डियर जिंदगी: सबकुछ सुरक्षित होने का ‘अंधविश्वास`
हमारी सोच-समझ और विश्वास धीमे-धीमे बनते हैं, लेकिन उनकी जड़ें बरगद जैसी होती हैं. एक बार उनके बन जाने पर मनुष्य की चेतना में परिवर्तन लगभग असंभव जैसा होता है.
सुनने में बात जरा नई, अजीब लग सकती है. सुरक्षा और विश्वास का कैसा संबंध! इसलिए संवाद की ओर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़िए. मन की सतह से ऊपर उठकर अवचेतन की अंतर्यात्रा पर निकलिए!
भारतीय एक साथ दो स्तर पर जीते हैं. पहला क्या होना चाहिए. दूसरा करना क्या है. हमारे कहने, जीने की अदा में इतना ज्यादा अंतर है कि कई बार खुद को पहचानना ही मुश्किल हो जाता है. अब जब खुद को ही पहचानना मुश्किल हो, तो दूसरों के बारे में कोई राय, समझ कैसे बनाई जा सकती है.
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ध्यान दीजिए कि आपके अलावा हर कोई ‘दूसरा’ है. हम स्वयं में इतनी बड़ी सत्ता, शक्ति और दुनिया हैं कि इसमें किसी दूसरे का प्रवेश वर्जित जैसा है. हमारी सोच-समझ और विश्वास धीमे-धीमे बनते हैं, लेकिन उनकी जड़ें बरगद जैसी होती हैं. एक बार उनके बन जाने पर मनुष्य की चेतना में परिवर्तन लगभग असंभव जैसा होता है.
यही कारण है कि हम देश में जाति, दहेज और स्त्री के विरुद्ध हिंसा को अब तक मन से नहीं मिटा पाए हैं. हम ट्रेन में जा रहे हैं. एक-दूसरे से सरल भाव से खाना साझा हो रहा है, लेकिन अचानक ‘सरनेम’ के सामने आते ही माहौल असहज हो जाता है.
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दहेज के मामले में हमारी सोच और व्यवहार में जो अंतर है, वह हमारे मन में बरगद जैसी गहरी जड़ों का असर है. जहां हमने सीखा कि कहने में बातें, चीजें आदर्श के 'वाशिंग पाउडर' से धुली चमकदार होनी चाहिए, लेकिन व्यवहार में वह वैसी ही होनी चाहिए, जैसी सबको सूट करती हैं. जैसी चीजें चली आ रही हैं, वैसी ही चलती रहें.
समाज, सरकार की समझ ऐसी ही है. चेतना के बाह्य स्तर पर आपको चीजें बदलती हुई दिख सकती हैं, लेकिन ‘भीतर’ जाकर देखने से आप समझेंगे कि बदलाव तो घर के बाहर प्रतीक्षा में ही खड़ा है.
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स्त्रियों के साथ व्यवहार में भी हमारे ही बाहर और भीतर का संघर्ष सामने आ रहा है. पूरे देश में बेटियों के विरुद्ध होने वाले अपराध, ससुराल में होने वाले अपमानजनक व्यवहार और महिला गौरव गान के नारे में कोई समानता नहीं है.
बात जरा विस्तार में चली गई. अब लौटिए मूल विषय की ओर. मनुष्य, समाज के सबसे बड़े संकट में से एक है, सबकुछ सुरक्षित होने का 'अंधविश्वास'!
सुरक्षा किससे. और किस हद तक. शिक्षा हमको क्या सिखा रही है. उसका हासिल क्या है? शिक्षा का कुल जमा हासिल यह है कि हम नौकर बनना सीख रहे हैं. हम नौकरी करना सीख रहे हैं. सच तो यह है कि हम खूब पढ़ते-लिखते ही इसलिए हैं ताकि नौकरी कर सकें.
भारतीयों के लिए शिक्षा के मायने केवल नौकरी रह गए हैं. नौकरी भी कैसी! ऐसी कि एक बार मिल जाए तो छूटे नहीं. कुछ नया करने को न मिले तो कोई बात नहीं, लेकिन हर महीने के आखिरी दिन आने वाले ‘एसएमएस’ में कोई कमी नहीं चाहिए.
मैं यहां कोई नई बात नहीं कह रहा. गूगल, माइक्रोसाॅफ्ट और फेसबुक से लेकर विज्ञान तक के क्षेत्र में सक्रिय दुनिया के सबसे रोशन दिमाग अलग -अलग मौकों पर इस ओर संकेत कर चुके हैं.
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पढ़ाई का संबंध नौकरी से जुड़ने, एक ही जगह चिपक कर रहने की प्रवृत्ति के कारण भारतीय रिसर्च, अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में हर दिन कम होते जा रहे हैं. सुरक्षित होने की बात हमारे ‘डीएनए’ का हिस्सा बनती जा रही है. थोड़ा सोचकर बताइए कि पिछले दो-तीन दशक में क्या किसी भारतीय कंपनी ने आईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में इनोवेशन किए हैं. यह सारी कंपनियों सर्विस क्षेत्र में हैं. लेकिन वह किसी क्षेत्र में ऐसा नहीं कर रहीं, जिससे समाज, दुनिया में मौलिक परिवर्तन आ सके. हमारी सोच-समझ नए वैज्ञानिक स्तर पर पहुंच सके.
सबकी जड़ में असुरक्षित भारतीय मन है. हमारे यहां चीजों को ‘बनाए’ रखने पर इतना अधिक जोर दिया गया है कि हम किसी तरह बस जो ‘चल’ रहा है, उसे बचाए रखना चाहते हैं, उससे एक इंच भी टस से मस नहीं होना चाहते. चेतना, विचार में जोखिम तो हमसे इतने दूर हैं कि सपने में भी हमारे पास आने का साहस नहीं कर पाते.
(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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