डियर जिंदगी : कुछ नहीं बदलता, काश! तुम यह समझ लेते...
हम गुस्से को संभालना. तनाव से निकलना, हर दूसरी भावनात्मक बात पर आहत हो जाने से जितना जल्दी उबरना सीखेंगे, एक समाज के रूप में उतनी जल्दी स्वस्थ होते जाएंगे.
'आत्महत्या किसके प्रति बड़ी हिंसा है! अपने या उनके प्रति जो उससे प्रेम करते हैं. इस पर खूब बहस हो सकती है. लेकिन हम उसका क्या करें, जो हमें छोड़कर इसलिए चला गया क्योंकि वह हमें सजा देना चाहता था. नाराजगी और आत्महत्या दोनों एकदम विरोधी बाते हैं. काश! वह समझ पाते कि इससे हमें कोई सबक नहीं मिला, हां हमारी जिंदगी कुछ समय के लिए मुश्किल जरूरी हुई, बस!'
मुझे शनिवार को मैसूर से कोमल ताम्रकार का एक ईमेल मिला. यह उसका छोटा सा हिस्सा है. जिसमें युवती ने लिखा है कि कैसे छोटी-सी बात पर बिना कुछ कहे उनके पति ने आत्महत्या कर ली. पंद्रह मिनट पहले दोनों चाय पी रहे थे, गपशप कर रहे थे. महंगाई, बजट पर बात हो रही थी. तभी मायके-ससुराल को लेकर कुछ बहस हो गई. पति महोदय, एकदम तमतमा गए. बोले, जल्दी सबक सिखाता हूं, पता चल जाएगा कि मेरे बिना जिंदगी कितनी मुश्किल है. पत्नी किसी काम से दूसरे कमरे में चली गईं. उसके बाद वह बेटी के साथ खेलने लगे और कुछ देर बाद दूसरे कमरे में जाकर आत्महत्या कर ली.
इस घर के दूसरे हिस्से में मौजूद उनके बुजुर्ग माता-पिता के लिए इकलौते बेटे की यह सूचना कितनी दुखदायी रही होगी, इसे लिखा नहीं जा सकता.
कोमल पर जिंदगी पूरी कठोरता से टूट पड़ी...
पति के इस तरह साथ छोड़ने के बाद कोमल ने फैसला किया कि वह बेटी पर ध्यान केंद्रित करेंगी. उनके पास तो शोक के लिए भी समय नहीं बचा, क्योंकि घर, बुजुर्ग सास-ससुर की देखभाल के लिए नौकरी अंतिम विकल्प थी.
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जिंदगी में जो कोमलता है, वह मन में है. भावना में है. रिश्तों में है. लेकिन जिंदगी जिससे चलती है, वह तो कठोर यथार्थ ही है. श्रम है. उसके बिना अस्तित्व कैसे रहेगा. समाज ने कोमल को संभलने में मदद की जगह क्विंटल भर ताने उपहार में दिए. ससुराल की ओर से बेटे की गलती, उसके मानसिक रूप से कमजोर होने की जिम्मेदारी लेने की जगह बहू को जिम्मेदार ठहराया गया. उसे परेशान करने के तरीके तलाशे जाने लगे. जबकि यह एक परंपरागत विवाह था. रिश्तेदारों ने 'देखभाल' कर वधू की तलाश की थी.
बेटे को तो सब पहले से जानते थे, ऐसे में उसकी जिम्मेदारी केवल बहू पर कैसे थोपी जा सकती है.
इन दिनों ज्यादातर आत्महत्या के मामले सीधे तौर पर हमारे व्यक्तित्व से जुड़े हुए हैं. बेवजह के गुस्से, तनाव से जुड़े हुए हैं. हम रिश्तों में सुनने, समझने की गुंजाइश खत्म करते जा रहे हैं. बात-बात पर एक-दूसरे को डराने, धमकाने की ओर बढ़ रहे हैं. आत्महत्या की धमकी जैसी शिकायतें इन दिनों 'लाइफ कोच/कांउसलर्स' के पास अचानक से बढ़ गई हैं. पति/पत्नी यह नहीं समझ पर रहे हैं कि एक-दूसरे से कौन-सी बात करने से बचें, जिससे विवाद न हो. इससे तो जिंदगी हमेशा डर का चिड़ियाघर बनकर रह जाएगी. संवाद की जगह डर जीवन का स्थायी भाव बन जाएगा.
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असहमति जीवन का सबसे खूबसूरत शब्द है, जो विलुप्त होने की कगार पर है. एक-दूसरे के लिए जगह खत्म होती जा रही है. छोटी-छोटी बात पर तुनकना, खुद को न संभाल पाना, नाराजगी से घिरे रहना नई राष्ट्रीय समस्या है.
हम गुस्से को संभालना. तनाव से निकलना, हर दूसरी भावनात्मक बात पर आहत हो जाने से जितना जल्दी उबरना सीखेंगे, एक समाज के रूप में उतनी जल्दी स्वस्थ होते जाएंगे. अगर आपको कोई बात परेशान कर रही है, कुछ है, जो भीतर ही भीतर खौल रहा है, तो उसे बाहर लाइए. उस पर बात करिए. जैसे बुखार, दूसरी मौसमी बीमारियों पर आप डॉक्टर के पास दौड़े जाते हैं. उसी तरह 'मन' का भी ख्याल करिए.
और हमेशा याद रखिए. सबसे जरूरी, पहले आप हैं. पहले अपनी जिंदगी को बचाइए. आप हैं, तो सबकुछ है. आप नहीं तो बस मिट्टी है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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