मन की सफाई का त्योहार है होली
इस त्योहार को यदि साहित्यिक शब्दावली में आप अप-संस्कृति का त्योहार कहें, तो शायद बहुत गलत नहीं होगा.
हमारे यहां बहुत से त्योहार मनाये जाते हैं, जिनमें होली सबसे अलग और अनोखा त्योहार है. त्योहारो को मूलतः संस्कृति की अभिव्यक्ति माना गया है. जो हमारे संस्कारों को अभिव्यक्त करें या हमारे संस्कार जिनको स्वीकारें, वे ही त्योहार हैं. लेकिन क्या आपने कभी होली के त्योहार के बारे में सोचा है? आईए, हम इसके बारे में थोड़ा सोचकर देखें. यहां मेरा सरोकार होली के त्योहार के पीछे छिपी हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की कहानी से नहीं है. बल्कि इस त्योहार के पीछे छिपे हुए सामूहिक मनोविज्ञान से है. इस त्योहार को यदि साहित्यिक शब्दावली में आप अप-संस्कृति का त्योहार कहें, तो शायद बहुत गलत नहीं होगा. लेकिन यही इसकी सबसे बड़ी विशिष्टता और अर्थवत्ता भी है, क्योंकि इसका यही तथाकथित अप-सांस्कृतिक स्वरूप शेष सभी त्योहारों के स्वरूप को सांस्कृतिकता प्रदान करता है. देखिए कि ऐसा कैसे होता है.
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होली के त्योहार के दो मुख्य चरण हैं. पहला-होलिका दहन तथा दूसरा होली मनाना; जैसे कि राख पोतना, कीचड़ फेंकना, रंग से सराबोर करना, गालियां देना, अश्लील चुटकुले सुनाना आदि. अब हम इनका थोड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके देखें. दीपावली में दीपक जलाये जाते हैं, जो निहायत ही निजी तौर पर होता है. होलिका में चोरी की गई लकड़ियां जलाई जाती हैं, जो सामूहिक तौर पर होता है. साथ ही इन जलती हुई लकड़ियों में घर का कूड़ा-कचरा (थोड़ा-सा प्रतीकात्मक रूप में ही सही) भी जलाया जाता है. मैं समझता हूं कि यहां दीपक जलाना और कूड़ा-कचरा जलाने के इस अन्तर को आप समझ रहे होंगे. दीप आत्मा का प्रतीक है. चेतन का प्रतीक है. चेतना के स्तर पर जो कुछ भी होता है, अधिकांशतः दीपक की तरह व्यवस्थित, शान्त और सुन्दर ही होता है, लेकिन जो कुछ अवचेतन के स्तर पर होता है, वह ऐसा नहीं होता. अवचेतन तो कूड़े-कचरे का एक अम्बार होता है. इसे गौतम बुद्ध ने एक बहुत ही सुन्दर नाम दिया था-‘आलय विज्ञान.’
गौतम बुद्ध का मानना है कि मनुष्य के मन का एक ऐसा कोना होता है, जिसे हम ‘स्टोर हाउस ऑफ कॉनशसनेस’ कह सकते हैं. इसे उन्होंने ‘आलय विज्ञान’ कहा है. जैसे घर में एक कबाड़खाना होता है, जहां हम अपनी सभी बेकार की चीज़ें डालते रहते हैं, ठीक इसी प्रकार हमारी चेतना में स्मृतियों का संग्रह करने वाला एक स्टोर हाउस होता है, जहां सब चीज़ें संग्रहीत होती जाती हैं हमारे सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि हम अपने इस स्टोर हाउस में जमा इस कबाड़ से मुक्त कैसे हों? क्या आपको नहीं लगता कि होलिका-दहन में जलाया जाने वाला कबाड़ कहीं न कहीं हमारे इस आलय विज्ञान के कबाड़खाने को ही व्यक्त करता है? सोचकर देखिए. इस बार जब आप होली मनाएं, तब आप इस बात पर थोड़ा गौर करके देखिए, तो पाएंगे कि यह कुछ ऐसा ही है.
फिर बात आती है-होली मनाने की. भला यह भी कोई त्योहार हुआ, जिसमें सड़कों पर खुलेआम अश्लील गालियां दी जाएं और नारे लगाये जाएं. वस्तुतः यह हमारे अन्दर की दमित आकांक्षाओं की ही सार्वजनिक अभिव्यक्ति है. यूं अगर किसी और दिन ये ही बातें कहीं जाएं, तो पकड़कर थाने में बन्द कर दिये जाएंगे. लेकिन आज सबको छूट है. कोई कुछ भी कह सकता है और कोई किसी को भी गाली दे सकता है. साथ ही यह भी याद दिलाया जाता है कि ‘बुरा न मानो होली है’. जो कहा जाता है, वह सच होता है, लेकिन चूँकि होली की आड़ में कहा जा रहा है, इसलिए वह सच होकर भी सच नहीं रह जाता.
होली के दिन स्वांग भरना, दूसरों पर कीचड़ पोतना और यहाँ तक कि समाज के सम्मानित लोगों के बारे में खुलेआम चुटकुले सुनाना, उन्हें टायटल देना आदि भी अन्तर्मन की कुत्सित भावनाओं या कि बड़े लोगों के चरित्र की वास्तविकताओं को सामने लाकर मन की भड़ास को बाहर निकालने का ही एक माध्यम है. साल भर का जो भी कूड़ा-कबाड़ा इस मन के स्टोर हाउस में इकट्ठा हो गया है, होली का त्योहार उसी की सफाई करने का दिन है. दीपावली घर की सफाई का दिन है, तो होली मन की सफाई का दिन है.
किसी को चाहने का मतलब है, उसके संपूर्ण अस्तित्व को स्वीकारना
आपको यह जानकार शायद आश्चर्य होगा कि होली का त्योहार एक ऐसा त्योहार है, जो दुनिया की सभी संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में मौजूद है. इसका स्वरूप भले ही स्थान के अनुसार बदल गया हो, लेकिन उस त्योहार के मूल में दमित इच्छाओं को सामूहिक रूप से व्यक्त करने की भावना ही प्रमुख होती है. लेटिन अमेरिकी देशों में और गोवा में भी एक त्योहार मनाया जाता है -‘कार्निवाल’. इसमें स्त्री-पुरुष विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर एक जुलूस निकालते हैं. खूब नाचते-गाते हैं और वे जो कुछ भी कहना चाहें, कहने के लिए स्वतंत्र होते हैं. सोचिए कि यह क्या है? यहाँ तक कि आदिम संस्कृतियों में राक्षसों के, शैतानों के और जानवरों के मुखौटे लगाकर नृत्य और अभिनय करने की जो पद्धति है, वह भी कहीं न कहीं हमारे अन्तर्मन में जमी हुई इन वृत्तियों को बाहर लाने की ही एक प्रणाली है.
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(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)