डियर जिंदगी : ‘सर्कस’ होने से बचिए...
जाने-अनजाने हम नेशनल पार्क की आजादी की जगह ‘सर्कस’ वाला जीवन जी रहे हैं. दूसरों के वादे, रहम पर जिंदगी में शांति, सुकून तलाश रहे हैं. पतंग का मालिक डोर खरीदने वाला नहीं, उड़ाने वाला होता है. इसलिए अपने जीवन की डोर दूसरे को थामने का अवसर न दें.
सर्कस और नेशनल पार्क में क्या अंतर है! जो दोनों जगह गए हैं, वही असली बात बयां कर सकते हैं. जो नहीं गए, वह दूसरों के अनुभव के आधार पर कहानी कह सकते हैं, लेकिन वन्यप्राणियों की मानसिकता, आजादी, व्यवहार के बारे में उनके लिए कुछ कह पाना मुश्किल है.
सर्कस में जानवर प्रशिक्षित हैं. उन्हें काम के बदले भोजन मिलता है. इस तरह उनका ‘करियर’ सुरक्षित है. शिकारी से भय नहीं, खतरनाक मनुष्यों और जानवरों का डर नहीं.
दूसरी ओर नेशनल पार्क के वन्यप्राणी हैं. खतरा, चुनौती हर कदम पर. भोजन के लिए खुद ही जतन करने हैं. इसके बाद भी क्या कोई वन्यप्राणी इच्छा से सर्कस चुनेगा. विचार अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इस बारे में शायद ही असहमति हो कि जीवन का सुख कहां अधिक सुरक्षित है.
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जाने-अनजाने हम नेशनल पार्क की आजादी की जगह ‘सर्कस’ वाला जीवन जी रहे हैं. दूसरों के वादे, रहम पर जिंदगी में शांति, सुकून तलाश रहे हैं. पतंग का मालिक डोर खरीदने वाला नहीं, उड़ाने वाला होता है. इसलिए अपने जीवन की डोर दूसरे को थामने का अवसर न दें. अपनी सोच-समझ से खुद फैसले लीजिए. वह गलत हो सकते हैं, तो होने दीजिए, क्योंकि अंत उन्हें अपना कहने का सुख तो होगा!
निर्णय लेने की क्षमता दूसरे के पास गिरवी मत रखिए. जीवन की सबसे खूबसूरत चीज का मोल जब तक आप नहीं समझेंगे, हीरे भी चांदी के भाव दूसरों को थमाते रहेंगे.
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सोचन-समझने की शक्ति, निर्णय लेने की क्षमता प्रकृति का मनुष्य को सबसे बड़ा वरदान है. लेकिन यांत्रिक, संवेदनशून्य शिक्षा और यथास्थितिवादी समझ ने हमें वैज्ञानिक नजरिए से वंचित कर दिया है.
निर्णय लेने का अधिकार मनुष्य होने का सबसे खूबसूरत अहसास है. हम क्या हो सकते हैं, इसकी पहली सीढ़ी तो हमारा निर्णय है. लेकिन अक्सर हम खास अवसर पर निर्णय लेने से हिचकते ही नहीं, बल्कि भागते रहते हैं.
मिसाल के लिए भारत में बच्चे क्या पढ़ें, कहां पढ़ें जैसे निर्णय खुद नहीं लेते. शादी, बच्चे की परवरिश और करियर जैसे निर्णय के लिए हम दूसरों को फॉलो करते हैं. जिंदगी के सबसे अहम पड़ाव के लिए हमेशा दूसरों की ओर देखते रहते हैं. यह तीन चीजें हमारी सोच, समझ और निर्णय लेने की क्षमता का सबसे सरल, सामान्य उदाहरण हैं.
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हममें से कितने लोग हैं, जो इन तीनों के दौरान वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं! उत्तर भारत में शादियों के दौरान वर पक्ष का व्यवहार अभी भी शालीन, सभ्य कहे जाना तो दूर, सामान्य के निकट भी नहीं है. क्योंकि हमने लड़़के और लड़की के बीच अंतर को मन से दूर नहीं किया है. ऐसा भी नहीं कि हम इस दिशा में आगे नहीं बढ़े, लेकिन हमें अभी बहुत दूर जाना है. परिवार में लड़कियों की शिक्षा में तो बाधाएं अब कम आ रही हैं, लेकिन शिक्षा के बाद उनके करियर और शादी के सवाल पर हमारा रवैया ‘सर्कस’ वाला ही है.
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हम लड़कियों पर अब भी शासन करने वाले समाज के रूप में ही पहचाने जा रहे हैं. बच्चों, महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार पर हमारी प्रतिक्रिया इसका सबसे प्रबल प्रमाण है.
बच्चे क्या पढ़ें, कौन सा रास्ता चुनें, यह हमारे समाज का सर्कस से प्रेम दिखाने वाला दूसरा काम है. हम बच्चों को पालते तो नेशनल पार्क वाली फीलिंग से हैं, लेकिन हमारा आचरण हमेशा सर्कस वाला होता है. हम बच्चों पर इस हद तक नियंत्रण चाहते हैं कि यह कामना हमें मनोरोगी बनने की ओर धकेल रही है.
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बच्चों में अपनी कामयाबी की खोज, अपनी हसरत पूरी करने की चाह हमें ऐसी ही सनक की ओर ले जाती है. हम निरंतर ऐसा किए जा रहे हैं, क्योंकि हमें ऐसा ही करने की ट्रेनिंग मिली है. ऐसा ही करने के लिए हम प्रशिक्षित किए गए हैं.
आखिर में करियर. नौकरी. यहां भी हमारा व्यवहार अपने निर्णय खुद करने की जगह दूसरों के हिसाब से चलने वाला है. हम जब तक बादल देखकर मौसम की चाल समझने की कोशिश नहीं करेंगे, रेनकोट बनाने वाली कंपनियां हमें गर्मियों में भी रेनकोट बेचती रहेंगी.
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करियर के मामले में भी सजग और भविष्यवादी दृष्टि का विकास होना जरूरी है. सबका सम्मान करिए, सबके साथ रहिए, लेकिन हमेशा निर्णय अपना करिए. क्योंकि जीवन एक और सपने अनंत हैं. ‘सर्कस’ में शेर भी रिंग मास्टर के हंटर की फटकार पर नाचते हैं. इसलिए, समझिए कि जिंदगी ‘सर्कस’ नहीं है और आप मनुष्य हैं...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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