खोखले वादों के विपरीत नर्मदा को सदा नीरा रखने के जन यत्न
ऐसे दौर में जब नर्मदा शायद सबसे ज्यादा संकट में है नीतिगत खामियों, लापरवाहियों और मुनाफे के लालच की शर्मसार करती कहानियों के विपरीत कुछ ऐसे किस्से भी हैं, जो आस जगाते हैं...
मप्र की जीवन रेखा कही जाने वाली नर्मदा संकट में है. धमनियों की तरह नर्मदा को पोषित करने वाली सहायक नदियां सूख चुकी हैं और इस कारण नर्मदा की लय भी कई जगह से टूट रही है. राजनीतिक और धार्मिक रूप से नर्मदा की परिक्रमा की जा रही है मगर इन यात्राओं से इतर पुल से गुजरते हुए जो भी नर्मदा की बिगड़ी सूरत देखता है तो भीतर तक सहम सा जाता है.
ऐसे दौर में जब नर्मदा शायद सबसे ज्यादा संकट में है नीतिगत खामियों, लापरवाहियों और मुनाफे के लालच की शर्मसार करती कहानियों के विपरीत कुछ ऐसे किस्से भी हैं जो आस जगाते हैं. कुछ किरदार हैं जो खामोशी से नर्मदा माई की धारा को सदा नीरा रखने के जतन में जुटे हुए हैं. इन्हें प्रचार का शौक नहीं, नर्मदा को उज्जवल रखने का जुनून है. इस जुनून का नाम है होशंगाबाद में चलने वाला ‘नर्मदा पवित्र सर्वदा अभियान’. इस अभियान ने न केवल नर्मदा के तटबंधों को हरा-भरा रखने की मुहिम ही चलाई, बल्कि बीते करीब डेढ़ वर्ष में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं. जैसे, होशंगाबाद में नर्मदा के 120 किलोमीटर क्षेत्र में लुप्त हो चुकी 418 ऐसी वनस्पतियों की खोज करना, जिनसे नर्मदा सदा नीरा रही. इनमें से 105 प्रकार की वनस्पतियों के डेढ़ करोड़ से अधिक बीज जुटा लेना. नर्मदा के रिपेरियन जोन में पौधरोपण के लिए ढाई हजार नर्मदा परिवारों का गठन तथा रोपे गए बीजों में से 20 प्रतिशत से अधिक का अंकुरित हो जाना.
यह सब सरकारी ढर्रे पर नहीं हुआ, बल्कि जनता की भागीदारी से तंत्र के समुचित और उपयुक्त समायोजन से हुआ है. एक सरकारी अभियान के जनआंदोलन बन जाने के सूत्रधार बने होशंगाबाद के संभागायुक्त उमाकांत उमराव. होशंगाबाद संभाग में नर्मदा के किनारे हरियाली जीवंत करने का अभियान आम पौधरोपण की तरह नहीं है, बल्कि इसे नर्मदा को सदा नीरा रखने वाले वैज्ञानिक प्रयत्नों के कारण जाना जाएगा. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा यात्रा के दौरान मिले नर्मदा मिशन को आगे बढ़ाने के निर्देश के साथ जब जनता को जोड़ लिया गया तो वह ‘नर्मदा पवित्र सर्वदा अभियान’ बन गया. वैज्ञानिक सोच तथा पारंपरिक ज्ञान का तालमेल करते हुए नदियों के पारिस्थितिक तंत्र के उस रिपेरियन जोन का अध्ययन किया जो नर्मदा को ‘पवित्र’ बनाता है या उसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 4.6 पीपीएम से अधिक रखता है.
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होशंगाबाद में नर्मदा किनारे करवाए गए वैज्ञानिक अध्ययन में पता चला कि नर्मदा के रिपेरियन जोन को प्रदूषण, अतिक्रमण आदि से भारी नुकसान पहुंचा है. यही वह जोन है जो नर्मदा की जलीय वनस्पतियों और प्राणियों को पोषित करता है, नदी के पानी का क्षारीय मान बढ़ाकर औषधीय रूप देता है और नदियों की गंदगी को प्राकृतिक रूप से साफ करता है. इसी अध्ययन के बाद तीन माह तक गांव-गांव जाकर बुजुर्गों से चर्चा की गई तथा नर्मदा के आसपास के रिपेरियन जोन की करीब 418 वनस्पतियों को पहचान कर उनका कैटलॉग बनाया गया. घास, झाडि़यां, लता और पेड़ के रूप में इनका वर्गीकृत कर इस कैटलॉग को गांवों में बांटा गया तथा सभी से आग्रह किया गया कि इनके बीज, शाख आदि जमा करें ताकि इनका नर्मदा के रिपेरियन जोन में फिर से रोपण किया जा सके.
ग्रामीणों को जोड़ने के लिए ‘मां की मनुहार’ कार्यक्रम आयोजित कर उन्हें उनकी आस्था की केन्द्र नर्मदा नदी की पवित्रता के लिए रिपेरियन जोन के महत्व के बारे में बताया गया. इस तरह हर गांव में 25 से 40 लोगों को मिलाकर ‘नर्मदा परिवार’ का गठन किया गया. इन्हें 120 किमी के नर्मदा प्रवाह क्षेत्र में रिपेरियन जोन को विकसित करने का काम दिया जाना था. इस क्षेत्र को 50-50 मीटर के खंड में बांटा गया ताकि लगाए गए पौधों की देखभाल हो सके. गांव-गांव से 105 प्रजातियों के डेढ़ करोड़ बीज/पौधरोपण के लिए कलम जुटाई गई. फिर उन्हें वर्ष 2017 की बारिश के पूर्व रोपा गया तथा रक्षा बंधन पर ‘प्रकृति रक्षाबंधन’ मना कर पौधों को रक्षा सूत्र बंधवाए गए. दीपावली पर इन पौधों के नीचे दीप भी प्रज्ज्वलित करवाए गए ताकि प्रकृति के साथ इंसानी नाता अधिक गहरा हो सके तथा पौधों के संरक्षण का संकल्प सुदृढ़ हो सके.
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पूरे अभियान का उद्देश्य केवल रिपेरियन जोन को पुनर्जीवित करना ही नहीं था, बल्कि ग्रामीणों में दायित्व बोध जगाना भी था. इस उद्देश्य से नर्मदा परिवार में बच्चों और महिलाओं को शामिल किया गया ताकि वे पौधों के संरक्षण का कार्य अधिक जिम्मेदारी से करें. अब जब अध्ययन करवाया तो पता चला है कि नर्मदा प्रवाह क्षेत्र के रिपेरियन जोन में अधिकांश स्थलों पर 20 प्रतिशत से अधिक बीज अंकुरित होकर पौधों का रूप ले रहे हैं. अब चुनौती है कि कैसे उन्हें पल्लवित कर विस्तारित होने दिया जाए. ऐसा न हो कि बागड़ के अभाव में मवेशी पौधों को नुकसान पहुंचा जाए. बस्ती से दूर-दूर तक लगाए पौधों को कैसे सींचा जाए. यकीन नहीं होगा कि छोटे-छोटे साधन जुटाना भी बड़ी समस्याओं की तरह सामने आए और कई बार लगा कि अब तो विफलता मिली मगर हौंसला पस्त न हुआ. एक-एक कर साधन जुटते गए और उम्मीद की सूखी जड़ें हरियाती गई. इस सारी सफलता के पीछे की मूल ताकत यह है कि पूरे अभियान में सरकारी खर्च नहीं किया गया, बल्कि सामाजिक सहयोग ने इसे इतना बढ़ा रूप दिया. इस अभियान ने सिद्ध किया है कि सरकारी कार्यों के ‘असरकारी’ होने की यही एक गारंटी हो सकती है.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)