नवरात्र और वास्तु का आपसी रिश्ता

नवरात्र में यूं तो मां दुर्गा की अराधना पूरे विधि-विधान से की जाती है। लेकिन इस दौरान देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की अराधना के वक्त अगर वास्तु सम्मत कुछ बातों को ध्यान में रखा जाएं तो अराधना के फल में अतिशय वृद्धि होती है।

मनोज जैन

नवरात्र में यूं तो मां दुर्गा की अराधना पूरे विधि-विधान से की जाती है। लेकिन इस दौरान देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की अराधना के वक्त अगर वास्तु सम्मत कुछ बातों को ध्यान में रखा जाएं तो अराधना के फल में अतिशय वृद्धि होती है।
वास्तु में ईशान कोण को देवताओं का स्थल बताया गया है, इसलिए नवरात्र काल में माता की प्रतिमा या कलश की स्थापना इसी दिशा में की चाहिए| इस दिशा में शुभता का वैज्ञानिक कारण यह है पृथ्वी की उत्तर दिशा में चुंबकीय ऊर्जा का प्रवाह निरंतर होता रहता है जिससे उस स्थल पर सकारात्मक उर्जा का प्रभाव पड़ता रहता है| दूसरा कारण पृथ्वी अपनी धुरी पर 23 अंश पूर्व की ओर झुकी हुई है| इस कारण पृथ्वी पूर्व की तरफ हट कर 66.5 पूर्वी देशांतर से यह दैवीय ऊर्जा पृथ्वी में प्रविष्ट होती है जो ईशान कोण क्षेत्र में पड़ता है|
दूसरी बात जो गौर करने लायक है कि अखंड ज्योति को पूजन स्थल के आग्नेय कोण में रखा जाना चाहिए, क्योंकि आग्नेय कोण अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है| यदि नवरात्र पर्व के दौरान इस कोण में अखंड ज्योति रखी जाती है तो घर के अन्दर सुख समृद्धि का निवास होता है और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है| वैसे भी वास्तु में बताया गया है की शाम के समय पूजन स्थान पर इष्ट देव के सामने प्रकाश का उचित प्रबंध होना चाहिए| इसके लिए घी का दीया जलाना अत्यंत उत्तम होता है इससे घर के लोगों की सर्वत्र ख्याति होती है|
नवरात्र काल में यदि माता की स्थापना चन्दन की चौकी या पट पर की जाये तो यह अत्यंत शुभ रहता है| क्योंकि वास्तुशास्त्र में चन्दन को अत्यंत शुभ और सकारात्मक उर्जा का केंद्र माना गया है, जिससे वास्तुदोषों का शमन होता है|
इस दौरान साधना किस दिशा में की जा रही है यह बात भी अहम है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए। नवरात्र काल में पूजन के समय आराधक का मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रहना चाहिए, क्योंकि पूर्व दिशा शक्ति और शौर्य का प्रतीक है| साथ ही इस दिशा के स्वामी सूर्य देवता है जो प्रकाश के केंद्र बिंदु हैं इसलिए साधक को अपना मुख पूर्व दिशा की ओर रखना चाहिए| जिससे साधक की ख्याति चारों ओर प्रकाश की तरह फैलती है|
नवदुर्गा, यानी नवरात्र की नौ देवियां हमारे संस्कार एवं आध्यात्मिक संस्कृति के साथ जुड़ी हुई हैं| इन सभी देवियों को लाल रंग के वस्त्र, रोली, लाल चंदन, सिंदूर, लाल वस्त्र साड़ी, लाल चुनरी, आभूषण तथा खाने-पीने के सभी पदार्थ जो लाल रंग के होते हैं, वही अर्पित किए जाते हैं|
नवरात्र पूजन में प्रयोग में लाये जाने वाले रोली या कुमकुम से पूजन स्थल के दरवाजे के दोनों ओर स्वास्तिक बनाया जाना शुभ रहता है| इससे माता की कृपा साधक के सारे दुखों को हर सुखों के दरवाजे खोल देती है| साथ ही यह रोली, कुमकुम सभी लाल रंग से प्रभावित होते हैं, और लाल रंग को वास्तु में शक्ति और सत्ता का प्रतीक माना गया है| इस आधार पर कहा जा सकता है की आप विजय श्री को अपने मस्तक पर धारण करके अर्थात मुकुट बना के रोली या कुमकुम के माध्यम से पहन लेते हैं|
नवरात्र के नौ दिनों तक चूने और हल्दी से घर के बाहर द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक चिन्ह बनाना चाहिए इससे माता प्रसन्न हो साधक को सुख और शांति देती हैं| वहीँ अक्सर घरों में शुभ कार्यों में हल्दी और चूने का टीका भी लगाया जाता है जिससे वास्तुदोषों का नकारात्मक प्रभाव व्यक्ति पर नहीं होता है|
पूजा स्थल को साफ सुथरा रखना चाहिए| यदि आप ऐसी जगह पर है जहां आपके ऊपर बीम या टाड़ है तो उसे ढकने के लिए चांदनी का प्रयोग किया जाना चहिये| जैसे हवन के समय यह बीचोबीच में लगायी जाती है| इससे सकारात्मक उर्जा प्रवाह बराबर बना रहता है और उस स्थल को नकारात्मक अनुभूति से मुक्त करता है|
नवरात्र काल में घर की ध्वजा पताका को बदल देना चाहिए, क्योंकि लहराती पताका विजय की निशानी होती है और जल्द ही नया वर्ष आरम्भ होने वाला होता है| और यह आपके नव वर्ष में विस्तार और विजय का सूचक है, और यदि नवरात्र काल में नए ध्वज को घर के छत पर वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में स्थापित करना अत्यंत शुभ रहता है|
नवरात्र में वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने के लिए घर में शास्त्रोक्त गुग्गुल, लोबान, कपूर, देशी घी आदि के धुएं का प्रयोग किया जाना चाहिए| लेकिन अगर श्रद्धा से इतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो हम पाते हैं की यह वह समय होता है जब मौसम में बदलाव हो रहा होता है, और घरों में तमाम तरह के जीवाणु और विषाणु पनप रहे होते हैं, और इस आहुति के निकले औषधीय धुएं से इनका नाश होता है| अगर संभव हो तो इनको जलाने के लिए गाय के गोबर के बने उपलों का प्रयोग किया जाये तो यह अत्यंत शुभ रहता है|
पूजा घर में पीले रंग के बल्ब का उपयोग करना शुभ होता है तथा बाकी के कमरों में दूधिया बल्ब का इस्तेमाल करना चाहिए| जीवन में पीले रंग को सफलता का सूचक माना जाता है, पीला रंग भाग्य वृद्धि में सहायक होता है|
सामान्य तौर पर किसी भी पूजन के दौरान ध्वनि का भी विशेष महत्व होता है| इसलिए नवरात्र तो विशेष रूप से शक्ति का पूजन है| वास्तुशास्त्र में कहा गया है शंख व घंटानाद न सिर्फ देवों को प्रिय है बल्कि इससे वातावरण में भी शुद्धि और पवित्रता आती है| वैसे इसे वैज्ञानिक रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि शंख ध्वनि सभी प्रकार के बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है|
नवरात्र काल में यदि माता पिता की प्रातः काल में उठकर चरण वंदना की जाये तो व्यक्ति की सारी लौकिक मनोकामनाएं पूर्ण होती है| और मातृ सेवा करने से व्यक्ति सद्बुद्धि को प्राप्त हो जगत में प्रसिद्धि पाता है|
क्यों करते हैं नवरात्र
नवरात्र पर्व को आसुरी शक्तियों पर देवी शक्ति का विजय प्रतीक माना जाता है लेकिन इसके आलावा वैज्ञानिक महत्व भी हैं|
चैत्र तथा आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन क्रमशः वसंत और शारदीय नवरात्र कहे जाते हैं| भौतिक आधार पर पृथ्वी जब एक साल में सूर्य की परिक्रमा पूरी कर रही होती है तब वह चार संधि स्थलों से गुजरती है जिसमे मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य पर्व नवरात्र मनाये जाते हैं| यह समय सूर्य की स्थिति के कारण स्वास्थ्य के लिहाज से ख़ास हो जाता है अतः शरीर को शुद्ध और मन को शांत बनाये रखने के लिए नवरात्र नामक धार्मिक व्यवस्था का अनुपालन किया जाता है|
नौ दिन तक चलने वाले इस उपवास प्रक्रिया केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है बल्कि भौतिक महत्व भी है| नवरात्र पूजन ऋतु परिवर्तन के आरम्भ में होता है, यह दो मौसमों का संधिस्थल होता है, जहां एक संक्रमण काल में तमाम तरह के जीवाणुओं विषाणुओं का हमला हम पर होता है| साथ ही इस बदलते मौसम में शारीरिक प्रतिरोधी क्षमता भी अन्य दिनों की अपेक्षा कम हो जाती है, इन्ही से बचाव के लिए यह नवरात्र पर्व है| जिसमे हम अपने खान पान को संतुलित करते हैं शारीर को क्षति पहुचने वाले पदार्थों से दूरी रखते हैं| यह परिवर्तन सृष्टि के सभी जीवित प्राणियों एवं वनस्पति में भी होता है|
नवरात्र का तात्पर्य क्या है यहां यह समझना अत्यंत आवश्यक है माना जाता है कि रात्रि काल में प्राकृतिक और मानव निर्मित बहु प्रकार के अवरोध कम हो जाते हैं जिससे ध्वनी का कम्पन रात्रि के समय दूर तक अपनी पहुंच बना पाता है| इसी कारण पूजन के समय शंखनाद अपने प्रभाव से अपनी पहुंच के हिस्से में विषाणुओं का खात्मा कर सकारात्मक उर्जा को भर देती है|
मां दुर्गा के इन नौ रूपों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री की पूजा आराधना प्रतिप्रदा से नवमी तक की जाती है| नौ शक्ति रूपों के पूजन के कारण ही इनदिनों को नवरात्र काल कहा गया है|
कन्याओं के पूजन का विधान
मां दुर्गा की कृपा प्राप्त करने के लिए नौ कन्याओं के पूजन का भी विधान है| वैसे तो आमतौर पर सभी शुभ कार्यों का फल प्राप्त करने के लिए कन्या पूजन किया जाता है| लेकिन नवरात्र में कन्या पूजन का अपना विशेष महत्व है, सभी लोग जानते हैं नवरात्र का पर्व श्राद्ध के ठीक बाद होता है| श्राद्ध में हम अपने पितरों की पूजा अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करते हैं वहीँ नवरात्र में माता को प्रसन्न करने के लिए हम व्रत उपवास आराधना आदि करते हैं| जिससे भय, विघ्न और शत्रुओं का नाश होता है और मान्यता है कि होम, जप और दान से देवी इतनी प्रसन्न नहीं होतीं जितनी कन्या पूजन से|
नवरात्र में सभी तिथियों को एक एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा होती है| मान्यता है कि यदि वास्तुदोष से ग्रसित भवन में पांच कन्याओं को नियमित सात दिन तक भोजन कराया जाये तो उस भवन के सारे दोष मिट जाते हैं|
नवरात्र में दो वर्ष से दस वर्ष तक की ही कन्यों का पूजन किया जाना शुभ माना जाता है, शास्त्रों में दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की कालिका, सात वर्ष की शाम्भवी व आठ वर्ष की कन्या को सुभद्रा बताया गया है| यह देवी के वह रूप हैं जिनकी आराधना मात्र से व्यक्ति के सारे क्लेश कट जाते हैं और व्यक्ति परम सुखी हो सत्कामी हो जाता है|
(लेखक देश के जानेमाने वास्तुविद और सलाहकार हैं और प्रस्तुत लेख में उनके निजी विचार हैं।)

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