फीका पड़ता उमर अब्दुल्ला का सिक्का

जम्मू कश्मीर में पिछले कुछ महीनों के दौरान आतंकी हिंसा की घटनाओं में निस्संदेह कमी आयी है। दरअसल, सेना के दबाव में दहशतगर्द फिलहाल अपने दड़बों में दुबके हुए हैं।

वीरेंद्र सिंह चौहान
जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ महीनों के दौरान आतंकी हिंसा की घटनाओं में निस्संदेह कमी आई है। दरअसल, सेना के दबाव में दहशतगर्द फिलहाल अपने दड़बों में दुबके हुए हैं। मगर इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि उनकी संगीनों की दहशत और उन्हें सियासी कवरिंग फायर देने वाले पाकिस्तान पालित भाड़े के भोंपुओं का सत्ता-प्रतिष्ठान पर असर कम हो गया हो। घाटी का हालिया घटनाक्रम दर्शाता है कि भारत विरोधी तत्व भारतीय संविधान की शपथ लेकर काम करने वाली वहाँ की राज्य सरकार के एजेंडा को प्रभावित करने का कोई अवसर नहीं चूकते।
इसको देख कर कभी-कभी तो यह सवाल जेहन में कौंधने लगता है कि कश्मीर घाटी में वास्तव में निर्वाचित सरकार के मुखिया यानि उमर अब्दुल्ला का सिक्का चल रहा है या गिलनियों, मीरवायजों और सैयद सलाहुद्दीनों का? यह स्थिति तब और चिंताजनक दिखने लगती है जब नौजवान मुख्यमंत्री मजबूती के साथ इन देशविरोधी तत्वों को नाथने के बजाय एक के बाद एक ऐसे कदम उठाते दिखते हैं जो इनकी जहरीली आवाज को और ताकत प्रदान करते हैं। यह उनकी राजनीतिक विवशता है या सुनियोजित रणनीति, इसमे देश का नुकसान है। खुद उमर के लिए भी यह रास्ता अंततः आत्मघाती साबित होगा।
आइए, उमर के इस आत्मघाती रवैये के दो ताजा नमूनों पर निगाह डालें। शेष भारत के साथ जम्मू-कश्मीर को निरंतर भावनात्मक रूप से जोड़े रखने वाली अमरनाथ यात्रा का रास्ता सुरक्षित और सुगम हो, इसके लिए इस साल सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा था। अदालती डंडे के भय से सूबे की सरकार ने इस संबंध में कुछ उपाय करने का विचार बनाया तो पाकिस्तानी टुकड़ों पर पलने वाले कट्टरपंथी स्वाभाविक रूप से बेचौन हो उठे। हुर्रियत के दोनों प्रमुख धड़ों नें पर्यावरण के नाम पर यात्रा विरोधी शोरगुल का आगाज कर दिया। यात्रा मार्ग पर अभी कुछ काम शुरू भी नहीं हुआ था कि सैयद अली शाह गिलानी और मीरवायज उमर फारूख ने अलगाव का अलाव सुलगाना शुरू कर दिया। पवित्र गुफा तक यात्रियों की सुविधा के लिए सड़क किसी कीमत पर नहीं बनने देंगे, यह धमकियाँ दी जाने लगीं। यात्रियों की संख्या घटाई जाए और यात्रा की अवधि भी, इस आशय के फतवे जारी होने शुरू हो गए। सांप्रदायिक सद्भाव की बुनियाद पर खड़ी ‘कश्मीरियत’को ताक पर रख कर ऐसे नारे दिये जा रहे हैं मानों कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों का आगमन कुछ अनचाहे परदेसियों का आगमन हो या किसी दुश्मन की चढ़ाई। मगर उनकी तरफ से जो हो रहा है उसमे कुछ भी नया या चौंकाने वाला नहीं है। उनकी बोली और शब्दावली देश और दुनियाँ में फैले करोड़ों शिव भक्तों की धार्मिक भावनाओं को कितना गहरा आघात पहुंचाएगी, इसकी परवाह भला पाकिस्तान नियंत्रित हुर्रियत करे भी तो क्यूँ?
इस तरह की सुनियोजित और पाकिस्तान प्रायोजित लफ्फाजी पर लगाम लगाने के लिए उमर से मुखर और प्रखर संदेश की दरकार थी। लेकिन मुख्यमंत्री ने तो अलगाववादियों के सामने मिमियाना शुरू कर दिया।प हले तो उमर ने गिलानी को यह कहते हुये सफाई पेश की कि अमरनाथ गुफा तक पक्की सड़क बनाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। सवाल यह पैदा होता है कि जो शख्स (गिलानी) सार्वजनिक रूप से खुद को पाकिस्तानी घोषित करता हो,भला जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को उसे सफाई देकर खुद को बौना साबित करने की क्या जरूरत आन पड़ी थी?
मगर जूनियर अब्दुल्ला यहीं नहीं रुके। भारत के संविधान की शपथ लेने वाले मुख्यमंत्री ने उसी संविधान को गालियां देने वाले और धार्मिक असहिष्णुता के प्रतीक गिलानी को सरकारी हेलिकॉप्टर से जाकर अमरनाथ यात्रा के मार्ग का मुआयना करने का न्योता भेज दिया। उमर से कोई पूछे कि सदियों से चली आ रही पवित्र अमरनाथ यात्रा के मार्ग को पक्का और सुखमय बनाना क्या कोई आपराधिक काम है, जो उनकी सरकार बिलकुल नहीं करना चाहती? या फिर उमर गिलनियों के सहारे राज्य पर शासन कर रहे हैं? उमर ऐसा करते हुए यह भी भूल गए कि वे केवल कश्मीर घाटी या फिर उसके कुछ मोहल्लों तक सीमित अलगाव के इन कुख्यात कारोबारियों के मुख्यमंत्री न होकर समूचे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। इस मामले में मुख्यमंत्री जिस तरह देशविरोधियों की बोली और भावनाओं को देशभक्तों के मुकाबले तरजीह दे रहे हैं, उसकी वजह समझ से परे है।
सूबे के निर्वाचित मुखिया की कुछ ऐसी ही स्थिति पंचायती राज के मामले में भी दिख रही है। तीन दशक बाद सूबे के लोगों ने बड़े उत्साह के साथ करीब 31 हजार पंच और सरपंच चुने थे। मतदाता आतंकी धमकियों के बावजूद वोट डालने आए थे और चुनाव लड़ने वालों ने भी जान जोखिम में डालकर चुनाव लड़ा था। उमर से उम्मीद थी कि वे चुने गए पंच-सरपंचों को ताकतवर बनाएँगे। संविधान के 73 वें संशोधन को राज्य में लागू कर ऐसा करना संभव था। मगर आज तक इस दिशा में कोई पहलकदमी नहीं की गई। सत्ता में उनकी सहयोगी कांग्रेस की राज्य इकाई ने भी एडी से चोटी तक का जोर लगा लिया कि किसी तरह राजीव गांधी के सपनों का पंचायती राज जम्मू-कश्मीर के गाँव-देहात तक भी पहुँच जाए। मगर उमर तो इस मामले में अंगद हो गए हैं। 73 वां संशोधन लागू नहीं करूंगा, ऐसा कहकर आज भी पंजा गड़ाए बैठे हैं।
राज्य सरकार की इस ढिठाई से जूझ रहे पंचायती नुमाइंदों पर इस बीच हिजबुल-मुजाहिदीन और यूनाइटेड जेहाद काउंसिल सरीखे आतंकी इदारों की त्योरियां भी चढ़ गई। उन्हें भी लगता है कि पंचायतें कामयाब हो गई तो धरातल पर उनकी भला कौन सुनेगा। अपनी दूकानदारी पर मँडराते खतरे को भाँप कर आतंकी जमातों ने धमकियों का सिलसिला शुरू कर दिया। पंच-सरपंचों को इस्तीफे देने अथवा अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा जाने लगा। अपनी धमकियों को प्रभावी बनाने के लिए आतंकियों के आधा दर्जन से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधियों की हत्या भी कर डाली।
इस विकट स्थिति में देश के दुश्मनों के लिए मुंहतोड़ जवाब यही होता कि राज्य सरकार पंचायतों को मजबूत करने के भारतीय संविधान के संबन्धित अंश बिना देरी के जम्मू कश्मीर में भी लागू कर देती। इसके साथ निर्वाचित प्रतिनिधियों को आवश्यक सुरक्षा दे कर उनका आत्मविश्वास बढ़ाया जाता ताकि भारत के संविधान के प्रति उनकी आस्था और प्रगाढ़ होती।
मगर एक तरफ राज्य सरकार ने 73 वें संशोधन को राज्य के प्रतिकूल घोषित कर दिया तो दूसरी ओर बड़ी निर्लज्जता के साथ सब पंच-सरपंचों को सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थता जाता दी। सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस के आला नेता और उमर के चाचा मुस्तफा कमाल तो यहां तक कह गए कि पंच-सरपंच कोई राजे- महाराजे नहीं हैं जो उन्हें व्यक्तिगत सुरक्षा मुहैया कराई जाए। सत्ताधारी दल की इसी नासमझी का परिणाम है कि सैकड़ों पंच-सरपंच अपने पदों से त्यागपत्र देकर अप्रत्यक्ष रूप से यह जता गए हैं कि घाटी में उमर का नहीं यूनाइटेड जेहाद काउंसिल के सैयद सलाहुद्दीन और उसके गुर्गों का राज चलता है। इस से सलाहुद्दीन के होंसले और बढ़ गए हैं। एक भारतीय पत्रिका को दिए हालिया साक्षात्कार में उसने फिर दोहराया है कि पंच-सरपंचों ने इस्तीफे नहीं दिए तो उन पर हमले यूं हो होते रहेंगे।
उमर की इस कमजोरी या घाटी पर ढीली पड़ती पकड़ के परिणाम भी सामने हैं। हैरत की बात नहीं कि गोलियों की गूंज और धमकियों के साये में बडगाम में कुछ पंच-सरपंच आज आतंकी संगठन हिजबुल, जेहाद काउंसिल और हुर्रियत को सार्वजनिक रूप से अपने भाई बताने लगे हैं। सच मानिए ये कोई हृदय परिवर्तन नहीं है। जरा सोचिए, शक्तिहीन और निहत्थे पंच-सरपंच दहशत के इन सौदागरों को अपना आका या दादा नहीं कहेंगे तो क्या करेंगे? जिन कंधों पर घाटी में तिरंगे का मान और भारतीय संविधान की तान को कायम रखने की राजनीतिक जिम्मेदारी है,उनका इस कदर कमजोर होना चिंताजनक है। बड़े अब्दुल्ला यानि मुख्यमंत्री के वालिद साहब क्या अपने साहिबजादे को दिल पर हाथ रखकर सोचने और तनिक सख्त होने की हिदायत देंगे? यह वक्त गिलानियों और सलाहुद्दीनों के सामने गिड़ागिड़ाने का नहीं बल्कि गर्जना करने का है। देशघाती तत्वों के सामने मिमियाने के बजाय उनके मान-मर्दन का है। इसी में देश और राज्य दोनों का हित निहित है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व जम्मू कश्मीर मामलों के अध्येता हैं और लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

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