नई दिल्लीः सनातन पंरपरा में हर माह में आने वाली एकादशी की अपनी महत्ता है. वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टिकोण से एकादशी की तिथि मानसिक चेतना और शारीरिक भौतिक शुद्धि का दिन होता है. भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तिथि में आने वाली एकादशी तिथि को परिवर्तनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. यह एकादशी व्रत लौकिक जगत में सबकुछ परिवर्तन शील है, इस एक सत्य को स्पष्ट तरीके से स्थापित करती है.
भगवान विष्णु बदलते हैं करवट
पौराणिक आख्यानों के आधार पर माना जाता है कि भगवान विष्णु हरिशैनी एकादशी के दिन क्षीर सागर में विश्राम करने चले जाते हैं. इसके बाद वह भाद्रपद शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं. इसलिए इस तिथि को परिवर्तनी एकादशी कहा जाता है.
करवट बदलना महज एक संकेत मात्र है जो कि यह बताता है कि जीवन में पहलू हमेशा बदलते रहते हैं. कभी एक पहलू सामने होता है तो कभी दूसरा. यह सुख-दुख के बदलते चक्र का भी प्रतीक है. जीवन-मृत्यु के आवर्तन को भी दर्शाता है.
महाभारत काल से जुड़ी है कथा
महाभारत काल में युधिष्ठिर जब वनवास के दुख में थे, तब कई बार वह अपने इंद्रप्रस्थ के साम्राज्य, वैभव, परिवारीजनों बिछोह आदि को लेकर निराश होने लगते थे.
द्रौपदी की भी आस छूटने लगती थी. ऐसे में श्रीकृष्ण ने उन्हें परिवर्तनी एकादशी के विषय में बताकर ज्ञान से परिचित कराया.
श्रीकृष्ण ने बताया महत्व
इसका महत्व श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से बताया और कहा कि एकादशी व्रतों में सबसे महान व्रत परिवर्तनी एकादशी का आता है. इसके प्रभाव से सभी दुखों का नाश होता है, समस्त पापों का नाश करने वाली इस ग्यारस को परिवर्तनी ग्यारस कहा जाता है.
यह व्रत स्थितियों-परिस्थितियों को बदल देता है. इस दिन की पूजा-व्रत का पुण्य वाजपेय यज्ञ, अश्वमेघ यज्ञ के तुल्य माना जाता है.
बालकृष्ण को पहली बार कराए गए थे सूर्यदेव के दर्शन
कालांतर में इस व्रत को डोल ग्यारस के नाम से भी जाना गया, जिसकी वजह भी खुद श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप ही है. दरअसल माता यशोदा ने इसी दिन जन्म के बाद अपने लल्ला को पहली बार घर से कदम बाहर निकलवाते हुए सूर्य के दर्शन कराए थे.
उन्हें यमुना जी का भ्रमण कराया था. हिंडोले में बैठे बालकृष्ण पहली बार लौकिक जगत को मनुष्यरूपी नेत्रों से देख रहे थे. उत्तर भारत में इसी की झांकी स्वरूप यह उत्सव मनाया जाता है.
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