डियर जिंदगी: दुख को संभालना!
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डियर जिंदगी: दुख को संभालना!

हमने बेटियों की शिक्षा की ओर तो कदम बढ़ा दिया, लेकिन लड़के हमारे वैसे ही रह गए. उनका रवैया, नजरिया, सोच अभी भी सामंती है. पुरातन है. उसमें नई हवा के झोंके बहुत कम हैं!

डियर जिंदगी: दुख को संभालना!

दुख, जीवन का पर्यायवाची है. कौन है, जो दुखी नहीं है. दुख समंदर में बर्फ के पहाड़ की तरह छुपा होता है. दिखता थोड़ा, होता बहुत है. जो अपने जीवन में इसे पहाड़ होने से बचाए रखता है, जमने नहीं देता, वह जीवन को उतनी ही सार्थक दिशा देने में सफल होता है! इसका दायरा इतना व्‍यापक है कि इसकी चपेट में आने से बचना संभव नहीं . हां, इसे संभाल लेने से, दूसरी ओर मोड़ देने से जीवन को नई ऊर्जा, साार्थकता मिल सकती है.

युवा मोहनदास करमचंद गांधी को अफ्रीका में रेलगाड़ी से फेंक दिया जाता है. उस वक्‍त जब वह ‘महात्‍मा’ होने से दूर थे. मारपीट और डिब्‍बे से उपजे दुख, गुस्‍से को गांधी ने हिंसक होने की जगह व्‍यापक कर दिया. उसे मनुष्‍य के नागरिक अधिकार हासिल करने का उपकरण बना लिया. हम में से अधिकांश को एक जैसी स्थितियों का सामना करना होता है, लेकिन हर कोई उससे अलग रंग हासिल करता है! हम कौन सा रंग चुनते हैं, यह पूरी तरह हम पर निर्भर करता है.

डियर जिंदगी: अपने लिए जीना! 

भारत में युवाओं और शादीशुदा महिलाओं में आत्‍महत्‍या की ओर रुझान तेजी से बढ़ रहा है. जबकि पूरी दुनिया में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की आत्‍महत्‍या की दर कहीं अधिक है. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि भारत में यह विरोधाभास क्‍यों दिख रहा है.

पहले युवाओं की बात: दबाव का सही तरीके से सामना नहीं करना, रिश्‍तों में तनाव, गुस्‍से को न संभाल पाना, युवाओं की आत्‍महत्‍या के प्रमुख कारणों में से एक हैं. उत्‍तर भारत के मुकाबले दक्षिण के राज्‍य में लिंग अनुपात, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा कहीं बेहतर है. उसके बाद भी दक्षिण में आत्‍महत्‍या की दर प्रति लाख कहीं ज्‍यादा है. तमिलनाडु में यह राष्‍ट्रीय औसत के मुकाबले कहीं अधिक है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि भारत में आत्‍महत्‍या की दर शिक्षित भारतीयों में कहीं अधिक है.

डियर जिंदगी: प्रेम का रोग होना!

क्‍या इसका अर्थ यह है कि शिक्षित व्‍यक्ति अपनी भावनाओं के प्रबंधन में अधिक अकुशल होता जाता है. शिक्ष‍ित व्‍यक्ति जल्‍दी हार मान लेता है. वह अपनी अपेक्षा, कुछ हासिल करने को लेकर बहुत उतावला होता जाता है! वह अपने दुख, किसी से मिली पीड़ा, दिल टूटने (ब्रेकअप), भौतिक सुख में कमी और रिश्‍तों में तनाव को ठीक तरह से नहीं संभाल पा रहा है.
      
खासकर गुस्‍से को संभालने के मामले में युवा लगभग बेकाबू होते जा रहे हैं . महानगर तो छोड़िए अब छोटे-छोटे शहरों में भी ज़रा-ज़रा सी बात पर युवा हिंसक हो रहे हैं. हमने छोटी-छोटी असुविधा को दुख, गहरी चिंता में बदल दिया है.

असल में यह बहुत हद तक जीवनशैली का विषय है . हमारे भीतर धीरे-धीरे उदारता, स्‍नेह की जगह हिंसा, आक्रामकता, कठोरता बढ़ती जा रही है. कठोरता हमारे मन, चेतना को हिंसक बनाती है. हम एकतरफा सोचते लगते हैं. इस सोच की सबसे अधिक कीमत हमें ही चुकानी है.

डियर जिंदगी: परिवर्तन से प्रेम! 

इसलिए हमें दुख का प्रबंधन सीखना होगा . दुख को संभालना सीखना होगा. असहज स्थितियों में खुद को सहज बनाए रखना, प्रसन्‍नचि‍त्‍त रहना हमारे मनुष्‍य बने रहने, जिंदा, सुरक्षित रहने की दिशा में सबसे बड़े कदम हैं!

अब बात शादीशुदा महिलाओं में बढ़ते अवसाद की. इसके लिए थोड़ा पीछे जाने की जरूरत है. आज से बीस बरस पहले होने वाली शादियों को ज़रा आज के मुकाबले खड़ा कीजिए. उसमें और आज में सबसे बड़ा अंतर लड़कियों की शिक्षा, उनके बाहरी दुनिया के संपर्क का है. आज लड़कियों की शिक्षा तक पहुंच बढ़ने के साथ ही बाहरी दुनिया में हो परिवर्तन उन तक सीधे पहुंच रहे हैं. जबकि पहले इस काम के लिए सीमित समय तक चलने वाला टीवी और कम मिलने वाले अखबार ही थे.

थोड़ा ध्‍यान लगाएंगे तो समझ आएगा कि हमने बेटियों की शिक्षा की ओर तो कदम बढ़ा दिया, लेकिन लड़के हमारे वैसे ही रह गए. उनका रवैया, नजरिया, सोच अभी भी सामंती है. पुरातन है. उनमें नई हवा के झोंके बहुत कम हैं!

डियर जिंदगी : रिटायरमेंट और अकेलापन!

ऐसे में सुशिक्षित, आधुनिक, नए नजरिए वाली लड़कियों को शादी के बाद असहज स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है. पत‍ि का फेसबुक तो आधुनिकता का संग्रहालय है, लेकिन घर और अपने कमरे में वह अब भी उतना ही सामंती है! पत्‍नी के प्रति व्‍यवहार, उसके मानवाधिकार के प्रति जागरुकता के बारे में बहुत‍ विश्‍वास से कुछ नहीं कहा जा सकता.

हम आधुनिक बेटी के लिए बहुत हद तक तैयार हो गए हैं, लेकिन बहू अभी भी जितनी संभव हो ‘पुरानी’ वाली चाहिए. इस सोच के साथ नई शादीशुदा युवतियां तालमेल नहीं बिठा पातीं. समाज तो दूर परिवार तक उनका साथ ठीक से नहीं निभाता! इसके कारण वह गहरे तनाव की ओर बढ़ने लगती हैं.

बेटियां पराया धन होती हैं! उनके कन्‍यादान से कर्तव्‍य पूरा हुआ जैसे वाक्‍य जब तक समाज के विमर्श में रहेंगे, लड़कियों, शादीशुदा महिलाओं की आत्‍महत्‍या की दर को कम कर पाना आसान नहीं होगा. युवकों को असल में शिक्षित, आधुनिक नारी के अनुकूल बनाने का काम जब तक पूरा नहीं होगा, आत्‍महत्‍या को रोकना संभव नहीं होगा!

किसी को बदलने के लिए ज़‍िंदा रहना जरूरी है . जो जिंदा रहकर नहीं बदला जा सकता, उसे मरकर बदलना संभव नहीं! इसलिए, दुख को संभालना सीखिए. जिंदा रहिए!

ईमेल dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com

पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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