एफ-69/8, साउथ टीटी नगर, जवाहर चौक, भोपाल (म.प्र.). यह उस एक घर का पता है, जिसके नाम पर आठवें दशक की शुरुआत में रोजाना ढेर सारी चिट्ठियां आती थीं और लोग भी आते थे. आपातकाल के दौर में इस पते ने पुलिस की डायरी में अपना स्थायी निवास बना लिया था. क्यों? इसलिए, क्योंकि यहां रहने वाले एक शख्‍स की उंगलियों के बीच फंसी कलम जो अल्‍फाज उगलती थी, उनमें सरकार को बारूद की गंध महसूस होती थी. फिलहाल बात कुछ यूं है कि सूरज की रोशनी के तले एक दिन पूरी दबंगी के साथ इस पते को चंद मिनटों में 'है' से 'था' में तब्दील कर दिया गया. कारण? कारण यह कि यह पता वर्तमान में बनने वाली 'स्मार्ट सिटी' के स्मार्टनेस में बाधा डाल रही थी.


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शायद अब आप इस पते के रहस्य को जानने की अपनी उत्सुकता को संभाल नहीं पा रहे होंगे. मैं कुछ सूत्र देता हूं. शायद आप खुद सत्य तक पहुंच जाए. यही वह सरकारी घर था, जहां से 'साये में धूप' और 'एक कंठ विषपायी' जैसी कालजयी शायरी की किताबों ने जन्म लिया था. यही वह जगह थी, जहां से निकले शब्‍दों ने पूरे देश का सफर करते हुए लोगों के दिल और जुबान पर अपनी जगह बनाई. ऐसे ही अक्षरों से बनी एक लाइन है - 'एक पत्थर जरा तबियत से तो उछालो यारों.'


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जी हां, आपने बिल्कुल सही समझा. दुष्यंत कुमार के घर को जमींदोज कर दिया गया है. और इससे पहले कि इस कारनामें की खबर शहर के दुष्यंतप्रेमियों तक पहुंची, उसे अंजाम दिया जा चुका था. विडंबना यह कि साहित्य के इस स्मारक को ध्वस्त करने का 'सांस्कृतिक दिवालियापन' जिस राजनीतिक दल ने दिखाया, इसने ही इमरजेंसी के दौरान इनके साहस का समर्थन किया था. वैसे भी सभी का अपना एक अलग चरित्र होता है. इससे पहले एक अन्य राजनीतिक दल के दौर में देश के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में से एक शरद जोशी के घर के साथ भी आधुनिकीकरण का इसी तरह का हादसा हो चुका है. और यहां आज पूरे शान के साथ 'प्लेटिनम प्लाजा' नाम का व्यवसायिक परिसर अपने सूट और बूट के साथ खड़ा है.


जब कभी इस तरह के दर्दीले वाकयें सुनने या पढ़ने में आते हैं, मन में कुछ सवाल शूल की तरह उभरकर चुभने लगते है. पहला और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्‍न यही उभरता है कि क्या संस्कृति और आधुनिकता में सांप और नेवले का रिश्‍ता है? क्या दोनों अंधे और लगड़े की जोड़ी की तरह दोस्ती करके अपना सफर तय नहीं कर सकते? साथ ही यह भी कि क्या इस तरह के स्मृतिपूर्ण भवनों के संरक्षण के लिए कोई स्थापित 'संस्कृति नीति' है? क्या इस तरह की घटनायें भविष्य की पीढ़ी को संस्कार एवं संस्कृति शून्य बनाने की ओर नहीं ले जाएंगी? जैसा कि मध्य प्रदेश सरकार ने 'आनंद मंत्रालय' बनाया है, क्या यह घटना आनंद के आदर्शों के अनुकूल है? अंत में यह भी कि क्या पूरी दुनिया ऐसा ही कर रही है?


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मैं यहां पोलैण्ड की राजधानी वार्सा की चर्चा करना चाहुंगा, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव मेरे पास है. द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान तानाशाह हिटलर की नाजी सेना ने इस शहर पर भयानक बमबारी करके इसे पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया था. न जाने किस संयोग से इसका एक छोटा सा टुकड़ा खड़ा रह गया. युद्ध की समाप्ति के बाद पूरे वार्सा को फिर से बनाया और बसाया गया, वह भी आधुनिक तरीके से. लेकिन उस विभीषिका में बचे इस टुकड़े को छेड़ा नहीं गया. आप आज भी उसे देख सकते हैं. वह जगह उस शहर की सबसे बेकार, अस्त-व्यस्त, पिछडी हुई किंतु सबसे सुंदर जगह है, जिसने वार्सा के माथे पर चार चांद उगा दिया है. वह उजाड़ सा दुबका हुआ टुकड़ा वार्सा की स्मृति का कोष है.
हमें सोचना होगा कि जिस राष्ट्र और समुदाय के पास अपना अतीत नहीं होगा, वह न तो वर्तमान का सही लुत्फ उठा सकता है, और न ही अपने भविष्य को संवार सकता है. एफ - 69/8, एक पता नहीं, ईंट और सीमेंट से बना एक मकान नहीं, बल्कि इस देश की भावना का संचित एक स्मृति कोष था, जिसे अब वापस नहीं पाया जा सकता. मैं स्वयं को इस अपराध में शामिल पा रहा हूं. हे मकान, मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)