Parle G Success Story : जिसके बिना शाम की चाय अधूरी हो. बच्चों से लेकर बुजुर्गों की पसंद की बात हो ...जब भी बिस्कुट की बात होती है, जहन में एक ही नाम याद आता है, पारले जी (Parle G). यह बिस्कुट देश के दिल में बसता है. अमीर से लेकर गरीब तक इस बिस्कुट के सब दिवाने हैं. हो भी क्यों नहीं.
साल 1900 में 12 साल का एक लड़का गुजरात के वलसाड से मुंबई के लिए निकला. पेट भरना के लिए दर्जी की दुकान पर काम करना शुरू किया और फिर सिलाई-कढ़ाई का काम शुरु कर दिया. 6 साल बाद यानी 18 साल की उम्र में उस लड़के ने मुंबई के गामदेवी इलाके में अपनी दुकान शुरू की. काम अच्छा चल गया. उसने कुछ ही सालों में अपनी कंपनी डी मोहनलाल एंड कंपनी तैयार कर ली. उस लड़के का नाम मोहनलाल दयाल चौहान था, जिन्होंने बाद में चलकर पारले जी की शुरुआत की.
मोबनलाल ने देखा कि देश की एक बड़ी आबादी गरीब है, जो महंगे ब्रांड के बिस्कुट खरीद नहीं सकती. इसलिए उन्होंने देशी और सस्ता बिस्कुट बनाने का फैसला किया. जिसे अंग्रेज नहीं बल्कि भारतीय भी खा सके. उन्होंने जर्मनी जाकर बिस्कुट बनाना सीखा और फिर 60 हजार में मशीन खरीदी. साल 1920 में उन्होंने पारले ग्लू की नींव रखी. उनके पांचों बेटे मानेकलाल, पीतांबर, नरोत्तम, कांतिलाल और जयंतीलाल पारले के फाउंडर बनें.
ब्रिटिश स्नैक्स कंपनियों के बिस्कुट का विकल्प बनकर बाजार में उतरे पारले जी को बहुत जल्द सफलता मिली. कम कीमत और स्वाद के चलते साल 2011 में वो दुनिया का सबसे ज्यादा बिकने वाला बिस्कुट बन गया. हालांकि इस सफलता में कई मुश्किलें भी आई. आजादी के बाद अकाल पड़ने से गेंहू की किल्लत हो गई. पारले ने गेंहू के बजाए जौ से बिस्कुट बनाना शुरू किया. सेल में गिरावट आई तो कंपनी ने विज्ञापन का सहारा लिया. जहां से पारले गर्ल का जन्म हुआ.
पारले के विज्ञापनों में नजर आने वाली पारले गर्ल लोगों के दिलो-दिमाग में छा गई. साल 1960 के दशक तक कई अन्य ब्रांड ने भी ग्लूकोज बिस्किट लॉन्च कर दिए, जिसके बाद एक बार फिर से पारले बिस्कुट का सेल प्रभावित हुआ. कंपनी ने इसका तोड़ पैकेजिंग ने निकाला. पारले एक पीले वैक्स पेपर में लपेटकर आने लगा. जिसपर पारले ब्रांडिंग के साथ एक छोटी लड़की की तस्वीर होती थी. जिसे पारले गर्ल का नाम दिया गया.
कंपनी ने साल 1982 में पारले ग्लूको को पारले-जी के तौर पर री-पैकेज कर मार्केट में निकाला, जहां G का मतलब था ग्लूकोज . पारले जी के विज्ञापन टीवी, रेडियो, अखबार में भरभर कर दिखने लगे. ' स्वाद भरे, शक्ति भरे, पारले-जी. 'जी माने जीनियस', 'हिंदुस्तान की ताकत', 'रोको मत, टोको मत'... जैसे पारले जी के विज्ञापन लोगों की जुंबा पर चढ़ गए.
पारले जी की कीमत उसकी सबसे बड़ी ताकत है. कंपनी ने बीते 30 साल में सिर्फ एक बार बिस्कुट की कीमत में एक रुपये की बढ़ोतरी की. साल 1994 में कंपनी ने पारले जी के छोटे पैक की कीमत 4 रुपये से बढ़ाकर 5 रुपये कर दिया. आज भी पारले जी का छोटा पैक 5 रुपये में ही मिलता है.
दाम न बढ़ाने के पीछे का गणित स्विगी के डिजाइन डायरेक्टर सप्तर्षि प्रकाश ने बताते हुए कहा कि कंपनी ने दाम बढ़ाने के बजाए पैकेज का वजन कम करना शुरू किया. जो पारले जी पैक पहले 100 ग्राम का होता था, कंपनी ने उसे पहले 92 ग्राम. फिर घटाकर 88 ग्राम और अब वो कम होते-होते 50 ग्राम का हो गया है. 1994 से लेकर अब तक कंपनी ने पैक का वजन 45 फीसदी तक कम कर दिया है. कंपनी के मुनाफे के लिए दाम बढ़ाने के बजाए वजन कम करने का फैसला किया. जिसं कंपनी की नींव एक दर्जी ने रखी, आज वो दुनिया की सबसे ज्यादा बिल्कुट बेचने वाली कंपनी बन चुकी है. कंपनी का वैल्यू 17223 करोड़ की हो चुकी है. फोर्ब्स 2022 के आंकड़ों के मुताबिक, विजय चौहान और उनके परिवार का नेटवर्थ 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर यानी 45,579 करोड़ रुपये है.
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