इससे पहले कि आप पूछें कि यहां असफल का क्‍या अर्थ है, मैं स्‍पष्‍ट करना चाहता हूं कि मेरे लिए असफल एक अर्थहीन शब्‍द है. लेख के शीर्षक में उपयोग किए गए 'असफल' शब्‍द का अर्थ उन लोगों की भावनाओं से लिया गया है, जो बच्‍चों को प्रोडक्‍ट की तरह इस्‍तेमाल करने पर तुले हुए हैं. यह उनके लिए है, जो बच्‍चों की मूल रुचियों, स्‍वभाव को समझने की कोशिश नहीं करते. उसके अनुसार उसे तैयार होने देने की जगह, अपनी चाहत के अनुसार उसे तैयार करने की कोशिश में जुटे हैं.


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बच्‍चे, इसलिए असफल नहीं होते, क्‍योंकि वह 'कुछ' नहीं करना चाहते. बल्कि इसलिए क्‍योंकि हम अपनी 'पसंद' के जूते उनके पांव में फि‍ट करना चाहते हैं.


गलत नाप, फि‍टिंग के जूते पहने बच्‍चा जब घर में ठीक से नहीं चल सकता तो यहां तो मुकाबला उस दुनिया से है, जो उसे नाकाबिल बनाने के लिए बेकरार है.


हार और जीत, जिंदगी के अंतरंग हिस्‍से हैं. हमेशा साथ चलने वाले. लेकिन इन दिनों 'हवा' में कुछ ऐसा है,जो जीतने को इतने अधिक महत्‍व का बता रहा है कि हार का अर्थ जीवन पर सीधे संकट से लगा लिया गया है. 'तनाव और आत्‍महत्‍या' का समाज पर संकट इतनी तेजी से गहरा रहा है कि हमें हार और जीत के रिश्‍तों को नए सिरे से समझने की जरूरत है.


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पिछले दो महीने में ही आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में 60 से अधिक बच्‍चे आत्महत्या कर चुके हैं. यह सभी मेडिकल और आईआईटी जैसे संस्थानों में दाखिले की तैयारी कर रहे थे और प्रीपेरेटरी कॉलेजों में पढ़ रहे थे. इन बच्‍चों की अब तक जो भी रिपार्ट सामने आई है, उसके अनुसार परीक्षा में असफल रहने पर उनके प्रति समाज, दोस्‍तों और परिवार का रवैया भेदभाव से भरा है.


आत्‍महत्‍या में जो बच्‍चे हमने खो दिए उनके साथ कैसा व्‍यवहार हुआ, यह कह पाना मुश्किल है. लेकिन आत्‍महत्‍या की कोशिश के दौरान बचा लिए गए एक छात्र का कहना है, 'परीक्षा में फेल होने पर हमें अपमानित किया जाता है, भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है. जो बच्चे परीक्षाओं में बेहतर करते हैं उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है.' उसकी बात को शिक्षा संस्‍थान, समाज और परिवार तीनों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.


समाज, मीडिया सफल बच्‍चों के यशगान में इतना व्‍यस्‍त हो जाता है कि उसे ध्‍यान ही नहीं रहता कि असफल बच्‍चे किसकी जिम्‍मेदारी हैं. हम यह तक भूल जाते हैं कि बच्‍चा जैसा भी है, वह है तो हमारा ही. क्‍या परिवार में उसकी जगह महज कुछ परिणाम तय करेंगे. कुछ नंबर से हम उसके भविष्‍य का सर्टिफि‍केट नहीं तय कर सकते.


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हम बार-बार मनोचिकित्‍सकों, बाल विशेषज्ञों की सलाह को ठुकराकर बच्‍चों से रोबोट की तरह पेश आ रहे हैं. हम बच्‍चों पर अपने सपने थोपे जा रहे हैं. उन्‍हें अपनी अधूरी इच्‍छाओं का औजार बनाने पर आमादा हैं. इसलिए, हम बच्‍चों को अपने हिसाब से तैयार करना चाहते हैं. उन्‍हें वह सपने देखने के लिए प्रेरित करते हैं, जो हम नहीं कर सके. भले ही उनके मन, दिल की आवाज कुछ और क्‍यों न कहती हो.


इसलिए घर, कॉलोनी और मोहल्‍ले चंद बच्‍चों की जय-जयकार से गूंजते रहते हैं, जो उन सपनों में अपने पांव किसी तरह ठूंस लेते हैं, जो उनके अभिभावक चाहते हैं. दूसरी ओर बड़ी संख्‍या में ऐसे बच्‍चे हैं, जो अपने परिवार की योजना में ही फि‍ट नहीं हो रहे हैं. ऐसे बच्‍चे असफल करार दे दिए जा रहे हैं.


जितना जल्‍दी हो, हमें इस खतरनाक ट्रेंड को रोकना होगा. हम सफल और असफल जैसे खतरनाक शब्‍दों का उपयोग जितना कम करेंगे, बच्‍चों के लिए उतना ही बेहतर होगा.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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