गुजरात चुनावों के परिणाम वही आए, जो आने चाहिए थे. लेकिन हिमाचल प्रदेश के चुनावी परिणाम उम्मीद से कुछ ज्यादा ही अलग रहे. कुल-मिलाकर यह कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी अब 27 साल का अपना सतत कार्यकाल पूरा करने की ओर बढ़कर पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार का रिकॉर्ड तोड़ने की दावेदारी करने लायक बन गई है. एक ऐसे समय में, जबकि राहुल गांधी के हाथों में कांग्रेस पार्टी की कमान सौंप दी गई है, हिमाचल प्रदेश से उनकी सरकार का बर्खास्त हो जाना और वह भी इतनी बुरी पराजय के साथ, एक अशुभ आरंभ ही माना जाएगा. हां, गुजरात के थोड़े से फायदे ने प्राणवायु के हल्के झोके का काम जरूर किया है. वैसे फिलहाल वे पंजाब के स्थानीय निकायों के चुनाव में कांग्रेस की सफलता का श्रेय स्वयं लेकर अपनी स्थिति को कुछ सीमा तक जस्टिफाई कर सकते हैं.


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यह चुनाव राजनीतिक विश्लेषकों को यह सोचने के लिए एक अच्छा अवसर प्रदान करने वाला मालूम पड़ रहा है कि केंद्र और राज्य की बीजेपी की सरकार से कुछ शिकायतें एवं काफी नाराजगी के बाद भी इन दोनों राज्यों ने उसका समर्थन करने का फैसला क्यों किया? फिलहाल यदि हम हिमाचल प्रदेश को छोड़ भी दें, तो गुजरात चुनाव की केस स्टडी इसके लिए एक अच्छा स्थान हो सकता है. इसके बारे में फिलहाल कुछ तथ्यों की ओर तो इशारा किया भी जा सकता है, जो भारतीय चुनावी प्रचार में पहली बार इतनी प्रमुखता से दिखाई पड़े.


कभी-कभी ऐसा लगता है कि इन चुनावों के परिणाम बीजेपी की अपनी उपलब्धियों की बजाए कांग्रेस पार्टी के अपने आत्मघाती कदमों का परिणाम अधिक रहे हैं. तब, जबकि मतदान में एक सप्ताह भी बाकी नहीं था, मणिशंकर अय्यर जैसे बुद्धिजीवी कांग्रेसी नेता ने प्रधानमंत्री को ‘नीच’ कहकर एक प्रकार से अपनी ही ओर ही गोल दाग दिया. फिर इसी एक सूत्र से औरंगजेब और पाकिस्तान की जो बात निकली, उसने एक प्रकार से अनजाने ही बीजेपी के विरोध को अप्रत्यक्ष रूप से एक प्रकार से राष्ट्रद्रोहकी ओर मोड़ दिया. जनता मूलतः दिल से सोचती है, दिमाग से नहीं. और वह भी तब, जबकि लोहा गरम हो. भारतीय जनता पार्टी ने वार करने में तनिक भी देर नहीं लगाई और दूसरे चरण में हुए मतदान इस सत्य को प्रमाणित करते हैं कि बीजेपी की रणनीति कामयाब रही.


हालांकि बहुत से विश्लेषक इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेंगे, किन्तु मुझे लगता है कि चुनावी दौर में राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाना भी कहीं-न-कहीं नकारात्मक तथ्य रहा. भारतीय जनता अभी राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं बना पाई. इसका अर्थ यह कतई नहीं कि यही मानसिकता आगे भी बनी रहेगी.


हमें इस बात पर भी थोड़ा गौर करना होगा कि गुजरात के चुनाव अभियान ने एक प्रकार से कहीं-न-कहीं दोनों को हिन्दूवादी दिशा की ओर जाने के लिए मजबूर किया. खैर बीजेपी के लिए यह मार्ग कोई नया नहीं था. लेकिन राहुल गांधी द्वारा लगातार मंदिरों में जाना कांग्रेस की नीति की दृष्टि से एक अप्रत्याशित दृश्य जरूर था, बावजूद इसके कि ऐसा करना न तो सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से गलत था और न ही संवैधानिक दृष्टि से. इतना ही नहीं, बल्कि पहली बार कांग्रेस ने मुसलमानों की बात करनी बंद कर दी, जो उसके चुनावी एजेंडे का एक महत्वपूर्ण बिन्दु हुआ करता था. यह चौंकाने वाला तथ्य रहा और साथ ही चुनावी-भविष्य की दृष्टि से थोड़ा चिन्ताजनक भी.


हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनावी अभियानों को देखने के बाद इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण धारणाएं उभरती हैं. पहली तो यह कि जहां कांग्रेस के पास परिपक्व नेतृत्व तथा दूरदृष्टि नीतियों वाली सोच का नितान्त अभाव है, वहीं दूसरी ओर इस पार्टी की विरोधी बीजेपी इस मायने में इसकी तुलना में कई गुना अधिक परिपक्व और भविष्यदर्शी है. यहां तक कि तात्कालिक निर्णयों के मामले में भी कांग्रेस पाटी ने विरोधाभासी बयान देर अपनी छवि धूमिल करने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया.


दूसरी बात यह कि कांग्रेस पार्टी का अपना आन्तरिक एवं बाह्य संगठन उतना मजबूत दिखाई नहीं देता, जितना कि बीजेपी का है. यह इस बात से ही प्रमाणित होता है कि चाहे वे स्थानीय स्तर के ही चुनाव क्यों न हों, यह पार्टी अपनी पूरी ताकत झोंक देने में जरा भी परहेज नहीं करती. ऐसी मजबूत पार्टी के सामने फिलहाल कांग्रेस काफी कमजोर नजर आती है.


अब सवाल यहां दो प्रकार की जीत का है. इसमें पहला प्रकार विरोधी पार्टी की जीत और दूसरा प्रकार है- लोकतंत्र की जीत. हालांकि लोकतांत्रिक पद्धति में पार्टी की जीत को लोकतंत्र से अलग करके नहीं देखा जा सकता, लेकिन एक सही लोकतांत्रिक जीत की आत्मा कहीं-न-कहीं विरोधी दलों की एक सम्मानजनक जीत में भी निहित होती है. गुजरात में इसकी थोड़ी रक्षा हो सकी है, वहीं हिमाचल प्रदेश में वह थोड़ी कमजोर हुई है. अब देखना यह है कि चुनाव की भविष्य की यह यात्रा किस प्रकार दो मजबूत और दमदार पार्टियों के बीच के एक बौद्धिक एवं संवैधानिक संघर्ष की यात्रा में तब्दील हो पाती है.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)