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मौजूदा वक्त में बीजेपी के जरिए आरएसएस का एक फॉर्मूला कामयाब होता दिख रहा है। ये वो फॉर्मूला है जिसके एक प्रयोग की नजीर 2007 में दिख चुकी है जब मायावती ने तमाम समीकरण ध्वस्त करके यूपी में बहुमत की सरकार बनाई थी। कैडर बेस संगठन आऱएसएस ने बीजेपी के साथ मिलकर वही किया है और सफलता के मुहाने पर खड़ा दिख रहा है।

वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

सियासत के लिए कोई भी जमा जमाया फॉर्मूला कभी काम नहीं करता। वक्त के साथ और बदलते माहौल के साथ फॉर्मूले बदलने पड़ते हैं। ये काम सभी करते हैं लेकिन असल खिलाड़ी वो होता है जो अपने फॉर्मूले पर कामयाबी हासिल कर ले। मौजूदा वक्त में बीजेपी के जरिए आरएसएस का एक फॉर्मूला कामयाब होता दिख रहा है। ये वो फॉर्मूला है जिसके एक प्रयोग की नजीर 2007 में दिख चुकी है जब मायावती ने तमाम समीकरण ध्वस्त करके यूपी में बहुमत की सरकार बनाई थी। कैडर बेस संगठन आऱएसएस ने बीजेपी के साथ मिलकर वही किया है और सफलता के मुहाने पर खड़ा दिख रहा है।
सियासत की असल जरूरत क्या होती है, इस सवाल के जवाब में अमूमन विकास का नारा दिया जाता है लेकिन ये महज कहने-सुनने की चीज है। मौजूदा वक्त में बदली सियासी फिजा जो जाति धर्म के इर्द-गिर्द सिमटती नजर आ रही है, दरअसल यही असल में सियासत की जरूरत है जिसका इस्तेमाल जिसने भी जब भी सबसे बेहतर तरीके से किया कामयाबी उसी को मिली। एक बार फिर माहौल कुछ वैसा ही बन चुका है। सियासत की फिजाओँ में फिर एक बार जाति की हवा चल रही है।
दरअसल इस बात को समझने के लिए उस दौर में लौटना होगा जब आज की सबसे बड़ी वोटर पीढ़ी उस वक्त पैदा हुई थी, यानी लगभग 25 साल पहले ये दौर था मंडल कमंडल की सियासत का जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन के हथियार से कमंड़ल यानी धार्मिक राजनीति को ध्वस्त किया था। बदले हुए दौर में आरएसएस ने 25 साल बाद वीपी सिंह के प्रयोग को ही दोहराया है और उसी हथियार से उन ताकतों को ध्वस्त कर दिया है जो मंडल कमीशन के असर से पैदा हुई थीं, मंडल कमीशन के वक्त भी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए विकास की बात कही गई थी।
ये और बात है कि वक्त के साथ वीपी सिंह इसे आगे नहीं बढ़ा पाए लेकिन इतिहास से सबक लेते हुए आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने इसी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले पर ठीक से काम किया है और नरेन्द्र मोदी के रूप में उस दौर से भी बड़ा कद देश के सामने पेश कर दिया जिसकी झलक उसी वक्त मिल गई थी जब चुनावी अभियान की हिलोरें उठी थीं और नरेंद्र मोदी ने खुद को ट्रेन में चाय बेचने वाला बच्चा बताकर ये ज़ाहिर करने की कोशिश की थी कि वो किस तबके से संबंध रखते हैं। जैसे-जैसे वक्त बढ़ता गया माहौल और भी दिलचस्प होता गया। जब सियासत की ऊंच-नीच भी दुनिया के सामने आ गई, अपने परिवार पर हमला बोले जाने को गांधी परिवार ने नीच राजनीति करार दिया तो जवाब में नरेंद्र मोदी ने कास्ट कार्ड प्ले कर दिया, नतीजा भी सामने है। कांग्रेस के नेता मोदी की जाति का डीएनए टेस्ट करने में जुट गए हैं।
अब विकास और भ्रष्टाचार को असल मुद्दा मानने वाले चाहे अपना सिर जितना पीट लें, लेकिन हकीकत बदल चुकी है। मुद्दा जाति धर्म बन चुका है और अब इसी मुद्दे के सहारे चुनावी मौसम की आखिरी फसल काटी जानी है। अब गुजरात में मोदी की जाति को ओबीसी में शामिल चाहे खुद मोदी ने किया हो या फिर कांग्रेस शासनकाल के दौरान हुआ हो। मसला ये नहीं है बल्कि मसला अब ये है कि सियासत की राह वैसे ही है।
अब जरा इतिहास भी खंगाल लेते हैं इसे समझने के लिए। दरअसल जनता पार्टी के विघटन के बाद जब बीजेपी अस्तित्व में आई थी उस वक्त भी पार्टी ने गांधी के समाजवाद को साथ लेकर चलने का फैसला किया था। अटलजी के नेतृत्व में ये काम शुरु भी हुआ लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। लिहाजा आरएसएस ने यू टर्न लिया और आडवाणी को आगे कर दिया। नतीजा सत्ता तक का सफर तय हुआ लेकिन इस बीच संघ ने चेहरा बदलने की चाहत नहीं छोड़ी। नतीजा ये कि जब बीजेपी सत्ता में आई तो पीएम पद पर अटलजी को बैठाया गया। दरअसल चूक की शुरुआत यहीं से हो गई। पार्टी ने सत्ता में बने रहने के लिए अपने सिद्दांतों और मूल्यों से समझौते किए तो मूल कैडर दूर हुआ। नतीजा ये कि सत्ता एक के बाद एक करके फिसलती चली गई, लेकिन 2009 के बाद से आरएसएस ने अपने असल एजेंडे पर काम शुरू किया और लोहे की काट के लिए लोहे को तैयार करने का फैसला किया। यानी मंडल कमीशन के बाद जो दर्जनों क्षत्रप पैदा हो गए थे उन्हें कैसे ठिकाने लगाया जाए। इसके लिए आरएसएस ने ऑपरेशन शुरू किया और जिन राज्यों में बीजेपी सत्ता में आई वहां पिछड़े वर्ग के लोगों को सीएम बनाया गया, साथ ही बीजेपी के संगठन में भी ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया गया और आखिर मास्टर स्ट्रोक आरएसएस का मोदी के तौर पर सामने आया।
संघ ने पूरी प्लानिंग के साथ एक पिछड़े वर्ग के नेता को देश के सामने लाने का रिस्क ले लिया। अब 16 मई करीब है लेकिन चुनावों के अब तक सफर में बीजेपी और आरएसएस के प्लान मोदी को जो रिस्पांस मिला है उसे देखकर कहना गलत ना होगा कि संघ का मिशन काफी हद तक कामयाब रहा है।

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