डियर जिंदगी : रो लो, मन हल्का हो जाएगा!
हमारे यहां तो रोना सहज अभिव्यक्ति रही है. रोने से मन हल्का होता है. ऐसा हम बचपन से सुनते आए हैं, लेकिन कुछ अधिक शहरी होते ही, हमारे मिजाज में कठोरता ऐसी घुली कि हंसना तो टीवी, मोबाइल के सहारे बढ़ गया, लेकिन रोकर मन के मैल को साफ करने का चलन छूट गया है.
हम भारतीय तकनीक, विज्ञान के बारे में जापान का नाम जपते हुए ही बड़े हुए हैं. कभी हम एक-दूसरे पर रौब दिखाने के लिए ‘मेड इन जापान’ बड़ी शान के साथ कहते थे. जापान में बनी चीजों का क्रेज इतना था कि धीरे-धीरे असली,नकली सब पर जापान का नाम सवार हो गया.
जापान की तकनीक, उनके विज्ञान में आगे होने की बातें हम न जाने कब से सुन रहे थे. वहां के समाज ने विज्ञान के उपयोग से अपने को हमेशा अमेरिका, यूरोप के समकक्ष रखा. इसके साथ ही एक और बात जो जापान ने समय रहते सीखी वह थी, परमाणु बम से तौबा! उनने अपनी शक्ति विज्ञान के सृजनात्मक योगदान को बढ़ाने की दिशा में की.
तरक्की, विज्ञान के रास्ते पर चलते हुए जापान का समाज एक ऐसे दौर में पहुंच गया, जहां अब रोबोट वह सबकुछ करने की स्थिति में आ गया, जिसके लिए मनुष्य खुद पर इतराते थे. रोबोट का चेहरा कुछ इस तरह है कि उसमें स्माइली को तो जोड़ा जा सकता है, लेकिन आंसू को उसमें शामिल करना शायद संभव न हो! आंसू अक्सर उसमें डाल भी दिए जाएं तो भावना कहां से लाएंगे, यह ‘यक्ष प्रश्न’ बना है.
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संभवत: यहीं से होकर जापान आंसू के प्रश्न पर रूका. उनने यह विचार प्रारंभ किया कि हंसी, ठहाके के बीच हमारे अवचेतन मन में दुख का ऐसा मैल जम गया है, जिसकी सफाई केवल आंसू कर सकते हैं, जिसके कारण जीवन में तनाव बढ़ रहा है.
जापान इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है. वहां के ऑफिस, स्कूल, कॉलेज में सबको रोने के लिए प्रोत्साहित, निमंत्रित किया जा रहा है. रोना सिखाने के लिए यहां जो शिक्षक रखे गए हैं, उनको ‘टीयर्स टीचर्स’ कहा जाता है.
दुख गहरा होकर निराशा के रूप में मन की ओर जाता है, जहां से उसे डिप्रेशन का रास्ता मिल रहा है. वहां आंसू से दुख को बहाने के काम में जुटे जुंको उमिहारा कहते हैं कि तनाव से लड़ाई में आंसू सेल्फ डिफेंस की तरह हैं. बाकी चीजें, उपचार तो बाद की बातें हैं, लेकिन सबसे पहला दांव तो सेल्फ डिफेंस ही होता है. इसलिए जुंको रोने को बुनियादी उपचार मानते हैं.
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यहां पांच बरस से टीयर्स टीचर का काम करने वाले हिदेफी योशिदा स्वयं को नामिदा सेंसई (टीयर्स टीचर्स) कहते हैं. योशिदा का मानना है कि रोना, हंसने और सोने से भी अधिक फायदेमंद है.
टीयर्स टीचर्स को जापान में स्कूल, कॉलेज के साथ कंपनियों में भी बहुत तेजी से मान्यता मिल रही है. वहां भी भारत की तरह तनाव, डिप्रेशन पर अब तक संवाद की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. कंपनियां अपने कर्मचारियों की मानसिक सेहत के प्रति सजग नहीं थीं. अब आंसुओं के माध्यम से इस ओर ध्यान देने की कोशिश की जा रही है.
और हम!
हमारे यहां तो रोना सहज अभिव्यक्ति रही है. रोने से मन हल्का होता है. ऐसा हम बचपन से सुनते आए हैं, लेकिन कुछ अधिक शहरी होते ही, हमारे मिजाज में कठोरता ऐसी घुली कि हंसना तो टीवी, मोबाइल के सहारे बढ़ गया, लेकिन रोकर मन के मैल को साफ करने का चलन छूट गया है.
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इससे एक दूसरे के प्रति कुंठा, तनाव और अवसाद बढ़ा है. क्या इस बार हम जापान से वह सीखेंगे, जो संभवत: यहीं से जापान गया है!
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