देश में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े तबकों की कुल आबादी तीन चौथाई से भी अधिक है, लेकिन 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग तबके से कोई भी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर नहीं है. यानि करीब 94 से 96 फीसदी प्रोफेसर पदों पर कथित सवर्ण जातियों का कब्जा है तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की भागीदारी भी महज 4-6 फीसदी ही है. यहां तक कि सहायक प्रोफेसर पदों पर भी पिछड़ा वर्ग को 27% के मुक़ाबले महज 14% की ही भागीदारी हासिल हो पाई है और आज भी करीब 62% पदों पर उच्च जातियां ही क़ाबिज़ हैं. इसके बावजूद ये तबके अपने हकों को लेकर कभी भी एकजुट दिखाई नहीं दिये.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

पहली बार ये तीनों तबके 13 प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ एकजुट होते दिख रहे हैं, जिस पर हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपनी मुहर लगाई है. इस निर्णय का देश भर के अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े तबके के लोग विश्वविद्यालयों में आरक्षण के अप्रभावी हो जाने के आकलन के चलते विरोध कर रहे हैं. इसलिए देश भर में 13 प्वाइंट रोस्टर की जगह 200 प्वाइंट रोस्टर को लागू करने का व्यापक अभियान चलाया जा रहा है.


यह समझना ज़रूरी है कि 200 प्वाइंट रोस्टर में विश्वविद्यालय एक इकाई होता है वहीं 13 प्वाइंट रोस्टर में एक विभाग. इससे आरक्षण लागू करने का पूरा गणित ही उलट जाता है. इसका कारण यह है कि 200 प्वाइंट रोस्टर में 1 से 200 के बीच जितने भी पदों का विज्ञापन जारी होगा, उसमें से सीधे 7.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 15% अनुसूचित जाति और और 27% अन्य पिछड़े तबके लिए पदों की व्यवस्था होगी जबकि 13 प्वाइंट रोस्टर में पहला, दूसरा और तीसरा पद सामान्य भर्ती के लिए, चौथा पद ओबीसी तबके के लिए, पांचवां और छठां पद सामान्य भर्ती के लिए, 7वां पद अनुसूचित जाति के लिए, 8वां पद ओबीसी तबके के लिए, 9वां, 10वां तथा 11वां पद सामान्य भर्ती के लिए, 12वां पद ओबीसी तबके के लिए, 13वां सामान्यभर्ती के लिए तथा 14वां पद अनुसूचित जनजाति के लिए होगा.



इस तरह से 200 प्वाइंट रोस्टर में इन तबकों की भागीदारी तय है वह चाहे जिस भी विभाग में मिले लेकिन 13 प्वाइंट रोस्टर में अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए एक विभाग में 14 पद होना ज़रूरी है. देश में बहुत कम ऐसे विभाग हैं जहां 14 पद हैं और अगर 14 या अधिक पद हों भी तो सभी की भर्ती एक साथ नहीं होती है. ऐसे में अनुसूचित जाति और जनजाति का तो शायद ही कभी नंबर आ पाएगा और ओबीसी तबके के लिए भी मौके बड़े मुश्किल होंगे. अगर एक विभाग में सहायक प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के तीन अलग-अलग पद खाली हैं लेकिन तीनों अलग-अलग केटेगरी के कारण 9 पद नहीं बल्कि अलग-अलग 3 पद होंगे जिससे 13 प्वाइंट रोस्टर के तहत केवल जनरल भर्ती के तहत ही आएंगे. 13 प्वाइंट रोस्टर के इसी अतार्किक और अव्यवहारिक प्रणाली के चलते इसका देश भर में विरोध हो रहा है.


करीब एक दशक पहले प्रोफेसर रावसाहब काले समिति की सिफ़ारिश के आधार पर यूजीसी ने 2006 में 200 प्वाइंट रोस्टर को लागू किया था, उच्चतम न्यायालय के फैसले के आधार पर केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के 1997 में जारी गाइडलाइन के अनुरूप था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अप्रैल 2017 में इसी 200 प्रणाली रोस्टर के खिलाफ फैसला देते हुए 13 प्वाइंट रोस्टर रोस्टर लागू करने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने इस साल के 22 जनवरी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के इसी आदेश के खिलाफ दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया.


कुछ संगठन सरकार पर सुप्रीम कोर्ट में कमज़ोर पैरवी का आरोप लगा रहे हैं तो कुछ का कहना है कि न्यायपालिका में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व के न होने चलते इस तरह के निर्णय आ रहे हैं. इसे नकारा भी नहीं जा सकता है कि ऐसे संवेदनशील मसले पर सुनवाई करने वाली पीठ में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व न होना नैसर्गिक न्याय के खिलाफ है.


सरकार की तरफ से भले ही उच्चतम न्यायालय में पुर्नविचार याचिका दाखिल करने या संविधान संसोधन लाने का आश्वासन दिया जा रहा हो लेकिन अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े तबके की नाराजगी कम होती दिखाई नहीं पड़ रही है. यह मुद्दा अब एक राजनीतिक और चुनावी मुद्दा है क्योंकि विपक्षी दल इसे अपनी घोषणापत्र में शामिल कर रहे हैं. इसलिए 2019 के चुनाव को जातिवार जनगणना, आबादी के हिसाब से भागीदारी, 10% सवर्ण आरक्षण और 13% रोस्टर का मुद्दा बहुत करीब से प्रभावित करने वाला है.


(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)