मध्यप्रदेश उपचुनाव के नतीजों से उभरे संकेत
इन उपचुनावों के परिणाम का असर दो हफ्ते के भीतर ही मध्यप्रदेश में दोनों प्रतिद्वंदी दलों के संगठन और उनकी भावी रणनीति में देखने को मिलेगा ही मिलेगा.
मप्र भाजपा भले यह कहते हुए बचाव करे कि कोलारस और मुगावली कांग्रेस की परंपरागत सीटें रही हैं. इस लिहाज से हमारे जनाधार का नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन यथार्थ यह है कि इसी साल नवंबर में होने वाला चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा हैं, उसी रफ्तार से भाजपा की जमीन खिसकती जा रही है. इस उपचुनाव में भाजपा ने धन-धरम-जाति सबकुछ दांव पर लगा दिया था. वजह, इसका परिणाम यह पैमाना तय करने वाला था कि अगले चुनाव में भी क्या शिवराज पहले की तरह क्राउड कैचर और गेम चेंजर बने रहेंगे? इन नतीजों के बाद पार्टी का शीर्ष नेतृत्व निश्चित ही विचार कर सकता है, क्योंकि मामला 2019 के लोकसभा चुनाव का है. पिछली बार मप्र से भाजपा 2 को छोड़कर सभी सीटें जीती थी.
शिवराज सिंह चौहान को इस उपचुनाव का निहितार्थ पता था. पहली बार ऐसा हुआ कि घोषित रूप से इन दो विधानसभा क्षेत्रों जातीय सम्मेलन किए गए और मुख्यमंत्री वहां जाकर वोट मांगे. किरार-लोधी-कुर्मी वोटरों की गोलबंदी के लिए स्वयं अपने बेटे कार्तिकेय को मैदान में उतारा. वोटिंग से दो दिन पहले कोटा राजस्थान में किरार समाज राष्ट्रीय सम्मेलन में शिवराज सिंह की पत्नी साधना सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. यह रणनीति भी सजातियों को एकजुट करने की थी. जातीय वोटों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए अपने चिर प्रतिद्वंदी सांसद प्रहलाद पटेल के विधायक भाई जालम सिंह को दो हफ्ते पहले ही मंत्री बनाया और चुनाव मैदान में तैनात कर दिया. जालम लोधी जाति से आते हैं. उन पर कई संगीन आरोप हैं और मुकदमें चल रहे हैं.
पिछले दो वर्ष से मप्र में चौहान द्वारा यह संकेत देने की लगातार कोशिश की जा रही है कि भाजपा पिछड़ों और दलित की रहनुमाई करने वाली है उसे सवर्णों की कोई फिकर नहीं. आरक्षण को लेकर "माई के लाल" का वह चर्चित उद्घोष इसी रणनीति के तहत था. मप्र की जातीय गणित पर गौर करें तो पिछड़े-दलित- आदिवासी मिलकर पैसठ से सत्तर प्रतिशत होते हैं. इसी आंकड़े के फेर में 2004 में दिग्विजय सिंह फंसे थे, इसी में अब चौहान भी बिंधे नजर आते हैं. 'माई के लाल' फैक्टर ने इससे पहले चित्रकूट और अटेर में असर दिखाया था. दरअसल रणनीतिकार यहाँ गच्चा खा जाते हैं. उन्हें मालूम होना चाहिए कि शेष तीस-पैतीस प्रतिशत सवर्ण ही चुनाव की हवा बनाते हैं. सामाजिक व आर्थिक रूप से वे अभी भी प्रभावी हैं. सरकार से पहले वंचित वर्ग की इमदाद में यही खड़े होते हैं. यूपी और बिहार की तरह मप्र में इस सोशल फैब्रिक को उधड़ने में फिलहाल वक्त लगेगा.
कोलारस और मुगावली का चुनाव पूरी तरह सरकार बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया था. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने सिंधिया को फ्रीहैंड दिया इस हिसाब से उन्होंने प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव की रणनीति तक अपने हिसाब से फील्डिंग की. इस उपचुनाव में ग्वालियर-चंबल में यह जनधारणा सुस्पष्ट हो गई कि कांग्रेस की सरकार बनी तो यही मुख्यमंत्री होंगे. इस दौरान कांग्रेस के प्रादेशिक क्षत्रपों ने इतनी कृपा बनाकर रखी कि दीवारों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के भावी मुख्यमंत्री होने के नारे पर उलट प्रतिक्रियाएं नहीं दीं. कांग्रेस अभी भी कोई एकजुट नहीं है, लेकिन नाराज वोटरों का विकल्प वही हैं. मैं यह अनुमान लगा सकता हूं कि कांग्रेस आलाकमान अब खुलकर सिंधिया को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार घोषित कर सकता है किसी भी क्षण.
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का नाम घोषित करके ही चुनाव लड़ा गया था. यदि भाजपा के पास शिवराज सिंह चौहान का घोषित चेहरा हैं तो कांग्रेस के वोटर भी चाहते हैं कि उनके पास भी ऐसा कोई चेहरा हो जिससे वे तुलना कर सकें.
कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में रणनीतिक रूप से साफ्ट हिंदुत्व को अपनाया है उसका भी असर दिखना शुरू हो गया है. दरअसल कांग्रेस के मुसलमान प्रेम से कांग्रेसी ही चिढ़ चुके थे. कट्टर कांग्रेसियों का भी इसी मुद्दे पर भाजपा से जुड़ाव हुआ था. आने वाले चुनाव में उनकी घर वापसी देखने को मिल सकती है. दिग्विजय सिंह ने 2004 के पहले दस सालों में क्या बंटाधार किया..भाजपा नेताओं से सुनते-सुनते लोग ऊब गए हैं. अब इसका ज्यादा असर नहीं हैं फिर भी यदि दिग्विजय प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होते हैं तो भाजपा सिंधिया की बजाय दिग्विजय पर ही अपने प्रचार अभियान का रुख मोड़ेगी. वैसे दिग्विजय के शासनकाल यानी 2004 में जो 5 साल के बच्चे थे वे इस बार वोटर होंगे. इन चौदह सालों में नर्मदा का कितना पानी बह गया इसका लेखा अब नहीं लगेगा.
भाजपा के संगठन में भी सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है. हर राजनीतिक आयोजनों के लिए इवेंट मैनेजर हैं जिसे नौकरशाह डिजाइन करते हैं. भाजपा के छोटे से लेकर बड़े कार्यकर्ताओं और नेताओं तक यह धारणा अच्छे से घर कर गई है कि उनकी ही सरकार में उनकी औकात नौकरशाही और बाबूशाही के आगे मिट्टी भर नहीं. विधायकों की क्या कहें मंत्रियों तक को नौकरशाहों से अनुनय करना पड़ता है. यह सवा सोलह आने का उदाहरण है कि मुगावली-कोलारस में वोट पड़ने के तीन दिन पहले चंबल में एक शहीद स्मारक के समारोह में देश की रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण आईं लेकिन उस क्षेत्र के सांसद अनूप मिश्र ने यह कहते हुए उस कार्यक्रम से खुद को दूर रखा कि जब अधिकारी एक सांसद की ही बात नहीं सुनते तो ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम में क्या जाना. जिस स्मारक का उद्घाटन करने रक्षामंत्री आईं थीं उसके लिए धन अनूप मिश्र ने ही अपनी सांसद निधि से दिया था.
संगठन में भितरघात जैसी स्थिति है. चित्रकूट चुनाव में प्रत्याशी चयन को लेकर यह उभरी थी. कहते हैं कि संगठन ने प्रत्याशी को लेकर मुख्यमंत्री और स्थानीय मंत्री द्वारा सुझाए गए प्रत्याशी को दरकिनार कर अपने अंदाज से दूसरे को चुना. चित्रकूट चुनाव में मुख्यमंत्री की अरुचि को भाजपाइयों ने भी महसूस किया था. संगठन के स्तर पर देखें तो नंदकुमार चौहान मुख्यमंत्री के पपेट हैं. मीडिया किसी भी मौके में यह लिखने से नहीं चूकता. पिछले संगठन मंत्री अरविंद मेनन जितनी चौकसी से चुनाव प्रबंधन में खुद को झोक देते थे वह बात सुहास भगत में नहीं है. भगत अभी भी प्रचारक की भूमिका से मुक्त नहीं हो पाए. नंदूभैय्या-मेनन की युति के मुकाबले फिलहाल अध्यक्ष और संगठन मंत्री के बीच की केमिस्ट्री फीकी है.
अकादमिक पृष्ठभूमि के प्रदेश संगठन प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे के पास अनंत कुमार जैसी न तो फुरसत है और न ही सबको मुट्ठी में बांधे रखने का कौशल. भाजपा के लोग ही संगठन की दशा से हैरान हैं. उपचुनाव के नतीजों के बाद यह फुसफुसाहट स्वर में बदल सकती है कि इस बार का चुनाव अब इन लोगों के बूते नहीं.
उप चुनाव के नतीजों ने राजस्थान की भांति मप्र में भी कांग्रेस को संजीवनी दी है और भाजपा को सबक. इसका असर दो हफ्ते के भीतर ही दोनों प्रतिद्वंदी दलों के संगठन और उनकी भावी रणनीति में देखने को मिलेगा ही मिलेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)