चिट्ठी, हमारे जमाने के विलुप्‍त हुए सबसे खूबसूरत अहसास में से एक है. खत, चिट्ठी, पोस्‍टकार्ड, अंतर्देशीय कार्ड में जिंदगी के इतने रंग भरे थे कि अब उनको याद करना बीते जमाने की याद जैसा ‘फील’ देता है. 


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कहते हैं, प्रकृति कभी वैक्‍यूम नहीं सहती. एक चीज की कमी को भरने के लिए दूसरी चीज हवा में हमेशा तैयार रहती है. लेकिन चिट्ठी का विकल्‍प आया क्‍या! किसी को मिला क्‍या? मुझे तो नहीं मिला. एक शहर से दूसरे शहर भागते दौड़ते हुए, जिंदगी की बारिश, गर्मी धूप के बीच खत कभी छतरी बनते तो कभी रेनकोट. 


लेकिन मोबाइल, कूरियर के आते ही चिट्ठी को हमने मिट्टी के हवाले कर दिया. हमने अपने दिल को नए ‘टेक्‍स्‍ट’ की ओर धकेल दिया. हमने सोचा था जैसे चिट्ठी अल्‍फाज के बहाने जज्‍बात बयां कर देती थी, वही काम एसएमएस, व्‍हाट्सअप कर देगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इनसे प्रेम की जगह गुस्‍सा अधिक बयां हो रहा है. 


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‘डियर जिंदगी’ को पढ़ रहे मित्रों के पास चिट्ठी का कोई अनुभव होगा ही, जरा उन दिनों, अनुभवों के साथ पीछे मुड़कर देखिए. एक चिट्ठी को लिखने में लगा वक्‍त , असल में खुद को दिया गया वक्‍त होता था. 


कई-कई कोशिशों में लिखे खत हमें अपनी ही अलग-अलग शक्‍लों से मिलाने जैसे होते थे. मन के आंगन में जाना, वहां से स्‍नेह, प्रेम के अहसास को चुनकर शब्‍दों की माला बनाना, हमें मनुष्‍य बनाए रखने की दिशा में जरूरी काम था. 


अच्‍छा होता कि हम खत लिखते रहते. असहमतियों के खत. प्‍यार और प्रेम से भटकाव के खत. एक-दूसरे को जानने के लिए जरूरी सेल्‍फी से गहरे रंग लिए हुए खत. 


हम लिखते रहते, एक-दूसरे को पढ़ते रहते, तो बहुत संभव होता कि हमारे भीतर का अकेलापन सतह पर नहीं आया होता. एक-दूसरे से कनेक्‍ट का जो बैलेंस चिट्ठी बनाती थी, वैसा कोई दूसरा नहीं बना पाया. मोबाइल ने हमें इतना बेचैन, उतावला बना दिया कि भीतर से इंतजार शब्‍द गायब हो गया. 


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हम सब केवल जल्‍दबाज, परेशान और उससे भी खतरनाक ‘उग्र’ होते जा रहे हैं. दूसरी ओर चिट्ठी की महक को याद करते हुए आप महसूस कर सकते हैं कि चिट्ठी ‘मिलने और इंतजार’ के बीच का खूबसूरत संतुलन थी मोबाइल, सोशल मीडिया ने हमें एक-दूसरे के नजदीक लाने की जगह एक ऐसी दुनिया रच दी है, जिसमें आभास बहुत है लेकिन अनुभव नहीं! 


चलते-चलते इन दिनों वायरल मैसेज की बात. जिसमें कहा गया है, ‘उनके फेसबुक पर हजार दोस्‍त थे, लेकिन जब वह अस्‍पताल पहुंचे तो ऑपरेशन थिएटर के बाहर बस माता-पिता, भाई-बहन थे, जिनसे मिलने के लिए कभी ‘समय’ नहीं मिला. क्‍योंकि वह सोशल मीडिया में बहुत लोकप्रिय थे.’ 


जरा सा पीछे लौटिए. खतों का जमाना ऐसा नहीं था. एक चिट्ठी हजार चेहरे, मदद के हाथ लिए चलती थी. चिट्ठी लिखना केवल जरूरत नहीं था, वह अपने भीतर झांकने, मन को साफ करने, रखने का एक तरीका भी था, जिसके बंद होते ही समाज, परिवार में संवाद का दम घुटने लगा. 


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हमारे चेतन और अवचेतन मन पर पड़ी धूल संवाद की कमी का ही हिस्‍सा है. इसलिए संभव हो तो खत लिखना शुरू कीजिए. छोटे-छोटे लेकिन अहसास से भरे खत, एक-दूसरे के मन में झांकते, लेकिन अपने ही मन को साफ करने के लिए लिखे खत खुद को बचाने के लिए बहुत काम आएंगे. 


टालिए नहीं, आज से ही शुरू कर दीजिए. कोई न मिले तो ‘डियर जिंदगी’ से यह सफर फि‍र शुरू किया जा सकता है... 


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ईमेल : dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com 


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डियर जिंदगी 
(दयाशंकर मिश्र)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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