डियर जिंदगी: ‘ कड़वे ’ की याद!
हम अपनी बहुत ‘छोटी’ दुनिया के अनुभव को जब बहुत बड़ी धरती पर लागू करने की कोशिश करते हैं, तो इससे हमारा दृष्टिकोण बहुत बाधित होता जाता है.
सिंगरौली में युवाओं के साथ ‘डियर जिंदगी’ के जीवन संवाद में उत्साह, उमंग के बीच इस सवाल ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा...‘मैं बहुत अच्छा हूं, लेकिन मेरे साथ हमेशा कुछ ऐसा होता है, जिससे मुझे दुख ही मिलता है. इससे मेरा मन, स्वभाव बहुत नकारात्मक हो गया है. मैं किसी से भी मिलता हूं तो मन में यही चलता रहता है कि यह जरूर किसी स्वार्थ से मुझसे रिश्ता रखना चाहता है. इसे किसी से भी दोस्ती करना मुश्किल है.’
यह सवाल बीई प्रथम वर्ष के छात्र सुनील त्रिपाठी की ओर से आया. वैसे तो यह सुनील की ओर से आया सवाल था, लेकिन ध्यान से देखेंगे तो लगेगा कि यह सामान्य होता जा रहा है.’ हम में से हर किसी को लगता है कि दुनिया ने उल्टी राह पकड़ ली है. हमारी ओर से तो बस ठीक है, लेकिन बाहर सब उल्टा-पुल्टा है. इस तरह की धारणा के पीछे कई व्यक्तिगत, सामूहिक कारण हो सकते हैं. लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अनुभव के संसार का ‘छोटा’ होना है.
डियर जिंदगी: अरे! कितने बदल गए...
इसे ऐसे समझिए कि जो लोग निरंतर यात्रा करते रहते हैं. सफर में होते हैं, उनके अनुभव सुनील की तरह नहीं होते. वह इस तरह की शिकायत कम करते दिखते हैं, क्योंकि उनके अनुभव का दायरा बहुत बड़ा होता है. हम अपनी बहुत ‘छोटी’ दुनिया के अनुभव को जब बहुत बड़ी धरती पर लागू करने की कोशिश करते हैं, तो इससे हमारा दृष्टिकोण बहुत बाधित होता जाता है.
व्यक्ति, समूह और समाज के साथ हमारे व्यवहार का आधार उस छोटी सी दुनिया का हासिल अनुभव होता जाता है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं. हम छोटे ‘सर्वे’ को बहुत बड़े समाज पर लागू करने लगते हैं. इस मनोविकार से दूर रहने की जरूरत है. यह हमारे भीतर नकारात्मक नजरिए का चुपके से प्रवेश है. इतने हल्के से कि कई बार हमें भी पता नहीं चलता!
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इसे ऐसे समझा जाए कि एक बार रेल यात्रा में किसी से विवाद का अर्थ यह तो नहीं कि कि हर यात्री का व्यवहार खराब है. यात्रा में खराब लोग ही मिलेंगे. ऐसा भी नहीं. रेल में सफर करना ही बुरा है, ऐसा भी नहीं. जिनके पास नीचे वाली सीट होती है, वह थोड़े अकड़ू होते हैं, यह भी विश्वास से नहीं कहा जा सकता. हमारी बहुत सारी रेल यात्राओं में से एक यात्रा खराब थी, ऐसा ही कहा जाएगा.
वैसे भी अक्सर देखा गया है कि रेल का गुस्सा घर आते-आते काफी हद तक ठंडा हो जाता है. हम जैसे ही अपनी जिंदगी में लौटते हैं, उस घटना को भूल जाते हैं. ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि एक रेल यात्री से जिंदगी में दुबारा मिलने की संभावना बहुत कम होती है. मेरे साथ अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ. हां, केवल दो बार ऐसा हुआ कि रेल यात्रा में मिले यात्री के साथ बाद में भी संवाद होता रहा. दोनों ही बार उनके पक्ष से ही हमें बहुत अधिक स्नेह, सहायता मिली.
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इसके मायने हुए कि दुनिया, जिंदगी के मुकाबले बहुत छोटी है. जहां दुबारा मिलने की गुंजाइश कम है, उससे जुड़ी चीजों को दिल, दिमाग अपने आप साफ करते चलते हैं. लेकिन जहां दुबारा मिलने की संभावना है, वहां दिमाग में कड़वाहट बनी रहती है. इस नजरिए को बदलने की जरूरत है.
दिमाग के इस व्यवहार के पीछे मौका मिलने पर सबक सिखाने का भाव प्रबल होता है. हमें लगता है, कभी तो हमारे पास यह मौका आएगा. आज नहीं तो कल. अब उल्टा सोचिए, जैसे ही आपको पता चलता है कि अरे! आप जिसके बदले की चिंता में उबले जा रहे थे वह तो विदेश चला गया, किसी ऐसी परेशानी, बीमारी में फंस गया, जहां वह बहुत ज्यादा दुखी है, तो इससे मन को अजीब संतोष मिलता है.
यह मन का मनुष्यता के एकदम उलट व्यवहार है, ऐसा नहीं होना चाहिए. लेकिन मनुष्यता की छाप हल्की पड़ते जाने के कारण ऐसा हो रहा है. ‘रेलयात्री’ सिद्धांत हमारे नजरिए को बड़ा, बेहतर और आसान बनाने में उपयोगी भूमिका निभाता है. जिंदगी के सफर में खारे, कड़वे अनुभव को जितना हम भूलते जाएंगे, जीवन हमारे प्रति उतना अधिक उदार, संवेदनशील और संभावनाशील बनता जाएगा!
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