नई दिल्‍ली: समाजवादी पार्टी के अध्‍यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ गठबंधन कर उत्‍तर प्रदेश की त्रिकोणीय राजनीति को आर-पार की लड़ाई में बदल दिया है. 1995 में हुए गेस्‍ट हाउस कांड के बाद किसी ने सपने भी नहीं सोचा था कि ये दोनों राजनैतिक दल कभी एक साथ फिर चुनाव लड़ेंगे. 


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पूर्व मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव ने बसपा के साथ यह गठबंधन कर न केवल लोगों की इस सोच को नकार दिया, बल्कि करीब ढाई दशक से चली आ रही दुश्‍मनी पर भी सियासी मिट्टी डाल दी है. फिलहाल, दोनों राजनैतिक दल बीते चुनावों में मिले मतों के जोड़ को आधार बनाकर आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी जीत का  मजबूत दावा कर रहे हैं. 


मायावती और अखिलेश का यह दावा कितना पुख्‍ता है इसका फैसला तो लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद ही होगा.


इन परिस्थितियों में नहीं मिलेगा गठबंधन को फायदा
लोकसभा चुनाव 2014 में बीएसपी एक भी सीट जीत पाने में असफल रही, लेकिन इस चुनाव में उसके उम्‍मीदवार 19 फीसदी से अधिक वोट हासिल करने में सफल रहे थे. इसी तरह, बीते लोकसभा चुनाव में सपा को सिर्फ 5 सीटों पर जीत मिली थी. इस चुनाव में सपा के उम्‍मीदवारों को करीब 22 फीसदी वोट मिले थे. 


लोकसभा चुनाव 2014 में सपा और बसपा को कुल 41.8 फीसदी वोट मिले थे. यह बीजेपी को मिले मतों से करीब आधा फीसदी कम है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42.32 फीसदी वोट मिले थे. अगर लोकसभा चुनाव 2019 में भी मतदाताओं का रुझान बीते चुनाव जैसा रहा तो जिस मकसद से बीएसपी और सपा का गठबंधन हुआ है, वह मकसद पूरा नहीं हो सकेगा.


यूपी विधानसभा चुनाव में मिली नई उम्‍मीद 
उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 के नतीजे सपा और बसपा के लिए बेहद निराशाजनक थे. इस चुनाव में बीजेपी प्रदेश में बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही थी. इस चुनाव में सपा का वोट 22.18 फीसदी से गिरकर 21.82 तक पहुंच गया. वहीं बसपा अपना वोट 2.61 फीसदी बढ़ाने में कामयाब रही. 


इस चुनाव में दोनों दलों को मिला वोट प्रतिशत बीजेपी से 4.38 फीसदी अधिक हो चुका था. इस चुनाव के बाद सपा-बसपा को समझ में आ चुका था कि एक हुए बिना बीजेपी को उत्‍तर प्रदेश में हराना आसान नहीं होगा. बीजेपी को सत्‍ता से बेदखल करने के लिए दोनों दल पुरानी दुश्‍मनी को भुलाकर साथ आ खड़े हुए.  



ये बढ़ा सकते हैं सपा-बसपा की मुश्किलें
सपा की राजनीति को करीब से देखने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार विनीत मिश्र के अनुसार,  इस गठबंधन ने सपा और बसपा को सूबे में मजबूत किया है. लेकिन, अभी भी उत्‍तर प्रदेश की राजनीति में ऐसे कारक मौजूद हैं, जो इस गठबंधन के लिए मुसीबत बन सकते हैं. इन कारकों में सबसे अहम हैं पूर्व मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव. 


विनीत मिश्र के अनुसार, मुलायम सिंह के जमाने में शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी का जमीनी स्‍तर पर काम देखते थे. जिसके चलते, आज भी उनकी मजबूत पकड़ सपा के वर्चस्‍व वाले आधा दर्जन से अधिक संसदीय क्षेत्रों में बनी हुई है. वहीं, आगामी चुनावों में बीएसपी और सपा 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले हैं. ऐसे में टिकट न मिलने से नाराज उम्‍मीदवार सपा और बसपा के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं.


इन इलाकों में शिवपाल देंगे कड़ी चुनौती 
उत्‍तर प्रदेश की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले एक अन्‍य वरिष्‍ठ पत्रकार के अनुसार, शिवपाल सिंह यादव का वर्चस्‍व आज भी एटा, मैनपुरी, इटावा, फरुखाबाद, फिरोजाबाद और कन्‍नौज सीट पर बना हुआ है. शिवपाल सिंह यादव उन उम्‍मीदवारों को अपने पाले में लाकर अखिलेश और मायावती की परेशानियां बढ़ा सकते हैं, जो सपा से टिकट न मिलने के चलते खफा हो सकते हैं. 


इसके अलावा, शिवपाल सिंह यादव खुद फिरोजाबाद से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं.वर्तमान समय में इस सीट से प्रो. रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव सांसद हैं. माना जा रहा है कि फिरोजाबाद सीट पर शिवपाल सिंह यादव की पकड़ बहुत मजबूत है. इस सीट पर शिवपाल सिंह यादव को हराना अक्षय यादव के लिए बहुत चुनौती भरा होगा. इसके अलावा, मैनपुरी सीट से मुलायम सिंह यादव के चुनाव न लड़ने पर शिवपाल ने अपना उम्‍मीदवार खड़ा करने की बात कही है.  


संगठित मुस्लिम वोट कितना फायदेमंद 
सपा-बसपा के गठबंधन का भविष्‍य पूरी तरह से सं‍गठित मुस्लिम वोट पर टिका हुआ है. दोनों दलों का मानना है कि गठबंधन के जरिए सपा और बसपा में बंटने वाले मुस्लिम वोट बैंक को एक किया जा सकेगा. उल्‍लेखनीय है कि उत्‍तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं की संख्‍या करीब 20 फीसदी है. उत्‍तर प्रदेश की आठ-नौ संसदीय सीटें ऐसी हैं, जहां पर मुस्लिम वोटर की संख्‍या 35 से 50 फीसदी के बीच है.


मुस्लिम बाहुल्‍य वाले संसदीय क्षेत्रों में रामपुर, मुरादाबाद, अमरोहा, नगीना, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, श्रावस्‍ती और मेरठ शामिल हैं. सपा-बसपा में गठबंधन के बाद इन सभी संसदीय क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता निर्णायक साबित होंगे. सूत्रों के अनुसार, मुजफ्फरनगर का मुस्लिम मतदाता भले ही सपा से नाराज हो, लेकिन बसपा के साथ में आने से गठबंधन के उम्‍मीदवार की जीत पक्‍की हो सकती है.    


भारी न पड़ जाए है आजम खान का विरोध
सपा-बसपा के गठबंधन के बाद मायावती और अखिलेश भले ही अपनी जीत के लिए आश्‍वस्‍त दिख रहे हों, पर गठबंधन को लेकर पार्टी के भीतर मौजूद विरोध जीत की राह को मुश्किल कर कसता है. इस गठबंधन का विरोध करने वालों में सपा के कद्दावर नेता आजम खान का नाम भी शामिल हैं. सुगबुगाहट है कि गठबंधन को लेकर आजम खान की नाराजगी चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं. 


इस तरह बीजेपी को मिल सकता है फायदा 
सूत्रों के अनुसार, आगामी लोकसभा चुनाव 2019 में बसपा और सपा उत्‍तर प्रदेश की 38-37 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है. गठबंधन की घोषणा होने के बाद सपा और बसपा के नेता गठबंधन का उम्‍मीदवार बनने की होड़ में लग गए हैं. ऐसे में बीजेपी की निगाह ऐसे उम्‍मीदवारों पर है, जिनके टिकट कट सकते हैं. सपा और बसपा के बागी उम्‍मीदावारों को बीजेपी डमी उम्‍मीदवार के तौर पर चुनाव में उतार कर परिणाम बदल सकती है.