नई दिल्ली: सूर्य देव को एक पौराणिक मान्यता के अनुसार ब्राह्मण की आत्मा माना गया है. आदि पंचों में केवल सूर्य देव ही कलियुग में प्रत्यक्ष रूप से दर्शन देते हैं. प्राचीन ग्रंथों तथा वेदों में भी सूर्य देव को महत्व दिया गया है. कहा जाता है कि सूर्य देव की आराधना मात्र से सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है. इसके अतिरिक्त रविवार को सूर्यदेव की पूजा से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है. इनकी भक्ति करने से जीवन में सुख, शांति, सफलता, अच्छी सेहत व यश की प्राप्ति होती है.


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देश में हैं कई सूर्य मंदिर
सूर्य देव की असीम मान्यता के चलते हमारे देश में इनके अनेक मंदिरों की स्थापना की गई है. इनमें से कुछ मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं, जिनमें से एक है- कोणार्क सूर्य मंदिर (Konark Sun Temple).


कहां स्थित है
यह कोणार्क मंदिर भारत के ओडिशा राज्य में स्थित है. जगन्नाथ पुरी (Jagannath Puri) से यह मंदिर लगभग 35 किमी दूर है. यह मंदिर पूर्णत: सूर्य देव को समर्पित है, जिन्हें स्थानीय लोगों द्वारा 'बिरंचि-नारायण' कहकर पुकारा जाता है.


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यूनेस्को द्वारा मिली मान्यता
कलिंग (Kalinga) शैली में निर्मित यह मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्य कला व पत्थरों पर की गई उत्कृष्ट नक्काशी से हर किसी को आश्चर्य में डाल देता है. इन सभी विशेषताओं के कारण वर्ष 1984 में यूनेस्को (UNESCO) ने इसे विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) के तौर पर सम्मानित किया था.


स्थापना से संबंधित रोचक प्रसंग
पुराणों में कोणार्क मंदिर (Konark Temple) की स्थापना को लेकर एक प्रसंग प्रसिद्ध है. इसके अनुसार कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को श्राप मिलने के कारण कोढ़ रोग हो गया था. इससे निजात पाने के लिए साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर-संगम पर कोणार्क में बारह वर्ष तक तपस्या की. इस तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने साम्ब को रोग से मुक्त कर दिया था. तभी साम्ब ने इसी स्थान पर सूर्य देव के मंदिर की स्थापना करने का निश्चय किया. रोग से मुक्त होने के उपरांत जब साम्ब नदी में स्नान कर रहा था तो उसे सूर्य देव की एक प्रतिमा मिली. मान्यता है कि इस प्रतिमा को सूर्य के शरीर के भाग से ही विश्वकर्मा ने बनाया था. इस प्रतिमा को साम्ब ने मित्रवन में स्थापित किया.


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मंदिर का ऐतिहासिक प्रसंग
वहीं इतिहासकारों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण राजा लांगूल नृसिंह देव ने आरंभ कराया था. किंतु इनकी मृत्यु होने के कारण इसका काम अधूरा रह गया था. वहीं कुछ इतिहासकार इसका निर्माण 1253 से लेकर 1260 ईसवी के मध्य मानते हैं. कई आक्रमणों तथा नेचुरल डिजास्टर्स (Natural Disasters) की वजह से जब मंदिर खराब होने लगा तो 1901 में तत्कालीन गवर्नर जॉन वुडबर्न ने जगमोहन मंडप के चारों दरवाजों पर दीवारें बनवा दीं और इसे पूरी तरह रेत से भर दिया था, जिससे यह ठीक बना रहे. अधिकतर लोगों को यह नहीं पता कि जगमोहन मंडप इस मंदिर का मुख्य हिस्सा है. इस काम में तीन साल लगे थे और 1903 में यह पूरी तरह से पैक हो गया था. वहां जाने वाले को कई बार यह पता नहीं होता है कि मंदिर का अहम हिस्सा जगमोहन मंडप बंद है.


आज भी सुनाई देती है पायलों की झंकार
कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार, आज भी इस मंदिर में पायलों की हल्की सी झंकार सुनाई देती है. पुराने समय में सूर्य देव की आराधना के तौर पर नर्तकियां नृत्य किया करती थीं, जिनकी पायलों की आवाज आज भी प्रांगण में सुनाई देती है.


सात विशाल घोड़े मानो खींच रहे हों रथ
कोणार्क के इस सूर्य मंदिर (Sun Temple) को बेहद आकर्षक ढंग से रचा गया है. इस देखकर लगता है कि मानो बारह विशाल पहियों वाले रथ को सात शक्तिशाली अश्व खींच रहे हों. अब इनमें से एक ही अश्व बचा है. इसी रथ पर सूर्य देव को सुशोभित किया गया है. यहां सूर्य देव के दर्शन किए जा सकते हैं. इस मंदिर के शिखर से उदय व अस्त होते सूर्य के अद्भुत दर्शन होते हैं. मंदिर में इसके आधार को आकर्षण प्रदान करने के लिए बारह चक्र बनाए गए हैं, जो बारह महीनों की ओर इंगित करते हैं. हर चक्र आठ अरों से मिलकर बना है. ये अर दिन के आठ पहरों को प्रकट करते हैं.


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अद्भुत स्थापत्य कला
इसका मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना है. दो मंडप ध्वस्त हो चुके हैं और तीसरे मंडप में जहां मूर्ति थी, उसे अंग्रेजों ने स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत से बंद करवा दिया था. इस मंदिर में सूर्य देव की तीन मूर्तियां हैं:
बाल्यावस्था- उदित सूर्य, युवावस्था- मध्याह्न सूर्य, प्रौढ़ावस्था- अपराह्न सूर्य


प्रवेश द्वार पर दो सिंह व हाथी बने हैं. हाथी मानव के ऊपर बने हैं. दक्षिणी भाग में दो घोड़े बने हैं, जिन्हें ओडिशा सरकार ने अपने रजचिन्ह माना है. मंदिर में फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है. इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में बनाई गई हैं. महान कवि व नाटककार रवीन्द्र नाथ टैगोर इस मंदिर की शिल्पकला से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने लिखा था- कोणार्क, जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है.


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