पासवान 1969 में राजनीति में आए. लेकिन इससे पहले वो डीएसपी हुआ करते थे. 1969 में उनका चयन डीएसपी पद के लिए हुआ. सबकुछ सही चल रहा था. लेकिन उन्हें पुलिस सेवा में शायद नहीं जाना था इसलिए डीएसपी जैसे पद को छोड़कर पासवान संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर एमएलए बने और उसके बाद राजनीति में उन्होंने शौहरत कमाई.

पटरी पर दौड़ी 'राजधानी'!

भारतीय रेल, जो आज पूरे देश में फैली हुई है. अलग-अलग शहरों को एक दूसरे से जोड़ने वाली भारत में रेल आजादी से पहले से ही मौजूद थी. लेकिन इस सबके बीच एक फास्ट यानी तेज गति की ट्रेन की अभी भी दरकार थी. इस कमी को पूरा करने वाली ट्रेन आई, जिसका नाम था राजधानी एक्सप्रेस. लेकिन क्या आप जानते हैं कि, आपके सफर को आसान बनाने वाली भारतीय रेल की जान कही जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस ने कब से पटरी पर अपना सफर शुरू किया था. 1 मार्च, 1969 को राजधानी एक्सप्रेस पटरी पर उतरी. तत्कालीन रेल मंत्री राम सुभाग सिंह ने राजधानी पर फूलों की माला चढ़ाकर, इसे चलने के लिए हरी झंडी दिखाई. जिसके बाद, ये 120 किमी प्रति घंटा की स्पीड से नई दिल्ली से कोलकाता के हावड़ा स्टेशन पर पहुंची. इसने पहले 24 घंटे में तय किये जाने वाले सफर को 17 घंटे में खत्म कर दिया. राजधानी एक्सप्रेस को बनाने के लिए रेल मंत्रालय ने उस समय 65 लाख की बड़ी राशि खर्च की थी. उस दौरान, राजधानी एक्सप्रेस में सफर करने के लिए लोगों को चेयर कार के लिए 90 और स्लीपर क्लास के 290 रुपये का भुगतान करना पड़ता था. अपने शुरुआती समय में यह सिर्फ तीन स्टेशनों पर ही रुका करती थी, जिसमें कानपुर, मुग़लसराय और गोमोह शामिल थे. बस यहीं से यह यात्रियों और देश का दिल जीतने में कामयाब हो गई. राजधानी एक्सप्रेस बन गई भारतीय रेल की जान.

इंदिरा की वजह से 4 दिन बंद रहे बैंक

19 जुलाई 1969 वो तारीख है, जब उस वक्त देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. उस वक्त इंदिरा गांधी ने एक ओर्डिनेंस को तैयार किया. ‘बैंकिंग कम्पनीज आर्डिनेंस’ नाम के इस ऑर्डिनेंस के जरिए देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. इस फैसले को इंदिरा गांधी द्वारा लिए गए बड़े फैसलों में गिना जाता है. इंदिरा के इस कदम से एक तरफ तो वो गरीबों की मसीहा बनकर उभरीं. इंदिरा का कहना था कि बैंकों को ग्रामीण क्षेत्रों में ले जाना जरूरी है. निजी बैंक देश के सामाजिक विकास में अपनी भागीदारी नहीं निभा रहे हैं. इसलिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण जरूरी है. इंदिरा गांधी के इस फैसले के बाद देश में 4 दिन तक बैंक बंद रहे थे. वहीं इंदिरा गांधी ने जिन 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, उनके पास उस वक्त देश की करीब 80 फीसदी जमा पूंजी थी, लेकिन इस पूंजी का निवेश केवल ज्यादा लाभ वाले क्षेत्रों में ही किया जा रहा था. इंदिरा के इस फैसले का तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने विरोध किया. इसके बाद इंदिरा ने मोरारजी देसाई का मंत्रालय बदलने का आदेश दे दिया. इससे नाराज होकर मोरारजी देसाई ने वित्त मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. 19 जुलाई 1969 को इंदिरा ने एक अध्यादेश जारी किया और 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया.

चंडीगढ़ पर कुर्बान, दी जान!

देश की आजादी के बाद भी कुर्बानियों का सिलसिला जारी रहा. कई ऐसे क्रांतिकारी आए जिन्होंने अपने प्राणों की आहूति दी और इन्हीं में से एक थे स्वतंत्रता सेनानी दर्शन सिंह फेरूमान. 1969 में 84 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी दर्शन सिंह फेरूमान ने लगातार 74 दिनों तक अनशन करके प्राण त्याग दिए थे. उनकी मांग थी कि चंडीगढ़ को राजधानी बनाया जाए. इसके लिए उन्होंने 74 दिनों तक लगातार अनशन किया. लेकिन फिर भी चंडीगढ़ और पंजाबी भाषा वाले क्षेत्र को पंजाब में मिलाने की उनकी मांग पूरी नहीं हो सकी. उनके अनुसार, 1966 में गठित पंजाबी सूबे के निर्माण का वो अधूरा एजेंडा था, पर फेरूमान की मांग हरियाणा के कड़े विरोध के कारण पूरा न हो सकी. केंद्र सरकार ने भी इस मामले में पंजाब की इस मांग को पूरा करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया. राज्य पुनर्गठन के बाद मौजूदा पंजाब प्रांत का निर्माण सन 1966 में हुआ था. भारत के बंटवारे से पहले लाहौर अविभाजित पंजाब की राजधानी था. देश के विभाजन के बाद कुछ समय तक भारत के पंजाब की राजधानी कहीं और रही. इस बीच प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चंडीगढ़ को सुंदर ढंग से बसाने में विशेष रूचि ली.

नोटों पर छपी गांधी जी की तस्वीर

आपकी जेब में रखे नोटों की बदलती हुई तस्वीर को आपने अबतक कई बार देखा है. लेकिन इन नोटों से एक चीज नहीं बदली है. वो है इस पर छपी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर. लेकिन क्या आप जानते हैं कि नोटों पर गांधी जी की तस्वीर के छपने के पीछे की वजह क्या है. और कब से नोटों पर गांधी जी की तस्वीर छपी. सबसे पहले महात्मा गांधी की तस्वीर भारतीय नोट पर सन 1969 में आई थी. यह साल उनका जन्म शताब्दी का था. इन नोटों पर गांधी जी की तस्वीर के पीछे सेवाग्राम आश्रम भी था. जब पहली बार गांधी जी की तस्वीर नोट पर छपी तब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और एलके झा आरबीआई के गवर्नर हुआ करते थे. इसके बाद RBI द्वारा वक्त, वक्त पर बदलाव हुए और बदलते नोटों पर छपी गांधी जी की ये तस्वीर उस समय खींची गई, जब गांधी जी ने तत्कालीन बर्मा (म्यांमार) और भारत में ब्रिटिश सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत फ्रेडरिक पेथिक लॉरेंस के साथ कोलकाता स्थित वायसराय हाउस में मुलाकात की थी. इसी तस्वीर से गांधीजी का चेहरा पोट्रेट के रूप में भारतीय नोटों पर अंकित किया गया

राजेश खन्ना ने खरीदा बंगला

राजेश खन्ना और राजेंद्र कुमार हिंदी सिनेमा के वो दिग्गज सितारे थे जिन्होंने सालों तक अपनी फिल्मों के जरिए लोगों का दिल जीता और उनका मनोरंजन किया. लेकिन इन्हीं दोनों से जुड़ा है एक बंगले का किस्सा. जिसे कभी भुतहा बंगला कहा जाता था. दरअसल करियर में कई फिल्में करने वाले राजेंद्र कुमार को 60 के दशक में थोड़ी और अच्छी पहचान बनानी थी. इसी बीच उन्हें  घर की तलाश थी. तो उन्हें एक बंगला पसंद आया. हालांकि बंगले को लेकर अफवाहें थी कि वो बंगला भुतहा है. समंदर किनारे बंगला देखने के बाद उन्‍होंने किसी की नहीं सुनी और जैसे-तैसे वह बंगला खरीद लिया. बंगले का नाम डिंपल रखा. और ये बंगला उनके लिए गुडलक साबित हुआ और करियर सुपरहिट हो गया. फिर इसके बाद 1969 में राजेश खन्‍ना ने राजेंद्र कुमार का यही बंगला खरीद लिया. राजेंद्र कुमार ने शर्त रखी कि राजेश खन्‍ना को बंगले का नाम बदलना होगा. राजेश खन्‍ना ने इस बंगले का नाम 'आशीर्वाद' रखा. राजेश खन्ना ने राजेन्द्र को बंगला खरीदते हुए कहा था कि आप पहले से ही अपने करियर की उंचाई पर हैं और मैं अभी इंडस्ट्री में अपनी शुरुआत कर रहा हूं. मेरी जिंदगी बदल जाएगी, अगर मैं आपका बंगला खरीद लूंगा, आखिर ये बंगला सबसे बड़े स्टार का जो है.

ISRO की स्थापना

ISRO यानि Indian Space Research Organization जिसने बदलते भारत की तस्वीर में एक बड़ा योगदान दिया. वो साल था 1969 का जब इसरो की स्थापना हुई. ISRO की स्थापना 12 अगस्त 1919 को हुई. डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई ने इसरो की नींव रखी. इसरो का गठन 1969 में ग्रहों की खोज और अंतरिक्ष विज्ञान अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय विकास में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि से किया गया था. इसरो का काम अन्तरिक्ष में लॉन्च होने वाला व्हीकल सिस्टम और साउंडिंग राकेट का पूरा डिजाइन बनाने, उनके विकास करने और उन्हें ठीक तरह से अन्तरिक्ष में लांच करने का काम इसरो का होता है. 19 अप्रैल, 1975 को देश ने अपना पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट रूस की मदद से लॉन्च किया. भारत में इसरो के कुल 20 सेंटर है.

आर्मस्ट्रॉन्ग के लिए रातभर जागीं इंदिरा

20 जुलाई 1969 ये वो तारीख है, जब चांद पर पहली बार किसी मनुष्य ने कदम रखा. वो थे नील आर्मसट्रॉन्ग, इस मिशन की सफलता के बाद आर्मस्ट्रांग ने एल्ड्रिन के साथ दुनिया के तमाम देशों का दौरा किया और वो उस वक्त भारत भी आए. नील आर्मस्ट्रॉन्ग भारत आने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिले. इंदिरा गांधी नील आर्मस्ट्रॉन्ग की उपल्बिध से इतनी प्रभावित थीं. यही वजह है कि वो नील आर्मस्ट्रॉन्ग के चांद पर उतरने का इंतज़ार कर रही थीं. 20 जुलाई 1969 की रात इंदिरा सुबह 4.30 बजे तक जागती रहीं. जब आर्मस्ट्रांग दिल्ली आए तो इंदिरा गांधी और पूर्व विदेशमंत्री नटवर सिंह वहीं मौजूद थे. नटवर सिंह की किताब के मुताबिक, आर्मस्ट्रांग दिल्ली आए तो उस मुलाकात के दौरान नटवर सिंह भी साथ थे. इंदिरा गांधी के इशारे पर उन्होंने आर्मस्ट्रांग को बताया, मिस्टर आर्मस्ट्रांग, आपकी ये जानने में दिलचस्पी होगी कि प्रधानमंत्री सुबह 4.30 बजे तक जागती रही थीं, क्योंकि वो चंद्रमा पर आपके उतरने के क्षण से चूकना नहीं चाहती थीं. इस पर आर्मस्ट्रांग ने बहुत विनम्रता से कहा, 'मैडम प्रधानमंत्री, आपको हुई असुविधा के लिए मैं खेद व्यक्त करता हूं. अगली बार, मैं सुनिश्चित करूंगा कि जब हम चंद्रमा पर उतरें तो आपको इतना न जागना पड़े.' इंदिरा हैरान थीं कि इतना बड़ा शख्स कितना विनम्र है. बाद में इंदिरा ने आर्मस्ट्रॉन्ग की तारीफ की और उनका शुक्रिया किया. इस किस्से की पूरी दुनिया में चर्चा हुई.

कैसे घर-घर पहुंचा 'निरमा'

आपको जानकर हैरानी होगी कि घर के आंगन से शुरू हुआ निरमा कैसे सबकी पसंद बना. 1969 में  अहमदाबाद में रहने वाले करसनभाई पटेल ने इसकी शुरुआत की. वो अहमदाबाद में अपने घर के पीछे सोडा ऐश के साथ कुछ अन्य सामग्रियां मिलाकर वॉशिंग पाउडर बनाने की कोशिश करने लगे. एक दिन उनकी कोशिश कामयाब हुई और पीले रंग का डिटर्जेंट बनकर तैयार हो गया. यह फॉस्फेट फ्री सिंथेटिक डिटर्जेंट पाउडर था. उस वक्त भारत में आम लोगों के पास वॉशिंग पाउडर को लेकर ज्यादा विकल्प नहीं थे. उस दौर में दाम ज्यादा होने के कारण दूसरे ब्रांड मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवार की पहुंच से दूर थे. ऐसे में लोग साबुन का इस्तेमाल करते थे, जिससे हाथ खराब होने का डर रहता था. करसनभाई ने इस कमी को मौके की तरह भुनाया. काम से लौटकर वो घर-घर जाकर अपना डिटर्जेंट निरमा बेचने लगे. वो अपनी साइकिल पर रखकर इसे घर-घर बेचा करते थे. इतना ही नहीं यह गारंटी भी देते थे कि अगर डिटर्जेंट पाउडर सही नहीं निकला तो पैसे वापस कर देंगे. बस देखते-देखते ये ब्रांड बन गया. यही नहीं उन्होंने इसका नाम अपनी बेटी निरुपमा के नाम पर रखा. करसन भाई अपनी बेटी को बहुत ज़्यादा प्यार करते थे और उसे प्यार से निरमा कहकर बुलाते थे. लेकिन उनकी बेटी निरुपमा का छोटी सी उम्र में निधन हो गया. ऐसे में उन्होंने निरमा नाम से वॉशिंग पाउडर ब्रांड की शुरुआत की और उसके पैकेट पर अपनी बेटी की तस्वीर छपवा दी.

सलाखों में कैद महाराष्ट्र का 'शेर'

60 का दशक शिवसेना के लिए सूर्योदय के समान था. ये वो दौर था जब बालासाहब ठाकरे यानि बाल ठाकरे अपने भाई के साथ मिलकर शिवसेना की नींव रख रहे थे. लेकिन कई 3 वजहें ऐसी थीं. जिनसे बाल ठाकरे को बहुत डर लगता था. और इनमें से एक थी जेल की सलाखें. हिंदू हृदय सम्राट-हाउ द सेना चेंज्ड मुंबई फारएवर नाम की किताब के मुताबिक, साल 1969 में बाल ठाकरे ने मांग की थी कि केंद्र बेलगाम की सीमा को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप करे, जिसे मैसूर राज्य में  शामिल किया गया था. इसके बाद बात बिगड़ती गई. फिर उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री यशवंतराव चव्हाण  और उपप्रधानमंत्री मोरारजी देसाई दोनों के खिलाफ विरोध करने की धमकी दी. इसी बीच तत्कालीनन उप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मुंबई आए हुए थे तो  शिवसैनिकों ने उनके काफिले पर हमला किया  और काफी तोड़फोड़ भी की. इसके बाद बाल ठाकरे की 9 फरवरी 1969 में गिरफ्तारी हुई. वो अदालत में पेश हुए और फिर उन्हें तीन महीने के लिए जेल भेज दिया गया.

ये ख़बर आपने पढ़ी देश की सर्वश्रेष्ठ हिंदी वेबसाइट Zeenews.com/Hindi पर

यहां देखें VIDEO:

Trending news