डियर जिंदगी : काश ! हम बच्चों की तरह जीना सीख लें…
बच्चे कितनी सरलता से माफ कर देते हैं, एक-दूसरे को. एक-दूसरे के प्रति उनके मन में क्रोध तो हो सकता है, लेकिन वह बैर नहीं करते.
बच्चों और हमारे बीच सबसे बड़ा अंतर उस शिक्षा का है, जो पहले उसे दी जाती है और बाद में जिसे भुलाने के लिए विवश किया जाता है. आज उन चीजों पर बात करेंगे, जो अगर हम भूले नहीं होते तो यह संसार कुछ और बन जाता. हम बच्चों को जो सिखाते हैं, अगर उन पर खुद अमल करते तो यह दुनिया ऐसी जगह बन जाती कि ‘स्वर्ग, जैसी अभिलाषा’ कभी न जन्मती.
आइए, बच्चों से कुछ सीखें. हमारे बीच हिंसा इसलिए इतनी बढ़ गई कि हम भूलना भूल गए हैं. जबकि बच्चे आपसी विवाद और कटु अनुभवों को हमारी (बड़ों) तुलना में आसानी से भूल जाते हैं. बच्चे ‘रात गई और बात गई’ वाले दर्शन के उस्ताद हैं. बच्चों के पास वह सुविधा है, जिसके लिए हम बड़े रात-दिन परेशान हुए जा रहे हैं. सच पूछिए, तो बच्चों के पास न जाने ऐसी कितनी आदतें, सुकून हैं, जिसके लिए हम बड़े तरसते जा रहे हैं.
बच्चे कितनी सरलता से माफ कर देते हैं, एक-दूसरे को. एक-दूसरे के प्रति उनके मन में क्रोध तो हो सकता है, लेकिन वह बैर नहीं करते. जैसा हम सब जानते हैं कि बैर तो गुस्से का आचार है. बैर, दुश्मनी कुछ और नहीं, बस क्रोध को पालना है. जिसमें हम (बड़े) हर दिन माहिर होते जा रहे हैं.
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हम एक दूजे के लिए न केवल प्रेम, स्नेह कम करते जा रहे हैं, बल्कि एक-दूसरे को क्षमा करने की हमारीशक्ति हर दिन कम होती जा रही है. इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि एक-दूसरे से क्षमा मांगने का हमारास्वभाव विलुप्त होने की कगार पर है. जब क्षमा मांगने का स्वभाव गायब होता जा रहा है तो क्षमा मिलेगी कहां से. जैसे जैसे मन से माफी मांगने की अभिलाषा का लोप होता जाएगा, हमारे भीतर क्रोध का अचार या दुश्मनी का भाव गहरा होता जाएगा.
बच्चों के भीतर एक और बड़ा गुण है, सत्य का. जो जैसा है, उन्हें लगता है, उसे कहने का. बड़े होते ही हमारे भीतर से यह गुण गायब हो जाता है. क्योंकि हम जैसे ही किसी को कुछ बताते हैं, उसे हमारा परपज़\उद्देश्य निहित हो जाता है. हम यह सोचकर उसे बताते हैं कि उसे लगेगा कैसा.
याद रखिए, जिसमें आपका परपज़ जुड़ जाएगा, वह राय, वह विश्लेषण सत्य कैसा होगा. उस सत्य में मिलावट हो जाएगी. अपने हित की. हम देखते नहीं दुनियाभर के विश्लेषकों को. उनके ज्ञान, अध्ययन पर अगर किसी एक चीज़ का पहरा है, तो वह है, अपने उद्देश्य की मिलावट का.
मैंने बहुत बचपन में एक कहानी सुनी थी. आज आपको भी सुनता हूं.
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एक फकीर थे. उनके पास एक नगर सेठ पहुंचा. उसने कहा, 'मैंने धन छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया. सारे संसाधन छोड़ दिए. अब अक्सर व्रत पर रहता हूं, किसी से कुछ नहीं कहता. लेकिन कहीं मुझे सत्य नहीं मिला. भला, वह कहां मिलेगा.'
फकीर ने आसमां की ओर देखते हुए कहा, सत्य इस धरती और आसमां में कहीं अगर है और किसी को मिलेगा तो वह हैं, बच्चे. क्या तुम बच्चे बन सकते हो. अगर हां तो तुम्हें सत्य मिल जाएगा.
फकीर बाबा ने आगे समझाया, ‘सत्य उनको मिलेगा, जो बच्चों की तरह रहते हैं. जिनकी कोई शर्त नहीं है,जो संसार को बस ऐसे ही देख रहे हैं. जो आंख की सीमा में आ रहा है, उसे देख रहे हैं. किसी योजना से नहीं देख रहे हैं. उनके देखने और हमारे देखने में अंतर यही है कि हम उद्देश्य के साथ देख रहे हैं और वह बस देख रहे हैं. वह कुछ खोज नहीं रहा है, वह किसी तलाश में नहीं है. जबकि हम हमारे तलाश में हैं. कहने को तुम त्यागी हो गए, तुमने सब त्याग दिया, क्योंकि तुम कुछ खोज रहे हो, कुछ चाहते हुए कुछ तलाश रहे हो, जबकि बच्चा बिना चाहत के संसार को चाह और देख रहा है.’
क्या हम बच्चों से कुछ सीख रहे हैं. इसका उत्तर हर किसी को खुद देना होगा.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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