डियर जिंदगी: आप किसके साथ हैं!
परेशानी अगर है तो इसमें कि आप पहले हामी भरते हैं, फिर उसे बिसरा देते हैं. कितनी आसानी से हम कह देते हैं, ‘मैं हूं ना’
‘अरे! कैसी बात कर रहे हैं, मैं आपके साथ हूं.’ इस भाव के संवाद फिल्मों, हमारे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं. इस इकलौते वाक्य में इतनी शक्ति है कि मुश्किल की नदियां इस हौसले से पार हो जाती हैं, लेकिन रोबेटिक शिक्षा, समाज से दूरी, फोकस खुद पर होने के कारण इस डॉयलॉग का वजूद खतरे में है. इसमें ‘वह’ बात नहीं रही. अपने वादे, कही बातों को भूलने की सजा हम खुद ही उठा रहे हैं.
अविश्वास की 'बेल' दुनिया की सैर करके अपने 'माली' के गले आकर ही लिपटती है. सबकी मदद करने का हुनर, शक्ति सबके पास नहीं होती. हम सबकी सीमा है. उससे आगे जाना संभव नहीं.
लेकिन इसके मायने हमने कुछ उल्टे समझ लिए. अगर आप किसी की मदद नहीं कर सकते, रहे हैं, तो यह बात उस तक पहुंचाने में कैसी दुविधा!
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इस दुविधा का परिणाम किसी दूसरे के लिए अस्तित्व का प्रश्न बन जाता है. इसलिए उनके लिए जो किसी की मदद करने की स्थिति में हैं (जोकि उनके अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि असल में वह कितने समर्थ हैं) उन्हें यह बात समझने की जरूरत है कि किसी के लिए दुविधा से कहीं बेहतर शब्द ‘न’ है.
लेकिन अब जीवन से ‘न’ शब्द विलुप्त होता जा रहा है. किसी से भी बात करके देखिए. कोई ‘न’ कहता ही नहीं. क्योंकि ‘न’ कहने के लिए भीतर गहरा साहस चाहिए.
दिल और दिमाग में स्पष्टता चाहिए. खुद के भीतर का अहंकार अनेक मौकों पर ‘न’ कहने से रोकता है.
किसी के साथ न होने, किसी का साथ न देने में कोई नई बात नहीं. अपराध भी नहीं. यह निजी विचार है. जिसका सम्मान होना चाहिए. वास्तव में यह समस्या भी नहीं.
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परेशानी अगर है तो इसमें कि आप पहले हामी भरते हैं, फिर उसे बिसरा देते हैं. कितनी आसानी से हम कह देते हैं, ‘मैं हूं ना’.
जबकि यह कहते हुए जब बात दिल से जुबां की यात्रा पर होती है, तभी असलियत भी जान रहे होते हैं, लेकिन हमें ‘न’ कहना ही नहीं, इसीलिए हम ‘हां’ का बटन दबाते हैं.
यह जानते हुए भी कि मैं आपका साथ नहीं दूंगा, यह कहना कि मैं आपके साथ हूं. मनुष्यता के लिहाज से बड़ा अपराध है. क्योंकि जिससे यह सब कहा जा रहा है, वह आपके धोखे में रहता है. आपकी आस में रहता है. ऐसी आस में जिसमें कभी कोपलें नहीं आने वाली हैं, लेकिन आपने वादा हरे-भरे पौधे का कर दिया.
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इंदौर से रोशन मित्रा लिखते हैं, 'जीवन में कम से कम दो अवसर ऐसे आए, जब उन्होंने मदद के दरवाजे बंद कर लिए, जो ‘मैं हूं ना’ के नारों के साथ खड़े थे. वह हमेशा खड़े ही रहे. कभी मदद के लिए ‘बैठे’ नहीं! उसके बाद तय किया कि कभी किसी के भरोसे मत बैठो और दूसरों के साथ वह मत करिए जो अपने लिए पसंद नहीं.’
कितनी खूबसूरत बात है, दूसरों के साथ वह नहीं करना जो अपने लिए पसंद नहीं. यह बात कहने में बहुत आसान लगती है, जबकि जीवन के आंगन में इसके साथ महकना मुश्किल है.
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लेकिन मनुष्यता और ‘डियर जिंदगी’ का रास्ता इससे होकर ही गुजरता है. इसलिए कम कहिए, लेकिन तभी कहिए जब उसकी रक्षा कर सकें. और जो भी कह दें, उस ‘करार’ को ताउम्र निभाइए...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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