डियर जिंदगी: अरे! कितने बदल गए...
बच्चे बहुत तेज़ी से सीखते, समझते और नई चीज़ के लिए तैयार होते हैं. विडंबना यह है कि बड़े होते ही हम अपना ही सबसे अनमोल गुण बिसरा देते हैं.
एक चीज़, जो सबसे अधिक स्थाई है, हम उसे परिवर्तन के नाम से जानते हैं. इसके बाद भी कोई हमसे कह दे कि आप बदल गए हैं. तो हम खंडन करने में जुट जाते हैं. नहीं, ऐसा कुछ नहीं. कुछ भी नहीं बदला. बदलने से इतना डर. कुछ जुड़ने, घटने को लेकर घबराहट कैसी. यह सहज, सरल प्रक्रिया है.
हां, बदलने में क्या बदला. क्या बदलना चाहिए! यह अलग चीज है. इस पर संवाद होना चाहिए. जिस तरह हम अकेलेपन, खुद की बनाई 'दीवारों' में उलझ रहे हैं, हमारा 'वही' बने रहना संभव नहीं. परिवर्तन होगा ही. इसका विरोध करने से बात नहीं बनेगी.
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पहले आप यह नहीं पढ़ते थे. इस तरह के कपड़े नहीं पहनते थे. यह नहीं खाते थे. और, अंत में आप 'ऐसे' सोचते ही नहीं थे. आपके सोचने-समझने का 'तरीका' ही बदल गया. आपने पाया कि बदलाव जरूरी हैं, तो उनको अपना लिया. पुराने सिस्टम को अपग्रेड कर लिया, जिससे 'नई' चुनौतियों को स्वीकारने में आसानी हो. तो इसमें नया क्या. इसमें कुछ अूनठा नहीं. ऐसा नहीं जिसे स्वीकार करने में असुविधा, परेशानी महसूस हो.
दिल्ली पुस्तक मेले में एक पुराने मित्र मिले. कई लोगों के बीच उन्होंने इठलाते हुए कहा, 'आप लोग नए की नदी में बह गए. लेकिन मैं नहीं बदला. हमें बदलने का दम जमाने में नहीं. 'मैं आज भी वही हूं. एकदम नहीं बदला. पंद्रह बरस पहले जो अखबार पढ़ता, किताबें खरीदता, जिनके गीत सुनता. जैसे भाषण देता. आज भी वैसा ही. कुछ नहीं बदला.' सबने महसूस किया, बचपन में वह जैसे तुनकमिज़ाज थे. अब भी वैसे ही हैं. पहले जैसे किसी भी बात पर बिना कुछ जाने-समझे अड़े रहते. अब भी वही रवैया है.
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बच्चा छोटा है तो तुतलाता है. उसका तुतलाना लुभाता है. हम उससे कभी-कभार यह दुहराने के लिए कहते रहते हैं. लेकिन वही बच्चा पंद्रह बरस का होने के बाद भी तुतलाता मिले तो कैसा लगेगा! बच्चे बहुत तेज़ी से सीखते, समझते और नई चीज़ के लिए तैयार होते हैं. विडंबना यह है कि बड़े होते ही हम अपना ही सबसे अनमोल गुण बिसरा देते हैं.
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हमारी कुछ नया सीखने, समझने, स्वीकार करने की क्षमता 'बड़े' होने के साथ कम होती जाती है. माफ करना घटता जाता है. मन में मैल बढ़ता जाता है. इनके साथ बदलने का ख्याल भी दूर की कौड़ी है.
हमें स्वयं, उन्हें जिन्हें हम अपना मानते हैं, उनमें बदलाव के प्रति सतर्क रहना चाहिए. ऐसा न हो कि हम भी उस बच्चे की तरह रह जाएं, जिसका तुतलाना बचपन में सबका दिल जीत लेता था, लेकिन बड़ा होकर वही परेशानी का सबब बन गया! क्योंकि बच्चे की तुतलाहट के प्रेम में उसके बदलाव की ओर से ही आंख मूंद ली गई.
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हमें अपने बड़ों, परिवार, समाज का आदर करना है. उनकी बातों का ख्याल भी रखना है लेकिन नई, ताज़ी हवा के लिए घर की खिड़कियां खोलने से डरना नहीं है. खिड़कियों से घर में रोशनी आती है, अंधेरा नहीं! इसलिए परिवर्तन की तैयारी करते रहना, उसके लिए हमेशा तैयार रहना मनुष्य बने रहने की दिशा में जरूरी कदम है.
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