मैंने बहुत सोचा कि 'डियर जिंदगी' में इस कहानी को लिखा जाए, छोड़ दिया जाए. फिर तय किया कि कहना चाहिए, क्योंकि इस पर तंज अधिक कसे जाते हैं, बात सबसे कम होती हैं!
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हम पंद्रह बरस बाद मिले. पहले जब हम मिले थे तो उनकी उम्र बीस के आसपास रही होगी. कुछ रोज पहले जब हम दुबारा मिले, तो मैंने पाया, वह मानो साठ बरस की बीमार, हताश बुजुर्ग महिला हैं. पंद्रह बरस इतने तो नहीं होते कि किसी की उम्र को इतना बढ़ा दें. मैं बहुत कोमलता, स्नेह के साथ उस मुलाकात को याद करता हूं. दुर्गा वाल्मीकि, ऊर्जा, उत्साह और जीवन से भरपूर छात्रा थीं. उनकी आंखों में नींद कम सपने ज्यादा, सबके लिए हमेशा हाजिर रहने का हौसला था. मैं दुर्गा से खूब सारे लोगों के बीच मिला, लेकिन उस भीड़ में भी उसके सवाल, ऊर्जा की स्मृति आज भी है.
जिंदगी के रास्ते बदले. सब, बिछडे़ बारी-बारी. युवाओं के उस गुलदस्ते के गुलाब अपनी-अपनी दिशाओं में आगे बढ़ गए. सपनों की राह में कई बार एक-दूसरे का हाथ छूट जाता है. दुर्गा का हाथ भी उसके नजदीकी दोस्तों से छूट गया. जिनके माध्यम से वह हमसे जुड़ीं, मिलीं थीं, उनसे भी उनका साथ छूट गया!
डियर जिंदगी: परिवर्तन से प्रेम!
इतने बरस बाद अब ‘दूसरी’ दुर्गा मिली. जो कहानी सामने आई, उसमें संबंधों के तार उलझे हैं. कुछ लोग अपना हाथ बड़ी अदा से दूसरे से छुड़ा लेते हैं, तो कुछ भावना की गुत्थी में उलझकर जिंदगी झुलसा लेते हैं. दुर्गा के साथ भी वही हुआ. मैंने खूब सोचा कि 'डियर जिंदगी' में इस कहानी को लिखा जाए, छोड़ दिया जाए. फिर तय किया कि कहना ही चाहिए, क्योंकि इस पर तंज अधिक कसे जाते हैं, संवाद सबसे कम होता है!
प्रेम सहज, स्वाभाविक भावना है! लेकिन अगर इसमें पाइथागोरस प्रमेय की तरह दिमाग लगाया जाए, तो जिंदगी सुनामी की चपेट में आ जाती है. खतरों से सावधान करने वाली चेतावनी सुनाई ही नहीं देती!
डियर जिंदगी : रिटायरमेंट और अकेलापन!
दुर्गा ने जिससे प्रेम किया, वह युवा उनकी जाति से नहीं था. सामाजिक बंधन के अनुरूप यह विवाह संभव नहीं था. दोनों यह जानते थे. उसके बाद भी उनको भरोसा था कि इसे किसी तरह सुलझा लिया जाएगा. कई बार भ्रम सच्चाई से अधिक सच्चा लगता है. हम उसमें जीने लगते हैं, क्योंकि हम उस पल को खोना नहीं चाहते.
यहां तक तो सब ठीक है, लेकिन जब वास्तविकता से सामना हो जाता है, उसके बाद भी हम सच को स्वीकार नहीं करना चाहते.
डियर जिंदगी: रेगिस्तान होने से बचना!
संयोग से मैं दुर्गा और केशव दुबे दोनों को जानता था. मुझे हमेशा से लगता था कि केशव में दुनिया से लोहा लेने का हौसला नहीं है. जबकि दुर्गा, हर किसी के लिए लड़ने वाली थी! दोनों का साथ विरोधाभासी था. असल में प्रेम विचित्र संयोग है. अक्सर विरोधाभास में ही उसका जन्म होता है. फलता-फूलता भी ऐसे ही माहौल में है. एक मोड़ पर केशव ने हाथ छुड़ा लिया. वह परिवार का दबाव झेलने की स्थिति में नहीं था. उसने पहले ही दुर्गा को बता दिया था, लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थी.
दुर्गा ने केशव से क्या कहा! केशव ने दुर्गा से क्या कहा! हम नहीं जानते! हम केवल इतना जानते हैं कि प्रेम की अनसुलझी गुत्थी ने ऊर्जा, उमंग और स्नेह से सराबोर दुर्गा का जीवन पतझड़ में बदल दिया. जब कभी करार टूटने की बातें सुनता हूं, मेरी रुह में बेगम अख़्तर की आवाज़ उतरने लगती है...
'जो हम में तुम में करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो.
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो.'
असल में याद, सबको होता है. बस बात इतनी है कि कोई मासूम रह जाता है, कोई सयाना हो जाता है. ‘डियर जिंदगी’ की कोशिश बस इतनी है कि हम भावनात्मक उलझनों से बाहर निकल कर जीवन को सार्थक दिशा में ले जाएं!
डियर जिंदगी: ‘चुपके से’ कहां गया!
केशव के पास तर्क थे. दुर्गा के पास बस प्रेम था. सबकी समझाइश, काउंसलिंग बेकार गई. दुर्गा ने प्रेम को केवल केशव से जोड़ दिया. उससे आगे कुछ नहीं देख पाई.
हमारे आसपास ऐसी दुर्गा बड़ी संख्या में हैं. केशव भी हैं. लेकिन दुर्गा कुछ ज्यादा दिखती हैं. वह प्रेम को अपने हृदय पर बोझ की तरह लिए रहती हैं. यह बोझ कब दीमक बन जाता है. पता ही नहीं चलता. जिंदगी को एक खूंटे से नहीं बांधा जा सकता. किसी एक विचार से नहीं बांधा जा सकता. आज दुर्गा की जो मन:स्थिति है, उससे अकेले उसका जीवन नहीं सूखा, वह संभावना भी एक अधूरे रिश्ते की भेंट चढ़ गई जो सकारात्मक ऊर्जा के साथ न जाने क्या कर सकती थी.
जब भी हम प्रेम को संकीर्णता के साथ देखेंगे. इसी तरह जिंदगी के वरदान को व्यर्थ करते रहेंगे. कैसे-कैसे लोग हैं, इस दुनिया में. कहां से वह जीवन का हौसला लाते हैं. काश! ऐसे वक्त में हम उन्हें देख पाएं जिनके पास आशा के अलावा कुछ नहीं. इंटरनेट पर ऐसे लोग जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी ही प्रेरणा की कमी समाज में तेजी से होती जा रही है.
दुर्गा के पास कोई आर्थिक संकट नहीं था. इसके मायने यह नहीं कि आर्थिक आधार होता तो यह नहीं होता. हो सकता है कि तब भी होता, लेकिन हो सकता है, जिंदगी से लड़ने की जिद से अकेलापन हार गया होता!
दुर्गा को विल्सन नामक बीमारी है. जिसमें लिवर गंभीर संकट में रहता है. इससे तो वह लड़ रही है, लेकिन उस पर ज्यादा खतरा डिप्रेशन का है. वह निराशा के गहरे अंधेरे में है. हम कोशिश कर रहे हैं, लेकिन थोड़ी देर हो गई है! उसने अपने वजूद को केशव के साथ इतनी गहराई से चस्पा कर दिया कि अपना अस्तित्व ही भुला बैठी.
प्रेम कीजिए, खूब कीजिए. लेकिन अपनी कीमत पर नहीं. आप स्वतंत्र हैं. बंधन में बंधना ठीक है, लेकिन जंजीरों में नहीं. प्रेम को रोग नहीं बनाना है. इसे समंदर की तरह गहरा, नदी की तरह मीठा रखिए, लेकिन कुएं की तरह छोटा नहीं!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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